बुगुन जनजाति के सांस्कृतिक धरोहर की पुनर्स्थापना
अदु खानम ने अरुणाचल प्रदेश में अपने बुगुन (खोवा) के एक छात्र नेता से लेकर बुगुन सांस्कृतिक सोसायटी की स्थापना तक की अपनी यात्रा का वर्णन किया है। वह आधुनिकीकरण के नाम पर अपने समुदाय में अपनी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं से बढ़ते अलगाव का मुकाबला करने की बात करते हैं। और 2 दशकों की अवधि में, कैसे उन्होंने और उनकी टीम ने न केवल देश भर में अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, बल्कि इसे अपने समुदाय के भीतर एक जीवित सांस्कृतिक विरासत के रूप में पुनर्जीवित किया है।
कहानीकार – आदु खानम
गाँव डिखियांग,
सिंचुंग उप-निर्वाचन क्षेत्र,
पश्चिम कामेंग,
अरुणाचल प्रदेश
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एक सामान्य दर्शक को ऐसा लग सकता है कि बुगुन समुदाय अपने सदियों पुरानी सांस्कृति और परंपराओं को आज भी उतना ही मानते है और उसपर गर्व करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि हमारे सांस्कृति के कई पहलू धीरे-धीरे गायब हो रहे थे और इस स्थिति को बदने में दशकों लगे है।
बुगुन जनजाति (जिन्हें खोवा भी कहा जाता है) के लोगों ने अपने ज्ञायन, सांस्कृतिक और परंपराओं के कहानी-किस्से और उनके उत्पत्ति को मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाया है, क्योंकि उनकी भाषा के लिए कोई लिपि नहीं है। अरुणाचल प्रदेश के 26 प्रमुख जनजातियों की तरह, बुगुन की भी अपनी विषेश सांस्कृतिक पहचान है। उनकी समृद्ध लोक कला, सांस्कृतिक धरोहर और भाषा उन्हें दुनिया के अन्य जनजातियों से अद्वितीय बनाते हैं।
मैं बुगुन जनजाति से हूँ और मैंने बुगुन कला को पुनर्स्थापित करने के लिए बुगुन सांस्कृतिक समाज की स्थापना की है। मेरा बचपन इटानगर में बीता क्योंकि मेरे पिताजी का व्यापार वहीं आधारित था। मुझे याद है कि जब मैं अपने ग्रेजुएशन के दूसरे वर्ष में अपने गाँव वापस गया था, तो मुझे यह देखकर बहुत बुरा लगा कि गाँव के लोग कई परंपराओं को धीरे-धीरे छोड़ रहे थे और आधुनिक बनने के नाम पर हमारी सांस्कृतिक से दूर होते जा रहे थे। आज, बुगुन भाषा लुप्त होने की कगार पर है क्योंकि इसे हिंदी, अंग्रेजी या कुछ क्षेत्रीय लोकप्रिय बोली का उपयोग करने का प्रचलन बढ़ रहा है। इसी तरह, पारंपरिक लोकगीत और संगीत वाद्ययंत्र लगभग गायब हो गए हैं। फिर भी एक अच्छी बात यह है कि लोकगीतों में कई पारंपरिक शब्दों को उपयोग में रख कर उन्हें पूरी तरह खो जाने से बचाया हैं। लेकिन चिंता का एक कारण यह है कि युवा पीढ़ी का लोक कला की ओर रुझान कम होता जा रहा है।
हालांकि मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करूंगा, परिस्थितियों ने मुझे एक छात्र नेता व सामाजिक कार्यकर्ता बना दिया और मैंने ऑल बुगुन खोवा सोसाईटी, जो हमारे समाज की उच्च समुदाय-आधारित संगठन है, के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया। 2004 में ग्रेजुएशन करते समय एक छात्र की हैसियत से मुझे यह एहसास हुआ कि इस प्रतिस्पर्धी युग में हमारा समुदाय कई माइने में पीछे रह जा रहा है और अपनी काबलियत का उच्च प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है। उस समय बच्चे अपनी स्थानीय भाषा को भी नहीं जानते थे, और ना ही मैं अपनी भाषा को अच्छे से जानता था। हमारे गाँव के बच्चे पढ़ाई करने के लिए गाँव से बाहर जा रहे थे और लोग नौकरियों के लिए। मैंने तब तय किया कि मैं अपनी सांस्कृतिक को बचाने के लिए काम करूंगा। हमारे समुदाय के कुछ छात्र मित्रों के साथ, मैंने एक छात्र नेता के रूप में कार्य करना शुरू किया और हमारा समुदाय-आधारित छात्र संघ बनाया जिसका नाम ‘ऑल बुगुन (खोवा) स्टूडेंट्स यूनियन’ दिया गया। इससे हमारी अलग बुगुन पहचान को स्थापित करने की शुरुआत हुई ताकि भविष्य में हमारे युवा नेत्रृत्व निभा सकें। अपना लक्ष्य किसी हद तक हासिल करने में सफलता अवश्य मिली, पर साथ ही हमारे समुदाय की छोटी जनसंख्या, कम साक्षरता दर व अन्य चुनौतियों के साथ हमें जूझते रहना पड़ा।
बचपन में मुझे शास्त्रीय संगीत बहुत पसंद था और मैंने कुछ वर्षों तक तबला और संगीत की प्रशिक्षण लिया। संगीत और नृत्य से आकर्षण ने मुझे यह अहसास कराया कि हमारी जनजाति के पास एक अद्वितीय लोककला परंपरा है जो बुगुन सांस्कृतिक को लोकप्रिय और प्रदर्शनीय बना सकती है। मैंने हमारे बुगुन समुदाय के कुछ समर्पित लोगों को ढूंढा जो इस समृद्ध परंपरा को संरक्षित, सुरक्षित और बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध थे, और हमने इसे बुगुन कल्चरल सोसाइटी का नाम दिया। जब मैंने काम शुरू किया, तो मुझे बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं था। प्रारंभ में, हमें लोगों को जोड़ने में बड़ी कठिनाई हुई क्योंकि हमारे समुदाय के अधिकांश लोग अब नृत्य और संगीत को जानते नहीं थे। इसके अलावा हम उन्हें अच्छी तरह से वेतन नहीं दे सकते थे। मुझे याद है कि जब मैंने इस सांस्कृतिक सोसाइटी की शुरुआत की तो हमारी टीम के कुछ सदस्य स्कूल और कॉलेज के छात्र थे और जब हमें प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए यात्रा के लिए पैसे जुटाने की बात आई तो उनमें से कुछ अपने लिए पैसे नहीं जुटा सके। इस प्रकार की स्थितियों में हम केवल उन सदस्यों को कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए लेते थे जो अपने खर्च खुद उठा सकते थे। इन कारणों को लेकरहमारे समूह की शुरूआत छोटी हुई। दस साल की मेहनत और संघर्ष के बाद हम उस स्थिति तक पहुँच गए हैं जहाँ लोग स्वयं हमारे पास आते हैं और अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं कि वे हमारे समूह में काम करना चाहते हैं।
बुगुन सांस्कृतिक और परंपराओं की अभिव्यक्ति में लोक नृत्य और गीत का ख़ास स्थान हैं। इनमे से एक गास्यो-स्यो का पारंपरिक नृत्य है जिसका अर्थ “नृत्य करें” या “चलो नृत्य करें” (या नृत्य करने के लिए हिलें) है और इसे प्रत्येक उत्सवी मौके में किया जाता है- जैसे कि जन्म, विवाह और कोई भी त्योहार। इसे लोक संगीत, गाने और नृत्य की मिश्रित प्रस्तुतिकरण के रूप में लोकप्रियता प्राप्त है। गास्यो-स्यो के दो रूप हैं जिन्हें “गेक-गास्यो-स्यो” और “गिडिनडक-गास्यो-स्यो” कहा जाता है जोकि अलग-अलग अवसरों के अनुसार किए जाते हैं।
गिडिनडक एक समूह नृत्य है जो सामाजिक कार्यक्रमों और त्योहारों में, जैसे कि फैम खो सोवाई (हमारे समुदाय के 11 गाँवों को एक साथ लाने वाला स्थानीय उत्सव) में प्रस्तुत किया जाता है।
गेक मेरा पसंदीदा है क्योंकि यह मनोरंजन और खुशी के मौके पर एक अनौपचारिक नृत्य है और इसे सामान्यत: जन्म, विवाह या किसी भी शुभ घड़ी के अवसरों पर अकेले या एक युगल के रूप में किया जाता है।
इसके अलावा कई लोकप्रिय स्थानीय गीत हैं जो बुगुन समाज के पुरानी पीढ़ी के अज्ञात लोगों ने रचे थे। इनमें से कई पुराने किस्सों से जुड़े हुए हैं। इन एब्वे या गीतों को हमारी जनजाति के लोक गीत कहा जा सकता है।
आईए, हम बुगन जनजाति के वाद्य यंत्रों से परिचय करते हैं।
बुगुन जनजाति के द्वारा बजाए जाने वाले परंपरागत संगीत वाद्ययंत्रों में थाबम (ढोल) और खेंख्याप (पीतल की टोंग) शामिल हैं। लोक गीत गाते समय ताल बनाए रखने के लिए हाथ से ताली बजाई जाती है। संगीतकारों के अपनी खुद की नृत्य शैली होती है और वे अपने विशिष्ट पहनावे में रहते हैं। इन दो वाद्य यंत्रों के अलावा बुगुन कलाकारों के पास एक पारंपरिक बांस का बना हुआ फ़्लाए या बांसुरी, इकतारा सारंगी या बीएन और बांस का बजने वाला माउथ हार्प या गोंग भी शामिल है।
जिस स्थान पर बुगुन लोक कला वर्तमान में स्थित है वह बहुत महत्वपूर्ण है। हमारी सांस्कृतिक विविधता- जिसमें पारंपरिक कला और शिल्प के सभी रूप शामिल हैं, वैश्वीकृत संस्कृति से निगले जाने के खतरे में है। हमारी कहानियाँ, लोक कला और पारंपरिक ज्ञान नई पीढ़ी नहीं ग्रहण कर रही हैं और यह केवल बुजुर्ग पीढ़ी के पास रह है। उदाहरण के लिए, हमारे बुजुर्गों में से कुछ ही फ्लाई (बांसुरी), बीएन (सिंगल स्ट्रिंग्ड फिड्डल) और गोंग (माउथ हार्प) बजा सकते हैं। और कम बजुर्ग हैं जो लोक गीत और लोककथाएं सुना सकते हैं। उनमें से और भी कम हैं जो बांस और केन से वाद्य यंत्र व टोकरियाँ बना पाते हैं। इसके अलावा, वे अब यह काम करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि इसमें बहुत मेहनत जाती है और उन्हें उनकी कला का वांछित मूल्य नहीं मिलेता है। मैं कला का महत्त्व समझता हूँ और पूरी कीमत का भुगतान करने के लिए तैयार हूँ, लेकिन शिल्प कलाकार काम करने के लिए राज़ी नहीं हैं।
लेकिन मुझे लगता है कि सब कुछ इतना बुरा नहीं है। पिछले 10 वर्षों से कुछ सुधार हुआ है। मुझे याद है कि हमने जब प्रारंभ में काम करना शुरू किया था तब हमें पारंपरिक पोषाक और आभूषण प्राप्त करने में कठिनाई हुआ करती थी।
आज हमने बुगुन संगीत, नृत्य और अन्य कई सांस्कृतिक पहलुओं को पुणर्स्थापित करने में सक्षम रहे हैं। इसके लिए पूरा श्रेय बुगुन सांस्कृतिक सोसाइटी को जाता है। प्रारंभ में हमें लोगों से अपनी पारंपरिक पोषाक बड़ी मुश्किल से मांग कर काम चलाना पड़ता था जिन्हें हम सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पहनते थे। हमारी लोकप्रियता बढ़ने के साथ अब लोग हमारे पारंपरिक उत्पादों को फिर से बनाने लगे हैं। हाल ही में बुगुन सांस्कृतिक सोसाइटी ने बुगुन लोक गीतों की एक श्रृंगारिक सीरीज़ शुरू की है और पहला एल्बम – “बुगुन लोक संगीत: वॉल्यूम -1” रिलीज़ हो चुका है। अगला वॉल्यूम बहुत जल्द रिलीज़ होने वाला है और उम्मीद है कि युवाओं के बीच में रूचि पैदा की जा सकेगी।
कभी-कभी हमें कार्यक्रम प्रदर्शन के लिए यात्रा करते समय कुछ चुनौतियाँ का सामना करना पड़ता हैं। हम कोई दूरस्थ कार्यक्रमों में अपने बुजुर्ग साथियों को साथ लेकर नहीं जाते हैं क्योंकि उनकी स्वास्थ्य बिगड़ सकती है। मुझे आज भी याद है कि एक बार हम दक्षिण भारत यात्रा के लिए गए थे और मेरी पूरी प्रदर्शनकारी टीम बीमार पड़ गई थी क्योंकि हमारे भोजन और दक्षिण भारत के भोजन में बहुत अंतर है। हमें खट्टा खाने की आदत ही नहीं है। मेरी टीम की एक लड़की ने कहा-
“आदू सर, क्या हम भोजन के बाद खीर खा सकते हैं?”
बाद में मैंने देखा कि जो उसे मीठी खीर लगा वास्तविक में वह एक खट्टा व्यंजन था और यह हमारे स्वास्थ्य से मेल नहीं खा पाया।
जहां भी हम उत्सव और प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए यात्रा करते हैं, हमारे कार्यक्रम और व्यवस्थाओं का जिम्मा हमारे सोसाइटी के संचालकों द्वारा किया जाता है। लेकिन जब हम सरकारी कार्यक्रमों के लिए जाते हैं तो कभी-कभी पैसे कम मिलने पर हमें अपने जेब से खर्च करके भागीदारी करनी पड़ती है। हम ऐसा इस लिए करते हैं क्योंकि धन से ज्यादा हमें अपनी सांस्कृति को बढ़ावा देने की इच्छा है।
हमारी सांस्कृतिक टीम ने आज तक बुगुन लोक गीत और नृत्य को कई स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों में प्रस्तुत किया है। बुगुन सांस्कृतिक सोसाइटी वर्तमान में केंद्रीय संचार ब्यूरो, सूचना और प्रसार मंत्रालय, भारत सरकार के एक निजी सांस्कृतिक मंडली के रूप में कार्य कर रही है।
इस वर्ष हमने G20 में बुगुन सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जहां हमें अफ्रीका के कलाकारों से मिलने का अवसर मिला। वहां यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उनकी और हमारी नृत्य शैली में कितनी समानता है। भौगेलिक दूरी और सभ्यताओं का इतना अलग होने के बावजूद कला में वो ताकत है कि वो हमें जोड़ सकती है।
यह मुझे बहुत पसंद है।