An old tree in Thamri Kund | Photo: Isha Shah
Biodiversity,  Culture,  Ecological Impact,  Hindi,  Uttarakhand,  Written (Hindi)

थुनैर: हजार सालों से जीवित एक पेड़

पश्चिमी हिमालय के उत्तराखण्ड के गोरी घाटी के दूर-दराज़, बर्फ़ीले पहाड़ों में स्थित शानदार थुनैर पेड़, जो अपनी औषधीय गुणों और के लिए जाना जाता है, प्रकृति, संस्कृति और अस्तित्व के बीच गहरे रिश्तों को समेटे हुए है। इस धीरे बढ़ने वाले विशाल पेड़ की पत्तियाँ, खाल और लकड़ी में एक ऐसा रहस्य छिपा है, जो न केवल उपचार, बल्कि ग्रामीण जीवन के कई पहलुओं में भी समाहित है। बदलते समय और विस्मृत परंपराओं के बीच, इस दुर्लभ होते पेड़ का संरक्षण केवल एक पर्यावरणीय संघर्ष नहीं, बल्कि अतीत, भविष्य और गहरे अर्थों की लड़ाई बन जाता है।

कहानीकार- दीपक पछाई
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़ उत्तराखंड

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उच्च हिमालय की गोद में, जहाँ बर्फीली हवाएँ आसमान को चूमती हैं, वही मुनस्यारी  की गोरी घाटि  में अनगिनत पेड़ झूमते हैं। उनमें एक ऐसा भी पेड़ है, जो अपने औषधिय गुणों को समेटे हुए है। एक ऐसा पेड़, जो साल भर हरा-भरा रहता है, जैसे कि प्रकृति का कोई अमर सिपाही हो। एक ऐसा पेड़ जिसके पीछे छिपी हजारों साल पुरानी कहानियों ने इसे रहस्यमय बना दिया है।   

ये है थुनैर का पेड़। इसको अंग्रजी में यू ट्री (Yew) कहते है। इसका वैज्ञानिक नाम टेक्सास बकाटा है, और ये टैक्सेसी परिवार का हिस्सा माना जाता है। हमारी मातृभाषा, यानी कुमाऊंनी या कहो पहाड़ी में तो इसको हम ल्वैंटा के नाम से जानते है। यह पेड़ कोई आम पेड़ नही है। ये अपने आप में हम इंसानों के लिए एक बहुत उपयोगी पेड़ है, जिसके हर भाग हम अलग-अलग चीजों में इस्तेमाल करते है।

The Thuner  tree, known in English as the Yew Tree. Photo: Deepak Pacchai
थुनैर का पेड़, अंग्रेजी में यू ट्री के नाम से जाना जाता है। फोटो: दीपक पछाई

रोचक बात तो ये है, कि इस पेड़ को बढ़ने में बहुत समय लगता है। थुनैर, जो समुद्र तल से 2000 मीटर से लेकर 3300 मीटर के बीच ही हिमालय में पाया जाता है, साल में औसतन 1 इंच तक ही बढ़ता है। ऐसा तो मैंने पहली बार सुना था क्योंकि उत्तराखण्ड के गोरी घाटी में जहां मैं रहता हूँ, मैने अपने आस-पास उतीस के पेड़ देखे है, जो 1-2 साल में ही 15 ऊँचाई तक बड़ जाते है। कोई पेड़ उगने में इतना समय भी लग सकता है, यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ।

उत्तिस (एल्डर) के पेड़ जो एक या दो साल में ही 15 फ़ुट की ऊँचाई तक बढ़ जाते हैं। फोटो: दीपक पछाई

हमारी गोरीघाटी, जो पश्चिमी हिमालय में तिब्बत व नेपाल बार्डर के पास स्थित है, में अगल-अगल गांव बसे हैं। उन्ही में से है क्वीरी एक ऐसा गांव जहाँ कहा जाता है कि सबसे पुराना थुनैर का पेड़ मज़बूती से अभी भी खड़ा है। अनुमान लगाया जाता है कि यह लगभग 2000 साल से भी पुराना है। थामरीकुण्ड, जो मुनस्यारी बाजार के ऊपर हुमधुरा पहाड़ के दक्षिणी ढाल पर स्थित एक तालाब है, के जंगलों में कई थुनैर के पेड़ हैं जिनमें से एक पेड़ है, जो लगभग 1000 साल पुराना है। थुनैर के पेड़ केवल हमारे जैसे हिमालय के ठण्डे इलाको में पाये जाते हैं। परन्तु आज के समय में थुनैर के पेड़ की संख्या हमारे यहाँ भी बहुत कम हो गई है।

थामरी कुण्ड में थुनैर का एक पुराना पेड़। फोटो: ईशा शाह

इसका क्या कारण हो सकता है? आज के समय में समाज में कैंसर जैसी बीमारी बढ़ती जा रही है, और उसके ईलाज में उपयोग होने वाली प्राकृतिक दवाइयों की मांग तेजी से बढ़ रही है। मैं अचानक दवाईयो की बातें क्यों करने लगा? क्योंकि दवइयों के बनने की प्रक्रिया में थुनैर जैसे पेड़ो की दास्तां जटिल रूप से जुड़ी हुई है।

मैं आपको आज से करीब 2 साल पहले की बात बताता हूँ जब मुझे एक फोन आया।

“किसी मित्र को अर्जंट 3 किलो के करीब थुनैर के पेड़ की पत्तियां चाहिए,” मुनस्यारी में स्थित सरमोली गांव की रहने वाली एक परिचित ने मुझसे मदद मांगते हुए कहा।

पर किस लिए चाहिए, यह मुझे नही पता था, और मैने सुना भी गलत था। उन्होंने मुझे पत्ति बोला और मैने उसके खाल का पाउडर सोचा क्योंकि उसकी एक प्रकार की पारम्परिक चाय या ज्यां बनाई जाती है। पत्ति किस लिए काम आती है, यह मुझे नही पता था।

तो मैंने क्या किया- अपने गांव क्वीरी, जो मुनस्यारी से लगभग 30 किलो.मी. दूर है, वहां अपने रिश्तेदारों को फोन किया

मैंने बोला, “मुझे 3 किलो थुनैर के खाल का पाउडर चाहिए”।

गांव में मुझे इतना तो मिल ही नही रहा था क्योंकि ये इतनी मात्रा में किसी के पास था ही नहीं। फिर मैने परिचित के वापिस संदेश भेजा कि थुनैर का पाउडर तो इतना मिल नही रहा है।

मुनस्यारी से करीब 30 किलोमीटर दूर क्विरी गांव। फोटो: दीपक पछाई

“अब क्या करे?”

तब उन्होंने बताया कि उसका पाउडर नहीं बल्कि पत्तियों की बात हो रही थी। हल्द्वानी के एक व्यक्ति को इसकी जरूरत थी, क्योंकि उन्हें मुंह का कैसर था। तब मुझे पता चला की थुनैर के पेड़ की पत्तियों का कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी के उपचार में प्रयोग होता है। अगर किसी व्यक्ति को मुंह का या कोई अन्य प्रकार का कैंसर हो जाता है, तो इसकी पत्तियां उस समय दवाई का काम करती है। इसकी पत्तियों में टैक्सोल का मुख्य स्रोत पाया गया है, जो शक्तिशाली कैंसर रोधी दवा में उपयोग होता है, जिसमें छाती व अंडकोष के कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोकने की एक अनूठी शक्ति या उपचार है।

तब जाकर मुझे पूरी बात समझ आई। उसके अगले ही दिन, मैंने अपने साथियों राजू दा और जग्गू दा से बात की। वे नयाबस्ती और सरमोली गांव के रहने वाले हैं और साथ में मजदूरी करते हैं। हमने उनसे थुनैर की पत्तियाँ ला देने को कहा और वे सरमोली गांव से 3 किमी ऊपर, खलिया ट़ॉप के दक्षिणी ढलान पर स्थित दयोंहलार, जहां वन विभाग का आरक्षित जंगल है, से करीब 3 किलो पत्तियाँ ढूंढकर लाए। फिर हमने वे पत्तियाँ हल्द्वानी में कैंसर पीड़ित व्यक्ति के लिए भिजवा दीं।

दयोंहलार, सरमोली गांव से 3 किमी ऊपर वन विभाग का जंगल। फोटो: दीपक पछाई

इस साल 2024 के सितम्बर माह में मै थामरीकुण्ड के जंगल में गया था। मैंने वहां देखा कि थुनैर के पुराने पेड़ ही दिख रहे थे पर कोई भी बालवृक्ष नजर नहीं आ रहा था। साथ हीथुनैर के कुछ ही पेडो में फल लगे थे। मै समझ नहीं पाया क्यों, पर मै सोच रहा था कि उसका स्वाद कैसा होता होगा? पर मैंने उन फालों को खाया नहीं क्योंकि क्या पता वह विषैला हो।आज तक मैंने सबके मुंह से सुना था कि कुछ भी लाल रंग का अगर जंगली चीज हो, तो उसे खाना नहीं चाहिए, जब तक आपको उनके बारे में पता नहीं हो। जब हम लोगों ने उसके फलो को देखा तो वे हरी पत्तियों के बीच लाल-लाल रंग के दिख रहे थे। इसके जो फूल है वह मार्च-मई से शुरू हो सितम्बर-अक्टूबर तक दिखते हैं। 

थुनैर के पेड़ मे लगा लाल-हरा फल। फोटो: दीपक पछाई

थुनैर की पत्तियां तो बहुत उपयोगी है ही, पर साथ में इसकी खाल के पाउडर का भी इस्तेमाल किया जाता है। मेरे घर में पहले बहुत ज्यां बनता था, जो एक प्रकार की नमकीन चाय है। इसे अक्सर उच्च पहाड़ी क्षेत्र के गांवों में बनाया जाता है क्योंकि यहाँ बहुत समय पहले चाय पत्ति का प्रचलन नहीं था और अलग-अगल वन संसाधनोंके इस्तेमाल से चाय बनाई जाती थी। मेरे बूबू यानी दादाजी, जो एक भेड़ पालक थे, जब तक जीवित थे, इसी की चाय पीते और पसंद करते थे। एक तो यह शरीर को गर्म रखता है और दूसरा- यह स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा होता है। जब मैं छोटा था तो मेरी दादी यही चाय बनाती थीं और इसमें सत्तू और चीनी डालकर, हमें खिलाती थी। सत्तू को बनाने के लिए पहले गेहूं को पकाते हैं, फिर उसे सूखा कर भूनते हैं और उसके बाद उसे पीसते हैं। यह स्वाद में भी बहुत अच्छा होता है। मैंने देखा था कि ज्यां बनाते समय, पानी में थोड़ा सा दूध, घी, नमक और थुनैर के खाल का बना हुआ पाउडर डाल कर चाय की तरह पकाते है। पर मुझे उस समय पता नही था की ये पाउडर कहां से आता है और कैसे बनता है।

थुनैर के खाल की नमकीन चाय। फोटो: दीपक पछाई

मुझे इस पेड़ के बारे में सबसे पहले तब पता चला जब मैं 8वीं कक्षा में था। मेरी बुआ अपने गांव तोमिक (मुनस्यारी के पास गोरी घाटी का एक गाँव) से हमारे लिए थुनैर के पेड़ से उसके खाल को निकाल कर लेकर आई थी। मम्मी ने उसे धूप में सूखाया था ताकि अच्छे से सूखने पर उसे पीसा जा सके। मैंने सोचा यह तो बस लकड़ी की खाल है, तो मैंने उसे आग जलाने के लिए इस्तेमाल कर लिया।

मम्मी चिल्लाकर बोली, “डीके, तुने ये क्या किया हाँ? आँख नहीं देखता है तू हाँ?! जो तुम लोग घर में बैठ कर नमकीन चाय! नमकीन चाय! बोलते रहते हो, वह इसी से बनता।”

उस समय इतना तो पता चल गया था कि ये पेड़ की खाल से बनता है, पर दिमाग में तो एक बात फिर भी थी, कि ये पेड़ कैसा दिखता होगा और कहाँ मिलता होगा?

The bark of the Thunair tree. Photo: Deepak Pacchai
थुनैर के पेड़ में उसकी खाल (परत)। फोटो: दीपक पछाई

फिर मैं करीब 2015 में पहली बार अपने भाई लोगों के साथ थामरी कुण्ड घूमने गया था। रास्ते में अचानक वे लोग पेड़ों में चढ़कर उसकी खाल को निकालने लगे।

तो मैंने उनसे पूछा, “ये क्या कर रहे हो? ऐसा करने से तो पेड़ को नुकसान नहीं हो जाएगा?”

उन लोगों ने कहा कि हम लोग पेड़ थोड़ी काट रहे हैं, बस बाहर से उसका परत ही तो निकाल रहे हैं, जिससे उस पेड़ को बिल्कुल नुकसान नहीं होगा।

मैंने पूछा, “क्यों निकाल रहे हो फिर?”

तब उन्होंने मुझे बताया की ये ल्वैंटा है। तब जाकर मुझे पता चला कि ये थुनैर या ल्वैंटा का पेड़ है, जिसे मुझे बहुत समय से देखने की जिज्ञासा थी, और किस्मत से मुझे आगे चलते-चलते, रास्तों में बहुत पेड़ दिख गए। मैंने देखा कि सारे पेड़ों की बाहरी परत को बहुत पहले ही निकाल लिया गया था और दोबारा परत बनने में काफी समय लगता है। मैं तो खुश था कि मैंने थुनैर का पेड़ देख लिया, पर मेरे भाई लोग थोड़ा नाराज़ थे क्योंकि उन्हें ज्यादा परत (खाल) नहीं मिला।

पुराना थुनैर का पेड़ जिसकी परत (खाल) पहले से ही निकाल ली गई है। फोटो: दीपक पछाई

मेरी दादी कहती थीं, “जब हमने 1991 में सरमोली में अपना घर बनाया, तब हमारी छत सालिम घास (क्रायसोपोगॉन ग्रायलस) की थी। लेकिन इसकी छत को मजबूती देने के लिए हमने थुनैर की लकड़ी का इस्तेमाल किया था, इसे हम मर्तोली थॉर से लाए थे, जो कि काफी दूर था।”

उस समय लोग इस मजबूत लकड़ी का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर करते थे क्योंकि यह लकड़ी कीड़ों से सुरक्षित रहती है। साथ ही, यह जल्दी खराब नहीं होती और बहुत टिकाऊ भी होती है।

लेकिन हमारे घर बनाने के कुछ साल बाद ही अचानक उसे आग लग गई। आग की लपटें तेजी से फैल रही थी, और हम सब घबरा गए। जब तक हम समझ पाते, हमारे घर की छत की सारी थुनैर की लकड़ियाँ जल चुकी थीं। लेकिन अजीब बात थी कि थुनैर की खिड़कियाँ और दरवाजे सुरक्षित रह गए, जो आज भी अच्छी हालत में उपस्थित है।

मेरी दादी यह भी बताते है की पहले तो थुनैर की लकड़ी पर बहुत अच्छी नक्काशी बनाया करते थे पर आज के समय में वो सब लगभग खत्म हो गया है।

थुनैर के लकड़ी का खिड़की दरवाजे बनाए गए और उसमे किए गए नक्काशी कार्य। फोटो: दीपक पछाई

दो साल पहले, 2022 में मैं मुनस्यारी से ऊपर लगभग 12 किमी दूर खलियां (3500 मीटर) के एक अल्पाइन घास का मैदान की ओर जा रहा था, तो रासते में मैंने दयोंहलार के जंगल में बहुत सारे सूखे और गिरे पेड़ो को देखा जो जले हुए थे। उसमें ज्यादा से ज्यादा पेड़ थुनैर के थे। मैं समझ नहीं पाया कि इसका कारण क्या था। मैने मेरे एक साथी सुरेश, जो शिल्पकार समाज के लोहार उपजाति से है, से इसके बारे में पूछा। उसका परिवार पीढ़ियों से लोहे का काम करते आ रहे हैं। वे कुल्हाड़ी, हथौड़ा और अन्य लोहे की वस्तुएँ बनाते हैं, जिनके निर्माण के लिए भट्टी में तीव्र और निरंतर आग की आवश्यकता होती है। इस आग को बनाए रखने के लिए कोयले की ज़रूरत होती है। सुरेश ने मुझे बताया कि थुनैर के पेड़ का कोयला इस काम के लिए सबसे उपयुक्त है, क्योंकि यह कोयला लंबे समय तक जलता रहता है और स्थायी रूप से उच्च तापमान प्रदान करता है। थुनैर के पेड़ इसी लिए जालए होंगे।

कोयले के लिए आग लगा हुआ थुनैर का पेड़। फोटो: दीपक पछाई

मैंने पूछा, “तुझे ये सब कैसे पता, तू तो ये काम नहीं करता है”?

उसने बताया कि वह बचपन मे अपने पिता के साथ नामिक गांव (जो पूर्वी राम गंगा घाटी में स्थित है) के वन पंचायत के जंगलों में जाता था, जहां विशाल थुनैर के पेड़ पाए जाते थे। वे सूखे और गिरे हुए पेड़ों को खोजते, फिर उन्हें आग लगाकर पूरी रात जलने के लिए छोड़ देते थे ताकि लकड़ी पूरी तरह से जल पाए। अगले दिन, वे वापस जाकर आग को पानी से बुझाते और बने हुए बड़े-बड़े अंगारों को इकट्ठा करते। इसके बाद, उन अंगारों को थैलियों में भरकर घर लाते और लोहारी के काम के लिए भट्टी में इस्तेमाल करते थे। कभी-कभी वे इस कोयले को अन्य लोगों को भी बेचते थे। आमतौर पर उस समय इस कोयले को कट्टे के हिसाब से 300 रुपये में बेचा जाता था, क्योंकि वजन के हिसाब से बेचने पर उन्हें उतना फायदा नहीं होता था।

थुनैर के पेड़ की पत्तियां। फोटो: दीपक पछाई

आज के दिन मैं और मेरे टीम समुदाय संरक्षित क्षेत्र (Community Conserved Areas) के पोर्टल के लिए अलग-अलग वन पंचायतों का केस स्टडी बनाने का काम कर रहे हैं। इस अंतराष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल पर उत्तराखण्ड के वन पंचायतों और उनपर निर्भर गांव समुदाय और उनकी संस्कृति, इन सभी के बारे में जानकारी और इतिहास का दस्तावेजीकरण कर एक साथ संग्रहीत है, ताकि विश्व के अन्ट समुदाय संरक्षित क्षेत्रों के साथ हमारे बारे में भी पढ़ा जाए और लोगों को इसके बारे में ज्ञान हो। इस दौरान मैंने विभिन्न गांवों जैसे गोरी घाटी में स्थित मटेना और क्वीरी के वन पंचायतों के प्रस्ताव रजिस्टर व अन्य दस्तावेजों का अध्ययन करने का मौका मिला व उनका इतिहास पढ़ा।

जिन क्षेत्रों के जंगलों में थुनैर के पेड़ पाए जाते हैं, वहां सन् 2005 के बाद से इन पेड़ों को काटने या उनकी खाल निकालने पर प्रतिबंध लगाया गया है, क्योंकि लोगों द्वारा इन्हें भारी नुकसान पहुंचाया गया था। इन पेड़ों को संरक्षित रखने और उनकी संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से गांव वालों ने पंचायती स्तर पर इन्हें काटने पर रोक लगा दी है।

देश में सिर्फ उत्तराखण्ड में वन पंचायतों की अपने सामुदायक जंगलों के संरक्षण व संवर्धन की कायम व्यवस्था है बाकि कही नही है। इस काम को करने के लिए वन पंचायत के पंच और सरपंच का लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव कराया जाता है और  चुनी गई पंचमंडली फिर बैठक कर अपनी परिस्थिति व जरूरतों के आधार पर उपनियम बनाते है, क्योंकि नियम तो पहले से बने ही होते है। इसी के तहत थुनैर की खाल व उसकी लकड़ी पर प्रतिबंध का उपनियम बनाया गया था, ताकि इसका संरक्षण हो सके। बहुत लोग सोचते हैं कि गांव के लोग जंगलो को केवल नुकसान पहुंचाते हैं, पर असल में गांव के ही लोग है जो जंगलो का रख-रखाव करते है क्योंकि हमारी जीवन शैली व आजीविका इस पर निर्भर। 

एक बार जब मेरे साथी प्रवीण के साथ मोर पंख का पौधा लेने बलाती स्थित नर्सरी में गए। बलाती मुनस्यारी से करीब 8 कि.मी. ऊपर की तरफ एक जंगल का क्षेत्र है जो हरकोट वन पंचायत के अन्दर आता है। वहां पर वन विभाग द्वारा तैयार किए घे थुनैर के 10 साल के पेड़ों को देखकर एक बार तो मैं स्तब्ध रह गया, क्योंकि वह बहुत बड़ी संख्या में थे।

वन विभाग का बलाती में थुनैर नर्सरी। फोटो: दीपक पछाई

वहां काम करने वाले सबसे बड़े अधिकारी से मैंने बात की।

उन्होंने मुझे बताया, “हमने सन् 2014-15 में यहां थुनैर के पौधे लगाए थे, जो आज 10 साल के पेड़ बन गए हैं। साथ ही इसका नर्सरी भी है, जहां से हम इन्हें ₹50 में बेचते हैं, क्योंकि अक्सर लोगों को मुफ्त में मिली चीजों की कद्र नहीं होती है।”

इस कारण इन पेड़ों का संरक्षण भी हो जाता है और लोग इन्हें अच्छे से लगाते और देखभाल भी करते हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि हरकोट गांव के लोगों ने पेड़ों के संरक्षण के लिए अपना सामुदायक वन भूमि यानि वन पंचायत का कुछ भाग वन विभाग को दिया है जो काफी बड़ी बात है। आज के समय में जहां लोग एक छोटे से जमीन के लिए एक दूसरे को मार डालते है, एक दूसरे से बात तक नहीं करते है, वही हरकोट के लोग जिनकी आजीविका ही जंगलो से जुड़ी हुई है, उन लोगों ने अपने जंगल का एक भाग पेड़-पोधों के संरक्षण के लिए दिया हुआ है।

वन विभाग के नर्सरी मैं पातल थोड़ मैं पाले गए थुनैर के पौधे । फोटो: दीपक पछाई

थुनैर के पेड़ों के संरक्षण एक और उधारण मुनस्यारी से 11 किलोमीटर दूर एक गांव है, चौना जहां 2016 में ग्राणीण महिलाएं ने अपने वन पंचायत में काफी मात्रा में थुनैर के पेड़ उगे हुए हैं। पर्यावरण दिवस, 5 जून 2016 को महिलाओं ने खुशी के मारे उन सभी छोटे पौधों की पूजा अर्चना की। उन पेड़ों को भाई मानकर, उन्होनें उन पर रक्षा की डोर बांधी और उनकी सुरक्षा का संकल्प लिया। इसके लिए चौना के महिलाओं ने फैसला लिया की वे बारी-बारी प्रतिदिन जंगल की पहरेदारी करेंगी।

मुझे लगता है कि हमे प्राकृतिक चीजों का ज्यादा दोहन नहीं करना चाहिए क्योंकि कुछ प्राकृतिक संसाधन है जो हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और अपनी खुबियों के लिए हमारे इलाके की शान माने जाते हैं। अगर हम इनका ज्यादा दोहन करेंगे, तो एक ऐसा समय आयेगा जब ये विलुप्त हो जाऐंगें।

फिर हम क्या करेंगे?

Meet the storyteller

Deepak Pachhai
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Born into the Barpatia schedule tribe community, Deepak is currently pursuing his undergraduate studies in Munsiari, with no desire to live anywhere other than his village Sarmoli, with the snowcapped Panchachuli visible from his bedroom window. He enjoys  a deep connection with nature and is training to become a bird guide so he can carve a name for himself. He loves nothing better than to wander these mountain landscapes, other than maybe football. His status photo is CR7 and Christiano Ronaldo is his hero.

बारपटिया अनुसूचित जनजाति समुदाय में जन्मे दीपक वर्तमान में मुनस्यारी में अपनी स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अपने गांव सर्मोली के अलावा कहीं और रहने की कोई इच्छा नहीं रखते, जहां उनके बेडरूम की खिड़की से बर्फ से ढकी पंचाचूली दिखाई देती है। उन्हें प्रकृति से गहरा लगाव है और वह बर्ड गाइड बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहे हैं ताकि वे अपना नाम कमा सकें। उन्हें इन पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने से ज्यादा कुछ पसंद नहीं, सिवाय फुटबॉल के। उनके स्टेटस फोटो में सीआर7 है और क्रिस्टियानो रोनाल्डो उनके हीरो हैं।

 

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Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

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