तिब्बत तक की आखरी यात्रा – चंदर राम की दास्तान
लगभग साठ साल पहले, एक छोटे लड़के के रूप में, चंदर राम अपने गांव से हिमालय के ऊँचे दर्रों को पार कर भारत और तिब्बत के बीच एक जमाने के व्यस्त व्यापार मार्ग पर लंबीऔर कठिन यात्राएँ किया करते थे। 1962 में जब भारत-चीन युद्ध छिड़ा, तो चंदर राम ने खुद को दुश्मन की सीमा के पीछे पाया। चंदर राम उन यात्राओं की यादों का जीवंत विवरण करबताते हैं कि कैसे वे चीनी सैनिकों से बचकर अपने घोड़ों और खच्चरों को सुरक्षित भारत वापस लाए। यह कहानी आपको एक बीते हुए समय और दुनिया में ले जाती है, और यह बताती है कि युद्ध ने हिमालयी सीमा पर रहने वाले लोगों की
ज़िंदगी और आजीविका को कैसे बदल डाला।
कहानीकार- बीना नित्वाल, फ़ेलो हिमल प्रकृति
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड
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मैंने सुना था कि चंदर राम, जो सरमोली गाँव के निवासी हैं, ने अपने बचपन में एक लंबे ऐतिहासिक सफर को देखा था- भारत के हिमालय से तिब्बत तक की यात्रा! हिमालय एक विशाल पर्वत श्रृंखला है, जो पूर्व से पश्चिम लगभग 2500 किलोमीटर तक फैली हुई है, जो भारत को तिब्बत से अलग करती हैं। इन पहाड़ों को पार करने का केवल एक ही रास्ता है, वह भी ऐसे ऊंचे दर्रों से होकर, जो समुद्र तल से 18 से 20 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। आज, ट्रेकर्स और पर्वतारोहियों के लिए यह दर्रे रोमांच का साधन हैं, लेकिन कई साल पहले ये कठिन व्यापार मार्ग का एक छोटा हिस्सा थे- जिसे मेरे जोहार घाटी के लोग व्यापार के लिए पार किया करते थे!
जोहार घाटी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के उच्च हिमालय के पहाड़ों में एक इलाका है जो तिब्बत से लगा हुआ है। भारत और तिब्बत के बीच काफी सदियों तक व्यापारिक संबंध रहे हैं, जिसमें भारत से खाने का सामान, कपड़े आदि तिब्बत ले जाया करते थे और तिब्बत से नमक, हुन्नी ऊन, सुहाग, हुन्नी भेड़, छिरपी (याक का दूध से बना सूखा पदार्थ) जैसे सामान व्यापार कर भारत में लाया करते थे। चंदर राम भारत से घोड़ों और खच्चरों पर सामान लादकर व्यापारियों के साथ तिब्बत की यात्रा करते थे।
मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी उम्र में चंदर राम ने घोड़ों और खच्चरों के साथ ऊंचे पहाड़ व दर्रोंरो पार कर कैसे यात्रा की और व्यापार किया होगा। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय चंदर राम तिब्बत में ही थे। मुझे यह जानने की जिज्ञासा थी कि युद्ध के दौरान कैसे वे वापस अपने घर पहुंचे, और अपने साथ भेड़-बकरियों और घोड़ों को भी सुरक्षित घर लाए।
यह कहानी जानने के लिए मैंने चंदर राम के घर जाकर उनसे मिलने का निर्णय लिया।
मिलिए चंदर राम से, जो अब 76 साल के हैं।
चंदर राम जी का घर सरमोली गाँव में है, जो मुनस्यारी कस्बे के बगल में है और गोरी घाटी में बर्फ़ से ढके पंचाचूली श्रृंखला के ठीक सामने के पहाड़ पर स्थित है। वह शिल्पकार (दलित) या कारीगर समुदाय से हैं। बरसात का मौसम था, लेकिन उस दिन थोड़ी धूप निकली थी। उनके घर के पास एक रौली (झरना) बह रही थी, जिसकी गड़गड़ाती आवाज सुनाई दे रही थी। चंदर राम अपने घर के आंगन में बैठे थे।
मैंने उनसे पूछा, “तिब्बत व्यापार के बारे में तो सुना था। मुझे गांव के लोगों ने बताया कि आप भी उस समय तिब्बत जाया करते थे। कैसा होता था व्यापार, आप मुझे अपनी कहानी सुनाएंगे?”
उन्होंने खुशी से हां कहा और वैसे ही शुरू हुई उनके तिब्बत व्यापार की कहानी।
पुरानी यादें
चंदर राम ने कहा, “जब मैं पहली बार तिब्बत व्यापार के लिए गया, तब मेरी उम्र 12 साल थी। अब मैं 76 साल का हो गया हूँ।”
चंदर राम ने बताया, “उस समय मेरे पिताजी मुनस्यारी के पास के गांव साई में रहते थे। इस गांव में लगभग 90 बिष्ट परिवार के साथ पंडित लोग भी रहते थे, जो सामान्य जाति के थे और खेती करते थे। साई में लगभग 80 भोटिया परिवार रहते थे, जिन्हें शौका कहा जाता है, और वे गांव के सेठ थे। टोलिया भी उन्ही शौका परिवार में से थे। मेरे पिताजी उन सभी साई में रहने वाले बिष्ट परिवारों के लोहार हुआ करते थे। वे खेत में काम करने वाले औजार जैसे कुदाल, फावड़ा, दातुली, बरियास (कुल्हाड़ी) आदि बनाते थे, और उन पर धार भी लगाते थे।
इस काम के लिए उनको पैसे नहीं मिलते थे, बस खाने के लिए एक समय का एक (एक तरह की माप इकाई) चावल देते थे जो वे घर आके सबके बीच बाटते थे। उस समय ऐसे ही लें-देन हुआ करती थी। बाकी राशन खेती के समय में मिलता था। हर मई-जून के महीनों में जब गेहूं तैयार होता था तो वे एक सूपे में तीन बार गेहूं भरकर देते थे और अक्टूबर- नवम्बर में जब धान तैयार हो जाता था तो उसमें भी एक सुपे में तीन बार भरकर देते थे। सालभर के उगाये अनाज को वे जब अपने आँगन में सुखाते थे तो उसे खौल बोलते थे। सेवाओं के बदले में यह अनाज या सब्ज़ी हर परिवार को दिया जाता था। जैसे ही हमारे घर पर खाना आता था तो हम बहुत खुश होते थे कि हम आज पेट भरकर खाना खायेगें।”
सांई गांव, सरमोली से लगभग 20 किलोमीटर दूर है, पर वहां हाल ही में मोटर रोड पहुँची है। मन ही मन मैं सोचने लगी कि ये तो वही सांई है जिसके बारे में अक्सर कहा जाता है, “जोल नी खैं सां, व्ल नी खैं कैं (यानि जो सांई के गांव में रहकर खा नहीं पाया, वो कहीं भी नहीं खा पाएगा)।” फिर भी ऐसे सम्पन्न गावं में दलित समुदाय अक्सर भूखे ही सो जाया करते थे।
“जिनके लिए हम काम करते थे, उन्हें हम लोग अपना गुसैं कहते थे। वैसे तो हमारे समाज में लोहे का काम करने वालों को लोहार कहा जाता था, रिंगाल के सामान बनाने वाले को बजेला, करबछ थैले के आधे हिस्से में चमड़ा लगाने वालों को चमार और मनोरंजन के लिए गाना गाने वालों को हुरकियां-हुरिक्यानी कहा जाता था। जब हम कोई काम करते थे, तो उसी काम से हमारी पहचान होती थी – जैसे घोड़े के साथ काम करने वालों को ड्याब, भेड़ के साथ काम करने वालों को अनवाल, और मकान बनाने वाले को ओर कहा जाता था। यह काम कोई भी शिल्पकार जाति का व्यक्ति कर सकता था।”
तिब्बत का बुलावा
“मैं बचपन से ही दुबला-पतला था और मेरा कद भी छोटा था। लेकिन मैं बहुत फुर्तीला था। बोलने में तेज और काम करने में भी तेज था। हमारे गांव के शौका हर साल तिब्बत में भेड़, बकरी, घोड़े और खच्चर के साथ व्यापार के लिए तिब्बत जाते थे। उनके साथ मेरे चाचा भी बकरियों के साथ अनवाल थे। अनवाल जंगलों में भेड़-बकरियों की देखभाल करते थे और वे हर छह महीने में भेड़ का ऊन निकालते थे। फिर साल भर जंगल में रहकर उनका पालन-पोषण करते थे।”
चंदर राम ने बताया कि साई गाँव में उनका छोटा सा घर पत्थर की दीवार और शालम की छत वाला था। उनके घर के आँगन में पात्थर लगाया हुआ था। एक दिन गाँव के बच्चे शाम को आँगन में खेल रहे थे।
उसी समय दयान टोलिया ने उन्हें कहा, ‘ऐ छौन (बच्चा), कब तक तू खेलेगा? खाना नहीं चाहिए तुझे? कल से मेरे घोड़े और खच्चरों के साथ काम पर आ। सामान तैयार करना है, साथ में इन घोड़ों और खच्चरों पर लादने के लिए अलग-अलग सामानों का बोझ बनाना है, और तिब्बत व्यापार के लिए जाने की तैयारी करनी है।’
दूसरे दिन वह घोड़े और खच्चरों के साथ जाने के लिए तैयार हो गए थे।
उनके पिताजी ने कहा, “घर के दो घोड़े भी साथ ले जाओ, क्योंकि इनमें भी सामान ले जाना है।”
तिब्बत की यात्रा की तैयारी
चंदर राम ने बताया कि वैसे तो इन घोड़ों और खच्चरों पर साल भर सामान ढोने का काम करते थे। मुनस्यारी के दूर-दूर के गाँव में लोग खेती करते थे तो व्यापारी उनसे अनाज लेकर तिब्बत पहुँचाते थे। साथ में तिब्बत के गाँवों से व्यापारी नमक वापस लाते थे और यहाँ गावों में बेचते थे।
“बस हमारा काम व्यापारियों के लिए सामान इधर से उधर और उधर से इधर लाने-लेजाने का था।
तिब्बत जाने की तैयारी में हम मुनस्यारी से 13 घोड़ों और खच्चरों के साथ 300 किलोमीटर पैदल चलकर हल्द्वानी पहुँचते थे। वहाँ से गर्म कपड़े, बनाद-बोदम (मोटे कपड़े), काल्प मिश्री, तास मिश्री (विषेश मिठाई), छुहारा, नारियल, ग्वास्ताब (खाने की चीज़) आदि सामान घोड़ों और खचरों पर लादकर हलद्वानी से वापस मुनस्यारी की ओर लौट पड़ते थे।”
“मई के महीने तक हम तिब्बत के रास्ते लग जाते थे और मल्ला जोहार (गोरी घाटी का उच्च हिमालयी क्षेत्र) में 4500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित टोला गांव पहुँच जाते थे। जून के महीने में मेरे चाचा लोग भी भेड़-बकरियों को करबछ (एक थैला जिसमें लगभग 8-10 किलो सामान जा सकता था) में लादकर तिब्बत के लिए तैयार हो जाते थे। ये सब तो सिर्फ़ तिब्बत जाने की तैयारी थी, तिब्बत का सफ़र तो अब शुरू होता था।”
जोहार की तरफ
“मेरे चाचा और हम लोग जून में शैका सेठों का सामान घोड़े, खच्चरों, और भेड़-बकरियों पर तथा हम अपने पीठ पर लादकर ले जाते थे। साथ में हम अपने खाने का सामान- सत्तू भी ले जाते थे, जो गेहूं और मडुवा से बनाया जाता था। यह सूखा और हल्का होता था जिसे पानी के साथ मिलाकर हम भूख लगने पर खाते थे,” चंदर राम ने समझाया।
“जब हम लोग जोहार से आगे बढ़े तो हमने तीन धुरा पार किए।”
धुरा के नाम याद न आने पर कुछ समय के लिए वे अपने खयालों में खो से गए और बड़ी सुरीली सीटी बजाने लगे।
फिर सोचते-सोचते, नाम याद करके वे बोले, “ऊंटा धूरा, जैंती धूरा और कुंगड़ी-बिंगड़ी!”
“हम जब वहाँ पहुँचे तो ऊँची-ऊँची चोटियाँ थीं और कोई पेड़-पौधे नहीं थे, बस छलचान (पत्थरीला और कंकरीला रास्ता) था। जब मैं अपने जानवरों के साथ चल रहा था तो मेरे आगे ठक-ठक करके घोड़े चल रहे थे| ऐसा लग रहा था कि मैं बेहोश होने वाला हूँ। आराम करने का कोई साधन भी नहीं था। ऐसा कहा जाता था कि आराम करने पर एक च्यागकौआ (उच्च हिमालय में पाए जाने वाला कौआ) आकर आँखें निकाल देता है। मैं इस डर से बिल्कुल रुका नहीं। चलते-चलते जमीन से हल्का धुआँ निकल रहा था, जिससे नशा जैसा महसूस हो रहा था। तब मुझे याद आया कि तभी तो लोग कहते हैं, बिना पेड़-पौधे की हवा में विष लगना ऐसा ही होता होगा।”
“मैंने मुँह पूरी तरह से गलाबंद (मफलर) से ढका हुआ था, बस थोड़ी सी आँखें खुली छोड़ी थीं ताकि रास्ता देख सकूँ। इस धुरा में तेज़ गति से चलना भी संभव नहीं था। हम धीरे-धीरे चलते रहे। चलते-चलते ठंडी हवा का तीव्र एहसास हो रहा था। हाथ की उंगलियाँ ठंडी हो रही थीं। इसी तरह तीन धुरा पार कर लिया।” रास्ते में हम लपथल नामक जगह पर एक रात रुके। अगले दिन फिर घोड़ों और खच्चरों के साथ आगे बढ़े।”
“जब हम लोग तिब्बत पहुँचे, वहाँ एक खुला मैदान था। धूप बिल्कुल सिर के करीब चमक रही थी और बहुत शीतल तेज हवा भी चल रही थी, जिससे शरीर कांप उठता था। अगर हम थूक भी रहे थे, तो वह मूँह से निकलते ही हवा में जम जा रहा था, और ठंड के कारण होंठ चीरकर फट रहे थे। इतनी बर्फ जैसी ठंडी यह जगह थी।”
“हमारे पहने हुए ऊन के कपड़े बहुत मोटे होते थे, और बोंखल और पैजामा भी काफी मोटा होता था। हमारे पास जूते-चप्पल नहीं हुआ करते थे, लेकिन हम लोग सेक पहनते थे जो पुराने फटे करबछ, फटे बोरों और बकरी की खाल से बनाए जाते थे। इस सेक को सुई से सिलकर घुटनों तक ऊँचे जूते के आकार में बनाकर पहनते थे। यह हवा और बर्फ से बचाता था, पाँव को गरम भी रखता था। हमारे गुसाई (व्यापारी) चमड़े के जूते पहनते थे जिसका नाम कॉर्तू था। पहनने के लिए बस एक ही जोड़ा कपड़ा होता था, जो पहन कर जाते थे और बदलने के लिए और कोई कपड़े नहीं होते थे। पर साथ में एकपंखी (बड़ी सी ऊनी शॉल) भी होती थी। पंखी बारिश, बर्फ और हवा के तूफान में बहुत काम आती थी।”
चंदर राम ने बताया कि जोहार से तिब्बत पहुँचने में 5-6 दिन लग जाते थे।
तिब्बत की बातें
“जब वहाँ तिब्बत के लोगों को देखा, तो उन्होंने काले, लंबे कोट जैसा पहना हुआ था। उनके घर जमीन को खोदकर बनाए गए थे, जैसे गुफा। वहाँ की मिट्टी लाल और चिकनी होती थी। वहाँ के लोगों को हुन्नी या लाम कहते थे।”
“हम लोगों को तिब्बत आने-जाने और वहाँ रहने में लगभग 40-45 दिन लग जाते थे। बहुत अधिक समय नहीं बैठना पड़ता क्योंकि अगस्त 15 के बाद पहाड़ों में मौसम बदलते ही बुर-बुर-बुर-बुर बर्फ गिरने लगती थी।”
“हमने अपने सेठ और खुद के लिए अलग-अलग टेंट लगाए, जिन्हें हम चितपा बुलाते थे। ये टेंट लख्खी बकरी के मोटे बाल से बनाए जाते थे, जिसमें पानी और हवा नहीं घुसती है और जो गर्म भी होते हैं। टेंट को लगाने के लिए चारों ओर लोहे के किल गाड़कर बाँधना पड़ता था। हवा इतनी तेज़ होती थी कि टेंट भी बहुत फरफराते रहते थे। इन टेंट के अंदर व्यापारी अपने काल्प मिश्री, तास मिश्री, छोहारा, नारियल, ग्वास्ताब आदि सामानों की दुकान लगाते थे।”
“हम लोग घोड़ों और खच्चरों को दूर मैदानों में चराने ले जाते थे। शाम को वापस आते समय खाना बनाने के लिए लकड़ी लाते थे, जो उन सूखे मैदानों में मुश्किल से मिलती थी। वहाँ एक झाड़ी जैसा पौधा होता था, जो जमीन पर फैला रहता था, जिसे लाकर जलाते थे। घोड़े, खच्चर, भेड और बकरियों के लिए हम पत्थरों का गोल घेरा बनाते थे, जिसे खोड़ कहते थे। रात में जानवरों को इसी खोड़ में रखा जाता था।”
भारत-चीन युद्ध
चंदर राम ने एक लंबी सांस भारी और फिर बताया कि तिब्बत में इसी तरह तीन वर्षों तक मई-जून में व्यापार के लिए वे जाते रहे। तीसरे वर्ष, जब वे 14 वर्ष के थे तो तब भी वे तिब्बत में व्यापारियों के घोड़ों और खच्चरों के साथ गए। वहां पहुंचने पर पता चला कि चीन और भारत के बीच लड़ाई शुरू हो गई है और चीन ने ज्ञानिम मंडी पर कब्जा कर लिया है। यह मंड़ी तिब्बत की सबसे सबसे बड़ी मंडी थी।
“जैसे ही हम तिब्बत के ज्ञानिमा मंडी पहुँचे, वहाँ के लोगों ने बताया कि चीन के सैनिक कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं। यह सुनकर मन बहुत डर गया। कुछ समय बाद, दूर छोटे-छोटे सफेद भेड़-बकरियाँ भिड़-भिड़-भिड़-भिड़ करती हुई झुंड में तेजी से भागते हुए नज़र आईं। हमें शक हो गया कि शायद चीनी सिपाही आ रहे हैं। सभी लोग सामान छोड़कर भागने लगे। लेकिन हम करीब छह लोग थे जो नहीं भागे। हमने देखा कि कुछ बड़े व्यापारी और तिब्बत के लोग चीनी सिपाहियों से बात कर रहे थे। चीनी सिपाहियों ने सामान लूट लिया और लोगों को डराने के लिए लाठी और चाबुक दिखाकर भगाने लगे”।
“मैंने देखा की उनके हाथ में जो चाप्क (चाबुक) थे वो चमड़े के थे और उसमें शुय्यूश (गोल लोहे की गेंदें) बंधी हुई थीं। मैं तो थर-थर काँपने लगा। मैं सबसे छोटा था। हमें बचाने के लिए हुन्नी लोगों ने दूर-दूर फैले हुए बुग्यालों से हमारे घोड़ों और खच्चरों को एक साथ कर सुरक्षित पहुँचाने में बहुत मदद की। लेकिन सामान तो सारा लूट लिया गया था। हम खाली हाथ छुपते-छुपाते रातों-रात वापस अपने बॉर्डर तक पहुँचे। वहाँ तक पहुँचने में भी हुन्नी लोगों ने काफी मदद की।”
“हम उनकी भाषा नहीं समझते थे, इसलिए इशारों में बात करते थे। लेकिन हमारे साथ के व्यापारी समझ लेते थे। बड़ी मुश्किलों से हम अपने देश और जोहार के गांव पहुंचे। वहां सबको खबर मिल गई थी कि चीनी सैनिकों ने भारतीय व्यापारियों को भगा दिया है। घर पहुंचने पर मेरी मां ने मुझे गले से लगाया, जिससे मेरा डर कुछ कम हुआ।”
जब व्यापार बंद हुआ
वापस आने के बाद, चंदर राम को चिंता हो रही थी कि अब वे अपना गुज़ारा कैसे करेंगे। इसी बीच, दयान सिंह टोलिया ने सभी जवान लोगों से सेना में भर्ती के लिए बात की। उन्होंने कहा कि व्यापार तो बंद हो गया हैं।
“हमारे गांव तिब्बत की सीमा के बहुत नजदीक है और जोहार के जितने भी गाँव थे, वहाँ आदेश आने लगे कि ‘गाँव खाली करो, आप लोग कैसे अपना गुज़ारा करेंगे?’ उस समय चीन के साथ युद्ध चल रहा था और सेना को जवान सिपाहियों की जरूरत थी। इसलिए सभी लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए बुलाया गया था। जो बड़े शौका सेठों के साथ नौकर की तरह काम कर रहे थे, वे लगभग सभी भर्ती के लिए चले गए।”
“वहीं दूसरी ओर आगे चलकर, 1967 में जोहार घाटी में रहने वाले इन शौका व्यापारी वर्ग को अनुसूचित जनजाति का आरक्षण मिला गया था।”
“मैं भी भर्ती के लिए गया, लेकिन मेरा कद कम होने के कारण मुझे वापस घर भेज दिया गया। फिर मुझे घोड़े और खच्चरों के साथ सीमा पर सामान ढोने के लिए भेज दिया। वहाँ मैंने देखा कि सैनिक कैसे जमीन खोदकर अपने छिपने के स्थान बना रहे थे और गोलियाँ चला रहे थे। लगभग छह महीने तक मैंने सीमा पर काम किया, जिसमें मैंने राइफल, बंदूक की गोलियाँ, बारूद, और खाने का राशन पहुँचाया। बीच में मुझे अपने माता-पिता की याद आने लगी तो मैं कुछ दिनों के लिए घर आया।”
हम धुप में बैठे चंदर राम की पुरानी यादों को बटोर रहे थे, तभी उनकी पत्नी हरुली देवी हमारे बीच आकर बैंठ गई।
हाफ़्ते हुए उन्होंने कहा, “अब उम्र हो गई है और वजन बढ़ने से अब मुझे चलते समय घुटनों में परेशानी हो रही है।” लंबी साँस लेते हुए चंदर राम के बग़ल वाली कुर्सी पर बैठ गयीं।
चंदर राम ने मुस्कराते हुए हरूली की तरफ देख कर याद किया, “जब मैं 14 साल का था, तब उसी बीच घरवालों ने मेरी शादी हरूली से जनवरी-फरवरी के महीने में करवा दी। और ये भी तब छोटी थी। मुझे आज भी याद है, शादी में इसने लंबा-पतला झुकॉल पहना हुआ था जो फ़्रॉक जैसा था। जैसे ही बारिश हुई, ये ठंड से कांपने लगी और किसी सयाने आदमी ने इस पर पंखी लपेट दी थी”।
शादी के बाद भी, लड़ाई खत्म होने तक चंदर राम ने सीमा पर ही काम किया।
आज का जीवन
“उसके बाद मैं मुनस्यारी के पास साईं में अपने घर रहने लगा और लोहार का काम करने लगा। लोहार के काम के बदले पैसा नहीं मिलता था, बस खाना दिया जाता था। घर के खर्चों के लिए सीजन में जड़ी-बूटी का काम करता था। इसी तरह, गाँव में रहकर मैंने अपने चार बच्चों को पढ़ाया-लिखाया।”
बात करते-करते चंदर राम अचानक चुप हो गए। ऐसा लगा कि वे कहीं अपनी यादों की दुनिया में खो से गए थे। शाम हो रही थी, मेरे मन में उनकी कहानी सुनकर कौतुहल और बढ़ गया था। पर चंदर राम गाल पर हाथ धरे, पांव को हिलाते हुए, गुमसुम से बैठे थे।
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उनसे पूछ डाला- “आपकी कहानी साईं गाँव से शुरू हुई तो आप फिर सरमोली कैसे आ बसे?”
जवाब देते हुए चंदर राम ने बताया कि कुछ साल पहले साईं गाँव बुरी तरह से उधड़ने लगा। हलांकि वहां खेती बहुत अच्छी होती थी, गाँव एक विशाल चट्टान पर बसा है। 1998 में भारी बारिश के कारण चट्टान खिसक गया, जिससे गाँव का बड़ा हिस्सा दब गया। यह घटना रात के समय हुई थी।
“जब हमें पता चला कि चट्टान खिसक रहा है तो हम लोग अपने घरों से जान बचाकर भागे। अगले दिन देखा कि कुछ घर दब गए थे। उसमें मेरा भी घर था। मन में बहुत बुरा लग रहा था, लेकिन अपने आप को समझाना पड़ा- घर तो चला गया, पर हमारे परिवार की जान तो सलामत बच गई। इसके बाद मैं सरमोली गाँव में आकर रहने लगा। यहाँ मैंने फिर से पत्थर और टिन से घर बनाया। इस घर के निर्माण के लिए सरकारी योजना के तहत थोड़ी मदद भी मिली थी।”
“अब समय बदल गया है, लोग खेती कम करते हैं। मैं लोहे के औजारों का ऑर्डर आने पर बनाता हूँ और सीजन में औजारों में धार देने का काम करता हूँ, जिसके बदले में आज उसका दाम लेता हूँ। अब मैं उम्रदार हो गया हूँ, फिर भी अपने खर्चे चलाने के लिए काम कर लेता हूँ ताकि मुझे किसी से मांगना न पड़े। जब तक मेरे हाथ-पैर चलेंगे, मैं काम करता रहूँगा और दूसरों पर बोझ बनकर नहीं रहूँगा”।
बारिश होनी शुरू हो गई थी और अंधेरा घिर रहा था। मैं यही सोचते हुए घर की ओर निकल पड़ी कि यह व्यक्ति इतिहास के गवाह हैं और अपने जीवन काल में कितने बदलाव झेल चुके हैं। इस उम्र में भी वे लोहार का काम करते हैं।
उनकी कहानी पूरी होने पर जो उन्होंने कहा, वो मेरे कानों में अभी भी गूंज रहा है।
“छिला दिगा!” उन्होंने कहा, उनकी आँखों में उनके तिब्बत व्यापार के दिनों की यादें झलक रही थी।
“अब कभी नहीं देख पाऊंगा इतनी सुंदर जगहें।”