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गढ़वाल की औरतों का बदलता श्रिंगार

लेखिका: सानिया महर

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सुबह के 6:00 बज रहे थे सूरज की पहली किरण मेरी खिड़की से मेरे बिस्तर में आई। मेरी आंख खुलते ही मैंने अपनी मां को देखा। वह शीशे में देखते हुए सज – सवर रही थी। होठों पे मुस्कान, आंखों में काजल, नाक व कान में बाली, मांग में सिंदूर, माथे पर लाल बिंदी, हाथ में चूड़ी, पैरों पर पायल, घने बाल और हरे रंग की साड़ी। मैं यह देख कर खुश हो गई और एक सवाल मन में उठा – पहले के लोग कैसे सजते थे?’

यह सवाल मेरे दिमाग में चलता रहा। मैं फ्रेश हुई, नाश्ता किया और मां के पास जाकर बैठ गई। जब मैंने अपना सवाल मां से पूछा तब वह व्यस्त थी और उन्हें बाजार भी जाना था। उन्होंने कहा “बेटा, मुझे इतनी तो जानकारी नहीं है पर थोड़ा बहुत बता सकती हूं। पहले की औरतें ज्यादा सजती-सवरती नहीं थी क्योंकि उनके पास समय ही नहीं होता था और अभी मेरे पास समय नहीं है। इस बारे में शाम को बात करते हैं”। मेरा मन उदास हो गया और जब मेरे भाई ने यह सब सुना तो वह हंसने लगा। दादी ने यह सब देखा और मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, “क्या पूछ रही थी आप अपनी मां से? मुझसे पूछ ले”।

जब मैंने दादी से इस बारे मैं पूछा तो उनके चेहरे पर छोटी सी मुस्कान दमक उठी और मुझसे बोली, “पहले हमको सजने के लिए इतनी चीजें नहीं थी लेकिन हम घर की चीजों का इस्तेमाल करते थे”। “दादी, ये कौन-कौन सी चीजें थीं?” मैंने जिज्ञासू मन से पूछा।

“बेटा, औरत की खूबसूरती बालों से होता है। हम बाल के लिए शैंपू की जगह  तिल के पत्तों का लेप लगाते थे और तिल से तेल, लड्डू ये सब भी बनाते थे। हम आंखों में काजल के जैसा ही कुछ और लगाते थे”। मैं सोचने लगी की ये काजल के जैसा क्या रहा होगा|

दादी ने नाम तो बताया नहीं लेकिन उसकी विधि बताना शुरू कर दिया।”हम जलता दीया लेते और दिये की बाती के ऊपर एक थाल  रखते। कुछ मिनटों बाद, थाल की उस जगह पर काले रंग का छाप पड जाता और उसे हम उसको अपनी आंखों में लगा लेते थे। और पता है, इस वाले काजल को अगर छोटे बच्चों की आंखों में लगाएँ तो उनकी आंखें बड़ी-बड़ी हो जाती है”। ये सुनते ही मैंने तुरंत दादी के सामने दिया और थाली रखा और वैसा ही किया। उस काजल को अपनी आंखों में लगाया। अपनी आँखों को सुंदर होता देख, मैं खुश हो गई। दादी दिन का खाना बनाने के लिए रसोई की ओर गई और मैं भी उनके पीछे-पीछे हो ली।

सोपनट (रेठा) का पेड़ जिसमें मेवे होते हैं जिनका उपयोग वाशिंग एजेंट के रूप में किया जाता था। फोटो: Sreejithk2000, Wikipedia Commons

“आज के जमाने में साफ-सफाई बहुत जरूरी होती है। उस समय हम साबुन के लिए भीमल के पेड़ की कलियों को इकट्ठा कर उसको पीस के लगाते थे। उससे हमारी त्वचा मुलायम रहती थी। सर्फ की जगह रेठा का इस्तेमाल कपड़े धोने में करते थे”। मैंने जैसे ही रेठा का नाम सुना मुझे याद आया। हम रेठा की गोली से खेलते थे, उसको रगड़ा और हाथ पर लगाया तब गर्मी का एहसास होता था।

गैंत की दाल में अभी दो सिटी ही आयी थी, इतने में पड़ोस वाली आशा की दादी घर आ पहुँची। “अरे आज सुबह से क्या कर रही थी?”।  “कुछ नहीं अपनी पोती के साथ गप लगा रही थी”। “क्या गप लग रही थी दादी-पोती के बीच (हंसते हुए )?”। “ ये मुझसे पूछने लगी की पहले के जमाने में औरतें कैसे सजती थीं?”। “फिर तो तूने हमारी चप्पल के बारे में भी बताया होगा कि हम दोनों कैसी चप्पल पहनते थे (हंसते हुए)”। “अरे वो तो मैं भूल ही गई”।

भीमल का वृक्ष। फोटो: सानिया मेहर

“चल मैं बताऊंगी।मैं भी तो उसकी दादी हूं न। बेटा इधर आना।” दादी ने मुझे बुलाया और कहा “तेरी दादी चप्पल के बारे में बताना भूल गई कि पहले की चप्पल कैसी होती थी। मैं बताती हूं।”

“हम जब जंगल जाते थे तो हम मालू के   पेड़  से  टाटी, जो मालू का फल होता है, को  तोड़ते थे। उसकी छिलके पर छेद करके भीमल के क्याडे से रस्सी को निकालकर टाटी पर लगाकर उसको पहनते थे।”

मालू का पेड़। फोटो: पवन मेहर

फिर दोनो दादी ने खाने पे अपनी जंगल की खूब सारी कहानियाँ सुनाई। मैं उत्सुकता में जंगल से मालू के पेड़ का फल और क्याडे लेकर श्याम की चाय बनाने के लिए पहुँच गयी। हमने चाय पे खूब बात करी और मैंने दादी के जमाने की चप्पल भी बनायी|  

दिन खतम होते दादी ने पूछा अब कैसा लग रहा है? मैंने कहा ऐसा लग रहा है जैसे सुबह से मेरे सिर पर सवालों का भंडार था अब सब जवाब मिल गए तो अब  हट गया। इतने में माँ भी घर आ गई थी। मां को देखकर ऐसा लग रहा था किसी प्यासे को मीठे पानी का समुद्र मिल गया हो! मम्मी बाजार से बहुत सारा सामान लाई जिसमें हमारे लिए सजने सवरने का भी सामान था मैं वह सब देख कर खुश हो गई | यह सब देखकर मेरे मन में एक विचार आया कि दादी-नानी के ज़माने में सजने की चीजे कैसी थीऔर मेरी उम्र क्या है।  उसके बाद मां रात का खाना बनाने लगी और दादी और मैं मस्ती करने लगे| मैं दादी के साथ ऐसे बात करने लगे जैसे कि वह मेरी दोस्त हो |

हमने साथ में मिलकर खाना खाया और जब हमे मुँह हाथ धोने धो कर सोने के लिए चले गए और दादी हमने और सारी कहानी सुनाने लगी और बाद में अपने बारे मे और चीजें बताने लगी  जिस्को सुनके हमें मजा आने लगा  मैं रात भर यह सोचती रही ,क्यों न हम भी पहले जमने की तरह मैं भी वैसे ही श्रिंगार करू |

 फिर सुबह होते ही माँ और दादी जी बातें कर रह थे की पहले का जमना अछा था अब कितनी मंगहि  हो  गयी फिर दादी जी ने अपनी विचार बताये की भले ही मंगहि हो गयी   पर अब की चीज में हमे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है अब ये सब चीजे के लिए आसान हो गया है फिर मेरे दिमाग में ख्याल आया की मुझे भी कोशिश करना चाहिए लेकिन भी मेरा मन कह रहा हो की अभी मेरा टाइम बच रहा की क्युकी उन् चिजे में टाइम लगेगा

बाद में मैंने नाश्ता किया और स्कूल जा कर अपने दोस्तों को बताया कि पहले के जमने के लोग किस तरह से चीजों को यूज़ करते है|

Meet the storyteller

Saniya Meher
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"Saniya hails from Balyakhana village in Uttrakhand, a grade 11 student who aspires to be independent in her life. She loves stories as it's inspiring and a great medium to spread message or a lesson. Presently she is a student- intern at Pathshala learning centre and loves how she is contributing in making high quality learning available for her region. She is a high spirited girl, who has abundant will of learning things. Saniya at such a young age understands that time and situations keeps changing and to keep up with such changes, she thinks it's important to keep trying and learning new things. She swears her life by saying "jo bhi ho, koshish karte raho kyunki koshish karne walo ki haar nahi hoti"- keep trying, as failure is a step towards success.
Saniya is planning to pursue Bachelor of Arts (BA) degree and set an example for all other children in her village."

Simple Education Foundation
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"Simple Education Foundation (SEF) is on a mission to reinvent India’s government education system by providing high-quality learning to all children to fulfill its vision of empowering children to build a better tomorrow. In Tehri Garhwal, Uttarakhand, SEF is executing a Rural Education Transformation Program through a community-led initiative to build ownership, and bring sustainable shifts in the learning, leadership and culture from within the community."

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