Artists from Kumaon
Culture,  Hindi,  Uttarakhand

कुमाऊं के शिल्पकार- विश्वकर्मा जयंती और जातिवाद

गढ़े कुम्हार, भरे संसार  की कहावत आज भी कुमाऊं के शिल्पकार लोगों की सामाजिक स्थिति बयान करती है। इस लेख में विश्वकर्मा पूजा के महत्व को बताने के साथ कहानीकार ने हमारे सामने सवाल रखा है कि आज भी हमारे समाज में जातीय भेदभाव क्यों चला आ रहा है।

कहानीकार: बीना वर्मा
ग्राम मल्ला घोरपट्टा, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड

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विश्वकर्मा पूजा के दिन मैं सुबह उठी, नहा-धोकर तैयार हुई और पूजा अर्चना किया। त्यौहार का दिन था तो खीर और पूरियां बनाकर अपने औजारों और सिलाई मशीन की पूजा करके सब को प्रसाद बांटा। यह त्यौहार हर साल 17 सितंबर को विशेष रुप से भारत और नेपाल के शिल्पकारों, कारीगरों, इंजीनियरों और औधोगिक श्रमिकों के बीच अत्यधिक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व रखता है। मुनस्यारी के दलित समाज से शिल्पकार लोग अनुसुचित जाति में आते हैं। और यह दिन मेरे लिए भी ख़ास मैयना रखता है।

अपने काम के औजारों की पूजा करते हुए

मैं मुनस्यारी के एक लोहार परिवार से हूँ। मैंने अपने दादा जी को साई पोलू गांव में लोहार का काम करते हुए देखा है। दादा जी के बाद मेरे ताऊ जी और चाचा जी आज भी छोरीबगड़ गांव में लोहार का काम करते हैं। मेरे पापा मुनस्यारी के पोस्ट ऑफिस में पोस्टमैन या डाकिया की नौकरी करते थे- तब उन्होंने लोहार का काम नहीं किया। जब लोकडाउन लगा, तब मैंने भी सिलाई का काम सीखा। फिर जब माटी संगठन में काम करने लगी तो मैंने सिलाई से कमाना छोड़ दिया। 

लोहार अपने औजारों के साथ

मन में सवाल उठाते हैं- शिल्पकार  समाज जो हर कला से भरी हुई है- जैसे घर बनाना, निगांल (पहाड़ी बांस) का काम करना, सुनार, लौहार, लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई- जैसे ढोल-नंगारा बनाने से लेकर बजाने तक का कार्य करते है, क्यों फिर भी छोटी जात कहलाते हैं? दुनिया में यही काम करने वालों को कलाकार के रूप में सम्मानित हैं! 

मुनस्यारी में रिंगाल के वस्तुओं को बनाने वाला कलाकार

विश्वकर्मा जयंती एक महत्वपूर्ण हिन्दू त्यौहार है जो ब्रह्मांड के वास्तुकार और शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा के सम्मान में मनाया जाता है जिन्होंने ब्रह्मांड के सबसे जटिल और अद्भुत रचनाएं तैयार की हैं। माना जाता है कि वे एक दिव्य इंजीनियर थे और भगवान ने अपने पुत्र के रूप में उन्हें समाज को दिया। उन्होंने देवताओं के महलों की संरचना का कार्य किया- इसलिए उन्हें दुनिया का पहला इंजीनियर भी कहा जाता है। इंद्र देवता के स्वर्गीय महल और कृष्ण के द्वारका शहर सहित देवी-देवताओं के आवासों के निर्माण के लिए विश्वकर्मा को ही जाना जाता है।

विश्वकर्मा जयंती के दिन अपने आफ़र की पूजा करते कारीगर

इस उत्सव में कई रीति रिवाज और अनुष्ठान शामिल है। उस दिन श्रमिक अपने औजारों, मशीनरी, वाहनों और कार्यस्थलों को साफ करते है और लोहा के बर्तन, मशीन, गाड़ी की पूजा करते है। पर इस दिन लोहा के बर्तनों से जुड़े हुए कुछ भी औजारों से काम नहीं किया जाता है। भक्त लोग रंगीन सजावट, रंगोली डिजाइन और फूलों से कार्यशालाओं और कारखानों को सजाते हैं। मुनस्यारी में बिहार से आए भवन निर्माण कारीगरों का विश्वकर्मा जयंती मनाने का अपना तरीका है। पूजा के दो दिन बाद वे विश्वकर्मा की मूर्तियों का एक जुलूस में संगीत और नृत्य के साथ, एक जीवंत वातावरण बनाते हुए विसर्जन के लिए मदकोट के गोरी नदी में करने जाते हैं। उसके बाद विश्वकर्मा को प्रणाम कर अपने लिए सुख समृद्धि की कामना करते हैं। 

आज के दिन शिल्पकारों  के जीवन में कई बदलाव तो आए हैं, पर मुझे अपनी दादी की कहानियां याद हैं। हमारे पूर्वजों के जमाने में उच्च हिमालय में स्थित जोहार के 13 गाँव में रहने वाले भोटिया या शौका (अनुसुचित जनजाति) एंव उनको शिल्पकार  की आप बीती कहानियां मैंने सुनी हैं। जोहार के शिल्पकारशौका  व्यापरियों के गुलाम हुआ करते थे। 

मेरी दादी श्रीमति आनन्दी देवी, निवासी साई पोलू

दादी अपने गुलामी के दिनों को याद कर रोती है और कहती है-

“हमने वो दिन देखे हैं जब दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती थी।”

दादी  बताती है कि रोज सुबह उठना, फिर अपने गुसाई (मालिक) के यहाँ जाना, झाडू-पोछा कर सफाई करना, रात के झुठे बर्तन साफ करने के बाद ही नाश्ता मिला करता था। फिर कपड़े धोने जाते थे और वहाँ से आने के बाद ही खाना मिलता था। कुछ अपने लिए और कुछ घर के लिए अपने साथ वापिस ले जाते थे क्योंकि घर पर छोटे बच्चे भूखे इंतजार करते थे कि माँ आयेगी, खाना लायेगी। दिन के बर्तन धोने के बाद गाय के लिेए घास काटने जाना होता था। “जब शाम को घास लेकर आती, तभी चाय मिलती थी। इतने में रात हो जाती थी फिर बच्चे इंतजार करते थे, रात का खाना भी वहीं से मिलता था, जिस से परिवार का पेट सही से नहीं भरता था। कभी तो भूखे-पेट भी सोना पड़ता था।” 

तिब्बत में अपने याकों के साथ शौखा व्यापारी

वही पुरुष भी अपने गुसाई का काम करते थे। वे घोड़े, भेड़-बकरियों के साथ जाते थे, तब उनको भी खाना मिलता था। 

जब सन 1962 में भारत-चीन की लड़ाई लगने से तिब्बत व्यापार बन्द हुआ, तब शिल्पकारों की भूखे मरने की स्थिति आयी। तिब्बत जाने वाले कारवं बन्द हो गए और उसके बाद जमीनदारी उन्मूलन कानून भी लागू हो गया, जिससे शौखा व्यापारियों का काम ठप हो गया। उन्हीं कुछ कारणों से शौखा समाज को 1967 में अनुसुचित जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ। तब शौकाओं  ने अपने यहां काम करने वाले शिल्पकारों को अलग रह खुद कमा कर खाने के लिए बोला और हमें छोटे जमीन के टुकड़े दिए।

तिब्बत में स्थित खार्दुंग गांव

उस दिन से शिल्पकार समाज धीरे-धीरे अपने परिवार के लिए कमाने लगा। शिल्पकार समाज के लोग पढ़ने लगे। मैंने 12वीं तक पढ़ाई की है और मेरे पिताजी ने 10वीं पास की थी। समय बदलता गया और समाज में सुधार होता गया। आज सब अपने अधिकार की बात करते हैं। भारत के सविंधान में मिले अधिकारों को जानने लगे- फिर आज समाज में परिवर्तन आया। गांव-घर में अब शिल्पकार समाज के लोग पंचायती राज इकाइयों में आरक्षण के तहत जन प्रतिनिधि बन कर आ रहें हैं। मैंने देखा है कि जब मुनस्यारी में अनुसुचित जाति की महिला विधायक आई थीं, तो हमारे समाज के साथ भेदभाव करने वाले लोग भी उनके सामने झुक कर नमस्ते कर रहे थे! 

आज हम भारत गणतंत्र के स्वतंत्र नागरिक हैं, खुद कमा कर अपने बच्चों को पाल सकते है, फिर भी जातिवाद है। हम लोगों को मन्दिरों में प्रवेश करने से मना है। शादी ब्याह में बुलाकर हमें औरों जैसे सम्मान नहीं दिया जाता है। जब हमारा शिल्पकार समाज में शादी होती है तो पंडित नहीं आता है- लड़की या लड़का का मामा शादी कराते है। शिल्पकार समाज के व्यक्ति प्रतिष्ठित पदों पर होते हुए भी उन्हें बराबर का सम्मान नहीं दिया जाता है। एक ग्राम पंचायत के जन प्रतिनिधियों ने बताया कि उनके साथ कई बार सौतेला व्यवहार किया जाता है और जन सभाओं व बैठकों में नहीं बुलाया जाता। ऐसा भी हुआ है कि जिला स्तरीय जन प्रतिनिधि ने सिर्फ हम शिल्पकार महिलाओं को नाच-गाने के कार्यक्रम करने के लिए बुलाया, जिससे हमें शर्मिदगी महसूस हुई- प्रतीत हुआ जैसे वो हमें आज भी दास समझते है। 

श्री नैन राम, जैंती गांव के निवासी जो मुनस्यारी के प्रख्यात रिंगल कारीगर हैं

जातियां व्यवस्था क्यों आज भी चल रही है, कई बार यह समझ नहीं आता। 

बस सब इसी में लगे रहते हैं- 

“मैं बड़ा तू छोटा, तू नीचं मैं ऊचं।”

किसी ने सोचा है कि ये ऊचं नीचं किसने बनया है? या फिर हम सिर्फ विशेष समुदायों और अपने-अपने समाज की शान व शक्ति की बढ़ी हुई भावना को बनाये रखने के लिए इस जातिवाद में उलझ कर रह गए हैं?हम बात करते है कि समाज क्या कहेगा और क्या सोचेगा- अरे आप और हम से ही तो समाज बनता है। क्या आपकी जाति और ऊँच-नीच मानवता से ऊपर है? 21वी सदी में जातिवाद एक अभिशाप ही है जो हमारे समाज और देश के विकास को अवरोधित कर रहा है।

जातिवाद एक बहुत बुरा ऐहसास है ।

Meet the storyteller

Beena Verma
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Beena Verma spent her childhood in Sai Polu village, and after her marriage she has experienced city-life in places like Ahmedabad and Haldwani. Her easy-going nature and bright smile belies a steely determination to stand up for what she believes is just and right. She enjoys making videos and posting them on social media. She is an active member of Maati, an autonomous women collective based in Munsiari.

बीना वर्मा का बचपन मुनस्यारी के साई पोलू गांव में बीता और शादी के बाद उन्होंने अहमदाबाद और हलद्वानी जैसी जगहों पर शहरी जीवन का अनुभव लिया। उज्ज्वल मुस्कान और सहज स्वभाव के साथ-साथ, बीना अन्याय के खिलाफ खड़े होने की दृढ़ता रखती है। उसे वीडियो बनाना और उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करना अच्छा लगता है। वह पिछले एक साल से मुनस्यारी स्थित माटी संगठन की सक्रिय सदस्य रही हैं।

Maati Sangathan
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Maati Sangathan is an autonomous women's organization which has been actively working on issues faced by mountain communities in their everyday lives in Uttarakhand for the last three decades. These include issues like stiving for a life free from violence, food sovereignty, livelihood security and local people's rights over the water, forests and land of the Himalaya.

माटी संगठन एक स्वायत महिला संगठन है जो उत्तराखण्ड के पहाड़ी जीवन के रोज़मर्रा जन मुद्दों पर पिछले ढाई दश्कों से सक्रीय हैं। हिंसा-मुक्त जीवन, अन्न स्वराज, आजीविका सुरक्षा और हिमालय के जल, जंगल व ज़मीन पर स्थानीय जनता का अधिकार हो जैसे मुद्दों पर कार्यरत रही है।

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