Biodiversity,  Ecological Impact,  Livelihoods,  Written (Hindi)

कीड़ा जड़ी – एक वरदान या श्राप?

उत्तराखंड की दूरस्थ हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं में, कीड़ा जड़ी  या यार्सा गुम्बू  नामक एक दुर्लभ और बहुमूल्य कीड़ा-कवक लोगों को दुर्गम पहाड़ीरास्तों पर चुनौतीपूर्ण यात्राओं की ओर खींचता आया है। यह कहानी आपको जोहार के उच्च हिमालय के बुग्यालों में ले जाएगी, जहाँ लोग अनेक खतरों का सामना कर कीड़ा जड़ी  इकट्ठा करते हैं और फिर उसका क्या करते हैं। इसका व्यापार, जो कभी नई समृद्धि का प्रतीक हुआ करता था, अब भाग्यऔर दुर्भाग्य की एक जटिल कहानी बन चुकी है। बाजार में इसकी बढ़ती मांग ने कीड़ा जड़ी का अत्यधिक दोहन को जन्म दिया है, जिससे इस बहुमूल्यखजाने का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। लेकिन इसके प्रभाव यहीं समाप्त नहीं होते।

एक तरफ इस कीड़ा-कवक का भविष्य अधर में लटका है, तो दूसरी और यह सवाल खड़ा होता है कि क्या कीड़ाजड़ी  का वरदान अब अभिशाप मेंबदल रहा है?

कहानीकार- दीपक पछाई
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़ उत्तराखंड

Read this story in English

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित गोरी घाटी के कई गांव 1-2 महीने के लिए खाली हो जाते हैं। पंचाचुली पर्वत श्रृंखला के जड़ में बसे गोरी घाटी के इन गावों में ऐसा लगता है मानो गांव सुनसान और वीरान हो गए हों। घरों के दरवाजे और खिड़कियां बंद रहती हैं, और गलियों में बहुत कम हलचल होती है, मानो समय रुक गया हो। इन गांवों के रास्तों पर सिर्फ हवाओं की आवाज़ सुनाई देती है, जो एक अजीब सन्नाटा बुनती है।

पर रुकिए – मैं उत्तराखण्ड के बहुचर्चित ‘भूतिया गांव’, जिनकी असली कहानी अक्सर अधूरी बयान की जाती है, की बात नहीं कर रहा हूँ। इस सन्नाटे और खालीपन का एक ख़ास कारण है, और वो है कीड़ा जड़ी (यानि कॉर्डिसेपस सायनेंसिस)।

कीड़ा जड़ी  का जमीन के ऊपर दिखने वाला हिस्सा| फोटो: लविशा दरियाल

आज से करीब 17 साल पहले, जब में 4-5 साल का था, तब मेरे पापा मल्ला जोहार  के गांवों से भेड़-बकरी लेकर हमारे घर, सरमोली, आते थे। गोरी घाटी के ऊपरी हिस्से के बुग्याली  क्षेत्र (ऐल्पाइन एरिया) और वहां बसे 13 गांव को मल्ला जोहार  कहते है। मुनस्यारी के आस पास बसे गांव के लोग गर्मी के महीनों में अपने पालतू पशुओं को चराने के लिए व खेती करने मल्ला जोहार  के इन उच्च हिमालय गांव में 6 माह के लिए पलायन करते है। उन्होंने मेरे पिता को बताया कि लोग कीड़ा जड़ी  को ढूँढ़ने के लिए भी जोहार आते है। 

मैं सोचता था कि मैं भी बड़े होकर कीड़ा जड़ी  की खोज करने जोहार जाऊंगा और अधिक मात्रा में इसे लेकर आऊंगा जिससे मैं बहुत पैसे कमा कर अमीर बनूंगा। उन पैसों से मैं उत्तराखण्ड और उससे भी बाहर घुमने जाउंगा और अलग-अलग प्रकार के खाने खाऊंगा। मेरे दिमाग में बचपन से यह बात बैठ गई थी।

वैसे तो कीड़ा जड़ी  को चीन में यरसा गोम्बू  के नाम से जाना जाता है। और अंग्रजी में कैटपीलर फंगस  कहा जाता है। मैं तो तब चौंक गया जब मुझे पता चला की कीड़ा जड़ी  का एक हिस्सा एक प्रकार का मशरुम है। मैंने सोचा कि इसके बारे में और समझना चाहिए, तो पता चला कि ये तो दो जीव से मिलकर बना होता है जिसमें कीड़ा जड़ी  का उपर का भाग एक मशरुम (फंगस) है और नीचे का भाग एक कीड़ा (कैटपीलर) है। पर असल में रोचक बात तो यह है कि जो ये फंगस है वह कीड़े में प्रवेश कर उसमें जीता है। यह फंगस दूसरे जीवों को इस्तेमाल कर, उनसे पोशन लेकर उन्हें मार देता हैं। ऐसों को परजीवी मशरुम (Parasitic Fungus) कहते है जिसकी अत्यन्त रोचक प्रजाति कॉर्डिसेप्स  कहलाती है। कॉर्डिसेप्स  एक प्रकार का मशरुम का जीनस है। 

कीड़ा जड़ी  को साफ कर बेचने के लिए तैयार | फोटो: ई. थिओफिलस

आज से करीब 6-7 साल पहले की बात है। हमारे ईलाके में दो गांव बूई और पातों के बीच लड़ाई हो गई थी, वो भी कीड़ा जड़ी  को लेकर। एक गांव के कुछ लोग दूसरे गांव वालों के क्षेत्र में कीड़ा जड़ी  को चोरी-छिपे खोजने चले गये थे, तो वहां के गांव वालों ने उनको पकड़ के बहुत मारा था। जिस कारण दोनों गांव के बीच लड़ाई हो गई और यह बात बढ़कर थाने तक पहुँच गई थी।

होता ऐसे है कि हर किसी को अपने वन पंचायतों में जाना होता है जहां उनका हक हो, वहां बाहर के अन्य लोगों का आना व कीड़ा जड़ी  खोजना मना होता है। वन पंचायत एक सामुदायिक वन होता है जिसकी देख रेख उस गांव के हकदार लोग करते है। वन पंचायत  पुरे भारत में सिर्फ उत्तराखण्ड राज्य के 11 पर्वतीय जिले में ही है। बहुत बार ऐसा हुआ है कि अगर अन्य जगह के लोग किसी और के जंगलों में लकड़ी, घास-चारा या अन्य प्राकृतिक संसाधन चोरी करने जाते हैं तो वहां उनके साथ मार-पीट तक हो जाती है। जब कीड़ा जड़ी  जैसी कीमती चीज का दोहन करने किसी अन्य के क्षेत्र में लोग जाते हैं तो सुना है कि जान से मारने तक की धमकी दी जाती है। 

व्यापारियों द्वारा बहुत मात्रा में खरीदा हुआ कीड़ा जड़ी | फोटो: कैनवा स्टॉक चित्र

मैं जैसे-जैसे बड़ा हुआ तो मुझे पता चला की मल्ला जोहार  में अलग-अलग गांव के जो भी वन पंचायत  हैं, उनमें अगर आपका हक होगा तो वही लोग अपने वन पंचायत  क्षेत्र में पड़ने वाले उच्च हिमालयी बुग्यालों  में कीड़ा जड़ी  ढूँढेंगे। असल में ये सिर्फ़ जोहार में नही बल्कि उत्तरी भारत के हिमालयी क्षेत्रों के और भी जगहों के बुग्यालों में मिलता है। मेरे गांव का सरमोली-जैंती वन पंचायत  का जंगल  करीब 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है पर यहां कीड़ा जड़ी  नहीं मिलता है क्योंकि यह करीब 4000 मीटर से ऊपर ऊंचाई या उसके आस पास वाले स्थानों में ही पाया जाता है, और हमारा जंगल उस से तो करीब 1800 मीटर नीचे है। असल में अप्रैल के महीने से जैसे-जैसे इन उच्च बुग्यालों  में बर्फ़ पिधलती है, तो धीरे-धीरे जगह छोड़ती जाती है, वहीं पर लोग ठंड को झेलते हुए कीड़ा जड़ी  की ढूँढ में निकल पड़ते हैं।

कीड़ा जड़ी  को खोजे जाने वाले स्थान | फोटो: मुन्ना नित्वाल

ऐसे ही कुछ गर्मियों पहले, हमारे गांव सरमोली से सीताराम सिंह सुमत्याल और उसके कुछ साथी अपने उच्च हिमालय के माइग्रेश गांव टोला के वन पंचायत  में कीड़ा जड़ी  ढूँढने के बाद छिपकर ब्रिज गांग धार के पास स्थित रालम के वन पंचायत क्षेत्र में इसे खोजने, या यह कहो चोरी करने गये। सीताराम सिंह का कहना था कि टोला के वन पंचायत क्षेत्र में कीड़ा जड़ी  कम पाया जाता है तो उनको ये कदम उठाना पड़ता है। वे बताते है कि एक बार रालम  के लोगों को पता चला कि हम लोग उनके वन पंचायत क्षेत्र में गए हैं तो उन लोगों ने हमें पकड़ के पीटा और खोजे हुए कीड़ा जड़ी  को छीन ले गए।

“पर किस्मत उच्छी थी जो हमें जान से नहीं मारा और हम लोग बच कर वापस आ गये,” सांस थामते हुए सीताराम ने बताया।

कीड़ा जड़ी  को खोजने के लिए लोग अप्रैल महीने के अन्तिम सप्ताह से जाना शुरु करते है, और करीब 2 महीने के बाद जून के अन्तिम सप्ताह मेंअपने वन पंचायत  के उन उच्च इलाकों से वापस घर लौटते हैं। कुछ लोग तो निराश होके इससे भी पहले घर आ जाते है क्योंकि उनको कम मात्रा में कीड़ा जड़ी  मिलती है।जैसे कि मैने पहले बताया, इन महीनो में हमारे गोरी घाटी के बहुत से गांव खाली हो जाते है, क्योंकि कीड़ा जड़ी  लोगों की आजीविका का एक बड़ा साधन बन चुका है।

कीड़ा जड़ी  का ऊपर का भाग जो हाथ से पकडा हुआ है | फोटो: गोविंद सिंह

वैसे तो कीड़ा जड़ी  को खोजने जाना कोई आसान काम नहीं है। दसवीं का पेपर देने के बाद मेरी छुट्टी लग गई थीं। हमारे घर मेरे मामा, जो गोरी पार के तोमिक गांव में निवास करते है, आये थे। 

मैंने उत्साहित होकर मामा को बोला, “आप लोगों को तो कीड़ा जड़ी  खोजने में मजा आता होगा। इस बार मझे भी ले जाओ कीड़ा जड़ी को खोजने।”

मामा ने हंस के बोला- “तू नहीं कर पायेगा!” 

मुझे उनकी यह बात सुनकर बहुत बुरा लगा।

पर फिर उन्होंने मुझे बताया, “जिस हिमालय के क्षेत्र में हम लोग जाते है वहां के रास्ते बहुत ही खराब है। बड़े-बड़े चट्टानों को पार करके जाना पड़ता है। अगर गलती से भी पैर फिसल गया तो सीधे सैंकड़ों फुट नीचे गिर जाओंगे और बच भी नहीं पाओंगे। रही बात, कोई लेने तक नी आ पायेगा क्योंकि वहां बहुत गहरी खाईयां है।” 

कीड़ा जड़ी  के लिए जंगल की ओर जाते हुए लोग | फोटो: मुन्ना नित्वाल

उन्होंने बताया कि रुल्ला  ग्लेशियर के पास उनके क्षेत्र, गलकखॉप (ग्लेशियरकेमुंह ) में जाने का एक ही रास्ता है। इसी कारण इन बुग्यालों  तक जाने के लिए रात के 2 बजे ही निकल जाना पड़ता है ताकि जल्दी पहुंच सकें। फिर भी 2 दिन के करीब तो लग ही जाता है। खाने-पीने के सामान कोपहले ही पीठ पर लाद कर पहुंचाया जाता है क्योंकि उन ऊँचाइयों पर एक साथ ज्यादा सामान ले पाना बहुत मुश्किल है। जंगल में 2 महीने करीब रहपाना कठिनाइयों से भरा है क्योंकि ना वहां लाईट होता है ना अन्य सुविधाएं। पीने के पानी का स्रोत तक 1-2 किलोमीटर दूर होता है। चूल्हे जलानेके लिए लकड़ियों को ढूँढने भी काफी दूर जाना पड़ता है क्योंकि बुग्यालों  में ऊंचाई वाली जगहों में पेड़ कम ही होते है। रहने के लिए टैंन्ट लगानापड़ता है और हवा तो बहुत ही तेज चलती हैं।

जंगलों में कीड़ा जड़ी  के लिए टेंन्ट लगा के रह रहे लोग | फोटो: आनंद सिंह

इन ऊँचाइयों पर अचानक से कभी भी बारिश का बर्फ-बारी में बदल जाना आम बात है। मौसम लगातार बदलता रहता है और कोहरा ही कोहरा हो जाता है जिससे आस-पास भी नहीं दिखता है। खाना सुबह खाते हैं फिर सीधे शाम को खाते है क्योंकि दिन भर कीड़ा जड़ी  खोजना होता है। बुग्यालों  में कीड़ा जड़ी  को खोजने के बाद सीज़न के अंत में वापस गांव-घर आते समय अगर कुछ भी राशन-पानी बच जाता है तो उसे अच्छे से बन्द करके गड्डों में डालते है ताकि आने वाले साल में काम आ सके। 


बुग्यालों में महीनों तक कोई नहाता तक नहीं है। नहाना तो छोड़ो, अपना मुंह तक कभी-कभी ही धोते है। एक तो तीखी ठण्ड होती है और नहाने से बीमार पड़ने का खतरा है। वहां ना कोई अस्पताल है और ना ही कोई दवाई।”


ये सब सुनकर मैं सहम गया और सोचने लगा कि लोग क्यों कीड़ा जड़ी  से कमाने के लिए अपनी जान तक को दाव पर लगा देतें है।  


कीड़ा जड़ी  की खोज झुक-झुक के करनी पड़ती है क्योंकि इसका जो हिस्सा ज़मीन के ऊपर दिखता है, वो एक माचिस की तिल्ली के बराबर होता है। इसका बाकी का भाग जो कीड़ा का धड़ है, जमीन के नीचे से खोद कर बाहर सावधानी से निकालना होता है तांकि वह टूट न जाए। जहां-जहां बर्फ पिघलकर ऊपर को खिसकती है, उन्ही जगहों में खोजना पड़ता है क्योंकि बर्फ से ढके होने के कारण यह आसानी से नहीं दिखता है। 

महिलाएं व पुरुष साथ में कीड़ा जड़ी  को खोजते हुए | फोटो: लविशा दरियाल व्लॉग

बहुत से क्षेत्रों में औरतों को कीड़ा जड़ी  खोजना मना है। लोगों का मानना है कि औरतों के उच्च बुग्याली  मैदानों में आने से वहां के देवता क्रोध्रित हो जाते है। औरतों को महावारी होती है और उस समय में औरतों को अशुद्ध माना जाता है। जब तक लड़कियों की महावारी शुरू नहीं हुई है, वे तब तक कीड़ा जड़ी  के दोहन के लिए जा सकते हैं। पर मैंने देखा है कि कई अन्य क्षेत्रों में आज के दिन औरतें कीड़ा जड़ी  खोजने जाती हैं और तब तो कोई भी देवता क्रोधित नहीं हुए है।

कीड़ा जड़ी  को खोजते हुए लोग | फोटो: लविशा दरियाल

मुझे बाद में समझ आया कि लोग इतना सारा कष्ट इस लिए करते हैं क्योंकि एक किलों कीड़ा जड़ी  का कीमत 10 से 15 लाख रुपये है जो कभी बढ़ता है तो कभी घटता है। पिछले वर्ष 2023 में इसका रेट 10 लाख रुपये था। क्योंकि इसका कोई फिक्स रेट नहीं होता है, इस काम में अनिश्चितता और बढ़ जाती है। सुना है कि कीड़ा जड़ी  खरीदने वाला एक ठेकेदार लगभग 15 से 20 किलो कीड़ा जड़ी  का माल खरीदता है। फिर अपने कुछ साथियों के साथ जंगलों और पहाड़ी रास्तों से नेपाल होते हुए चीन तक इसे पहुंचाता है। जिन रास्तों से ये लोग जाते है, उनके बारे में किसी को पता नहीं होता है क्योंकि अगर पकड़े गये तो जेल जाएंगे। उत्तराखण्ड में केलव वन पंचायत  क्षेत्रों से कीड़ा जड़ी  का दोहन वैध है। हर वन पंचायत  के हकदारों द्वारा एकत्रित माल पर वन विभाग में रॉयल्टी जमा करनी होती है। रॉयल्टी से बचने के लिए लोग बताते नहीं कि कितना माल वो जमा कर पाए हैं और अपने स्तर पर ठेकेदारों से सौदा कर लेतें है। कई कारण हैं जिनकी वजह से कीड़ा जड़ी  का व्यापार काला बाजार में चला गया है। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री का कहना है कि इसके लिए नई नीति बनाई जा रही है, जो शायद जल्द ही लागू हो जाऐंगे।  

जोहार क्षेत्र में बकरीयां | फोटो: मुन्ना नित्वाल

माना जाता है कि कीड़ा जड़ी  का सबसे ज्यादा मांग चीन से है क्योंकि इसका इस्तेमाल उनकी कई दवाईयों में किया जाता है, जैसे थकान, गुर्दे की बीमारी, और सबसे ज्यादा इसका इस्तेमाल एथलीट करते है। कीड़ा जड़ी  के बारे में पूरे विश्व में तब पता चला जब चीन ने लॉस एंजिल्स में हुए 1984 के ओल्मपिक्स खेल में बेहद अच्छा प्रर्दशन किया। उनसे जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने अपनी खेल प्रदर्शन में बढ़ोतरी के लिए कीड़ा जड़ी  के सेवन के बारे में बाहर की दुनिया को बताया। हमारे गांव घर में लोग इसका पाउडर बना के दुध में डालकर पीते है क्योंकि इसे पौष्टिक माना जाता है।


पर आज अन्तराष्ट्रीय बाजार में इसकी भारी डिमांड कामोतेजक व सेक्स क्षमता बढ़ाने के कारण मानी जाती है।


कीड़ा जड़ी  ने गोरी घाटी के बहुत से गांव के लोगों का जीवन बदल दिया है, खासकर जिन लोगों की आर्थिक स्थिति कमजोर थी और वे कीड़ा जड़ी  के दोहन करने के लिए रिस्क उठाने को तैयार थे। वे आज के समय में बहुत धनवान और मजबूत हो गये है। जिनके पास घर तक नही थे, आज उनके पास आलीशान घर और गाड़ियां है। यहां तक कि उन्होंने शहरों में जमीने खरीद ली है और उनकी जिन्दगी बदल गई है। 


मेरे साथ कुछ बच्चे पढ़ते थे जो कीड़ा जड़ी  को खोजने के लिए जाते थे। वे 1-2 महीने तक स्कूल नही आते थे, क्योंकि खुद उनके माता-पिता उनको कीड़ा जड़ी  खोजने ले जाते थे। मुझे बुरा लगता था- एक तो उनकी पढ़ाई छूट जाती थी और दूसरी बात- वे अपने कॉपियों को हमें देते थे व अपना काम करने के लिए बोलते थे। हमारा खुद का काम पूरा नहीं होता था पर मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि दोस्त तो अपने थे।

 
वेसै तो आज के समय में गोरी घाटी से बड़ी मात्रा में कीड़ा जड़ी  का संग्रहण किया जा रहा है। आने वाले समय में लोगों के लिए यह अच्छा नही है क्योंकि इसका हद से ज्यादा संग्रहण करने से प्रकृति में इनकी मात्रा में भी काफी कमी आयेगी। इसी वर्ष 2024 में मौसम की अनिश्चिता व परिवर्तन का असर पड़ा है। इस बार लोगों के जाने से पहले ही बहुत मात्रा में कीड़ा जड़ी  सूख गये थे क्योंकि बर्फ जल्दी पिघल गई थी जिस कारण इनकी मात्रा में कमी आई। हमारे सामने यह सवाल मंडराता है कि क्या आने वाले समय में ये विलुप्त हो जाएगा?

बर्फ वाले क्षेत्रों में कीड़ा जड़ी  खोजते हुए पुरुष | फोटो: लविशा दरियाल

जिला पिथौरागढ़ के धारचूला व मुनस्यारी क्षेत्र के कई लोगों का अब कहना है, “कीड़ा जड़ी  हमारे बच्चों के लिए एक श्राप बन गया है। अब वे क्या कर रहे हैं कि स्कूल, कॉलेज तक नहीं जा रहे हैं। पैसा कमा रहे हैं और सुबह से नशे में रह रहे हैं।”

इस कारण एक पीढ़ी अशिक्षित होती जा रही है और गलत काम में जा रहे है क्योंकि वे छोटी उम्र में ही पैसा कमाना सीख गये है। इसके कारण बहुतसे नौजवानों की जिन्दगी बरबाद हो रही है।

मैंने अपने क्षेत्र मुनस्यारी में बहुत से हम-उम्र नौजवानों से बात की है जिन्होंने पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी है- स्कूल भी और कॉलेज भी। उनको देख के ऐसा लगता है कि उनकी आंखों में सपनों की जगह एक अनिश्चितता छा गई है। उनके जीवन की दिशा अचानक से बदल गई हो, और वे अपने  भविष्य के बारे में नहीं सोच रहे हैं। मानों आने वाले समय में अगर कीड़ा जड़ी  विलुप्त हो जाए तो, जिनकी आजीविका इसपर पूरी तरह निर्भर है, उनका क्या होगा? इसलिए पढ़ाई कभी नही छोड़नी चाहिए। पढ़ाई करने से अलग-अलग रास्ते खुलते है। 

मुनस्यारी क्षेत्र |फोटो: दीपक पछाई

मुनस्यारी में रहने वाला मेरे पहचान के एक शक्स ने हाल में भारी मन से मुझे कहा, “मैंने 10 वीं से स्कूल छोड़ दिया था। आज के समय में पैसा तो में अच्छा कमाता हूँ, पर शिक्षा का बहुत महत्व है, और मुझे आज उसका अफसोस होता है कि अगर मैंने उस समय अपनी पढ़ाई पूरा की होती तो शायद मेरे लिए ही अच्छा होता। चिन्ता होती है कि कीड़ा जड़ी  की मात्रा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है।” 

कीड़ा जड़ी  जो कुछ दशक पहले तक उच्च हिमालय के ग्रामीण लोगों के लिए वरदान बनकर आया था—क्या अब वह एक श्राप सिद्ध हो रहा है?

Meet the storyteller

Deepak Pachhai
+ posts

Born into the Barpatia schedule tribe community, Deepak is currently pursuing his undergraduate studies in Munsiari, with no desire to live anywhere other than his village Sarmoli, with the snowcapped Panchachuli visible from his bedroom window. He enjoys  a deep connection with nature and is training to become a bird guide so he can carve a name for himself. He loves nothing better than to wander these mountain landscapes, other than maybe football. His status photo is CR7 and Christiano Ronaldo is his hero.

बारपटिया अनुसूचित जनजाति समुदाय में जन्मे दीपक वर्तमान में मुनस्यारी में अपनी स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अपने गांव सर्मोली के अलावा कहीं और रहने की कोई इच्छा नहीं रखते, जहां उनके बेडरूम की खिड़की से बर्फ से ढकी पंचाचूली दिखाई देती है। उन्हें प्रकृति से गहरा लगाव है और वह बर्ड गाइड बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहे हैं ताकि वे अपना नाम कमा सकें। उन्हें इन पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने से ज्यादा कुछ पसंद नहीं, सिवाय फुटबॉल के। उनके स्टेटस फोटो में सीआर7 है और क्रिस्टियानो रोनाल्डो उनके हीरो हैं।

 

Voices of Rural India
Website | + posts

Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *