Biodiversity,  Cultural Heritage,  Culture,  Hindi,  Uttarakhand,  Written (Hindi)

बिच्छू बूटी- डंक मारने और उपचार की शक्ति वाला एक अनोखा पौधा

जब ज्योति अपने गाँव सत्यावली में खेलते हुए गलती से बिच्छू बूटी (स्टिंगिंग नेटल) से छू जाती है, तो उसकी त्वचा में तेज़ जलन फैल जाती है। उसकी दादी तुरंत दूसरे पौधे से एक उपचार तैयार करती हैं, और इसी के साथ लेखिका एक गहरी सच्चाई सीखती है—जो चीज़ हानि पहुँचाती है, उसके कुछ अलग-अलग उपचार भी हो सकते हैं। अपने परिवार की नज़रों से, वह देखती है कि यह भयावह मानी जाने वाली जंगली बूटी भोजन, औषधि और यहाँ तक कि वस्त्रों का भी स्रोत रही है। हिमाचल प्रदेश के सत्यावली गाँव की पृष्ठभूमि में, जहाँ प्रकृति और परंपरा एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं, यह कहानी बताती है कि कैसे पीढ़ियों से चली आ रही ज्ञान की विरासत भय को समझ में बदल देती है।

कहानीकारभानु प्रिया
ग्राम सत्यवाली, जिला मंडी, हिमाचल प्रदेश

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“मां, मां, अईयो, मां!”— ज्योति जोर-जोर से रोते और चिल्ला रही थी।

उसकी कराहती आवाज सुनते ही दादी, मां, पापा और भाई घबराकर घर से बाहर भागे। हमारा घर हिमाचल प्रदेश के जिला मंडी के बाली चौकी में बसे खूबसूरत गांव सत्यावाली में है, जो पहाड़ की ढलान पर बसा हुआ है।

SatyawaLi
हिमाचल प्रदेश के जिला मंडी में बसा खूबसूरत गांव सत्यावाली। फ़ोटो: भानु प्रिया

ज्योति की दो चोटियाँ खुल गई थीं और उसके सफेद रिबन बालों के साथ बिखर चुके थे। स्कूल की वर्दी की सफ़ेद सलवार पूरी तरह मिट्टी और घास से खराब हो गई थी। उसका बसता एक किनारे लावारिस पड़ा था। ज्योति इधर-उधर चलते हुए चीख रही थी और अपने शरीर को मल रही थी। उसका पूरा शरीर लाल पड़ चुका था और चकत्तो से भर गया था।

दादी को समझने में देर नहीं लगी— ज्योति को बिच्छू बूटी ने काटा था।

बिच्छू बूटी को अंग्रेजी में स्टिंगिंग नेटल कहा जाता है। यह हिमालय के पहाड़ों में पाया जाने वाला एक कांटेदार पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम अर्टिगा डिओका (Urtica dioica) है और हमारी पहाड़ी (हिमाचली) या पश्चिमी पहाड़ी बोली में इसे कुक्षी या कुंगस कहा जाता है।

बिच्छू बूटी के उपचारात्मक गुण

दिखने में यह पौधा साधारण प्रतीत होता है, लेकिन इसकी संरचना जटिल और बहुत रोचक है। इसके पत्ते और तना बेहद बारीक, सुईनुमा बालों (ट्राइकोम्स ) से ढके होते हैं, जो अंदर से खोखले होते हैं, बिल्कुल इंजेक्शन की सुई की तरह! जब कोई इस पौधे को छूता है, तो इसके नुकीले ट्राइकोम्स त्वचा में चुभ जाते हैं और तुरंत टूटकर अपने अंदर मौजूद हिस्टामिन, एसिटाइलकोलाइन और सेरोटोनिन जैसे जैव-रासायन छोड़ देते हैं। सेरोटोनिन दर्द के संकेतों को तेज कर देता है और जलन को बढ़ा देता है, जिससे बिच्छू बूटी का डंक सिर्फ खुजली नहीं बल्कि तेज जलन और दर्द भी देता है। इसमें मौजूद ऑक्सैलिक एसिड त्वचा में चुभन बढ़ाता है और जलन को लंबे समय तक बनाए रखता है, जिसके कारण बिच्छू बूटी को छूने के बाद खुजली और जलन जल्दी शांत नहीं होती, बल्कि काफी समय तक परेशान कर सकती है। यह पौधे का एक विकसित सुरक्षा तंत्र है, जो उसे शाकाहारी जीवों द्वारा खाए जाने से बचाने में मदद करता है।

बिच्छू बूटी और उसके कांटेदार पत्ते। फोटो भानु प्रिया

ज्योति स्कूल जाते समय धड़ाम से बिच्छू बूटी के एक घने झुरमुट में गिर गई थी। पलक झपकते ही नुकीले बाल उसकी त्वचा में गहरे चुभ गए, मानो अनगिनत सुइयां एक साथ घोंप दी गई हों। तेज जलन और असहनीय दर्द ने उसे बुरी तरह तड़पा दिया। वह रो रही थी और बेबस होकर अपने शरीर को मल रही थी, लेकिन हर स्पर्श के साथ जलन और बढ़ती रही। हमारे गांव में बिच्छू बूटी के ऐसे झुरमुट बहुत जगह उगते है— खेतों और रास्तों के किनारे, आंगन के कोनों और उन स्थानों पर जहाँ जैविक कचरा या पशुओं का गोबर इकट्ठा किया जाता है, क्योंकि ऐसी मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है। यह विशेष रूप से नाइट्रोजन समृद्ध स्थानों को पसंद करती है, इसलिए इसे अक्सर गोबर और खाद के पास भी देखा जाता है। एक हल्का स्पर्श ही किसी को तड़पाने के लिए काफी होता है।

बिच्छू बूटी का झुरमूट जिसमें ज्योति गिर गई थी। फ़ोटो भानु प्रिया

बिच्छू बूटी के संपर्क में आने से ज्योति के शरीर पर लाल रंग के चकत्ते (रैशेज) बन गए थे, जिन्हें अर्टिकेरिया (Urticaria) या हाइव्स (Hives) कहा जाता है। यह एक एलर्जिक प्रतिक्रिया होती है, जिसमें हिस्टामिन और अन्य रसायन त्वचा में सूजन, खुजली और जलन उत्पन्न करते हैं। इसे आमतौर पर नेटल रैश (Nettle Rash) भी कहा जाता है, क्योंकि यह विशेष रूप से बिच्छू बूटी के डंक से होने वाली प्रतिक्रिया होती है। ये चकत्ते आमतौर पर कुछ घंटों या दिनों में अपने आप ठीक हो जाते हैं, लेकिन ठंडे पानी से धोने या एंटी-एलर्जिक क्रीम लगाने से राहत मिलती है। पर उस समय हमारे पास कोई एंटी-एलर्जिक क्रीम नहीं थी।

बिच्छु बूटी के काटने के बाद आने वाले रेशेज। फोटो भानु प्रिया

दादी उसे संभालने की कोशिश कर रही थीं, जबकि मां ने पास ही उगे कुछ भांग के पत्ते तोड़ लिए। भांग को अंग्रेजी में कैनाबिस कहा जाता है, और इसका वैज्ञानिक नाम कैनाबिस सैटिवा है। यह मुख्य रूप से एशिया, यूरोप और अमेरिका के कई हिस्सों में पाया जाता है। भारत में यह विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों— हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्यों में— प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। भांग का उपयोग औषधीय, औद्योगिक और कभी-कभी नशीले पदार्थ के रूप में भी किया जाता है। 

मां भांग के पत्तों को हथेलियों में मस रही थी। भांग को बिच्छू बूटी की जलन कम करने में प्रभावी माना जाता है, क्योंकि इसमें प्राकृतिक रूप से एंटी-इंफ्लेमेटरी (सूजन कम करने वाले) और शीतलन गुण होते हैं। जब इसे मसलकर बिच्छू बूटी के डंक वाली जगह पर लगाया जाता है, तो यह त्वचा को ठंडक पहुंचाता है और जलन, खुजली तथा सूजन को कम करने में मदद करता है। 

भांग के पत्तों के शीतलन गुण बिच्छू बूटी द्वारा छोड़े गए जलनकारी रसायनों— जैसे हिस्टामिन और सेरोटोनिन— के प्रभाव को बेअसर कर सकते हैं। हिमाचल और अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में यह पारंपरिक उपचार लंबे समय से अपनाया जा रहा है। बिना देर किए, मां ने उन मसले हुए पत्तों को  तुरंत ज्योति के शरीर पर मलना शुरू कर दिया।

भांग का पौधा। फोटों एलबर्ट ठाकुर

ज्योति की हालत जलन और खुजली से बेहद दयनीय हो गई थी— उसका पूरा शरीर  तड़प रहा था। भांग के पत्तों के साथ-साथ दादी ने ताजे कच्चे मक्खन को उन जगहों पर लगाया, जहां-जहां बिच्छू बूटी के कांटों ने डंक मारा था। धीरे-धीरे, भांग और ठंडे मक्खन के असर से ज्योति के जलन और दर्द में थोड़ी राहत मिलने लगी।

गाय का ताजा कच्चा मक्खन। फोटो रविना ठाकुर

ज्योति की बहन टीनु ने उस दिन, शाम को गांव में दादी से कान छिदवाए थे। दादी ने कांटे से उसके कानों में छेद किया, जिससे उसे काफी दर्द हो रहा था। टीनु की पीड़ा देखकर दादी ने अपनी छड़ी से बिच्छू बूटी का एक पत्ता तोड़ा और पत्थरों पर रगड़कर उसका रस निकाला। फिर उन्होंने वह रस टीनु के कान पर डाला, जहां छेद किया गया था।

बिच्छू बूटी का रस घाव या ज़ख्म पर लगाने से दर्द कम हो जाता है क्योंकि इसमें प्राकृतिक एंटी-इंफ्लेमेटरी (सूजन कम करने वाले) और एनाल्जेसिक (दर्द निवारक) गुण मौजूद होते हैं। इसमें पाए जाने वाले हिस्टामिन और एसिटाइलकोलाइन तंत्रिकाओं को उत्तेजित करने के बाद कम संवेदनशील बना देते हैं, जिससे दर्द महसूस होना कम हो जाता है। इसके पत्तों में विटामिन सी और लौह की उच्च मात्रा पाई जाती है, जो रक्त परिसंचरण को बढ़ाता है और शरीर की प्राकृतिक उपचार प्रक्रिया को तेज करता है। इसमें मौजूद सेरोटोनिन और अन्य यौगिक सूजन को कम करने में सहायक होते हैं, जिससे दर्द और जलन से राहत मिलती है। पारंपरिक रूप से इसे दर्द निवारक के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। यह कितनी विडम्बना की बात है कि वही पौधा बुरी तरह से डंक मारता है लेकिन साथ ही अन्य कारणों से होने वाले दर्द को ठीक भी कर देता है।

कान के जख्म में बिच्छू बूटी का रस। फोटो दिकेश्वर राणा

ठंडी और सुखद अनुभूति से टीनु को तुरंत आराम मिला।

उसने मुस्कुराते हुए कहा, ” दादी, यह कितनी शीतल और आरामदायक है! अब मेरा दर्द कम हो गया।”

उधर, पास ही खड़ी ज्योति बिच्छू बूटी के पौधों को उखाड़ने में लगी थी। उसे डर था कि कहीं कोई बच्चा उन पर गिर न जाए और जलन की तकलीफ न झेलनी पड़े। आंगन के एक कोने में हुक्का पीते बैठे दादा यह सब चुपचाप देख रहे थे।

अचानक उन्होंने ज्योति को रोकते हुए कहा, “बस कर रे, सब मत काट! इसके सहारे ही तो हम बड़े हुए हैं। कुछ तो रहने दे आंगन के पास! इसे देखकर मुझे मेरी मां की याद आती है। जब मैं छोटा था और शरारत करता, तो मां इसी बिच्छू बूटी से मुझे डराया करती थी।”

गांव में बिच्छू बूटी का एक अनोखा रिश्ता है— यह डराने के लिए भी काम आती है और दवा के रूप में भी। जब भी गांव का शरारती बच्चा राजू कोई काम नहीं करता या दूसरों को तंग करता है, तो उसकी मां उसे बिच्छू बूटी से मारने की धमकी देती है। जो बच्चे पढ़ाई से बचने की कोशिश करते है, उन्हें भी इसी बूटी से डराकर किताबों के सामने बिठा दिया जाता है।

ये किस्से सुनकर, मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आ गये, जब गांव के दादा परस राम जी हमें खेलते देख, हाथ में कुंगस लेकर पूरे गांव में दौड़ते। उन्होंने कभी किसी को मारा नहीं, लेकिन उनका डर इतना था कि हम दौड़ते-दौड़ते आखिर में अपनी बाउड़ी (रसोई) में छुपने को मजबूर हो जाते। यह सब मानो पकड़म-पकड़ाई के खेल जैसा था।

घर के आंगन में उगी बिच्छू बूटी को ज्योति एक मोटी छड़ी से अभी भी जोर-जोर से पीट रही थी। इसी तरह करते-करते उसने रास्ते की सारी बिच्छू बूटी साफ कर दी। लेकिन दादा की बातों से साफ था कि उनके लिए यह सिर्फ एक कांटेदार पौधा नहीं था— यह उनकी यादों और जीवन का हिस्सा था।

जमीन पर पड़ी बिच्छू बूटी मानो या कह रही हो –

“जब तक जरूरत थी,

यह दुनिया मुझसे मोहब्बत करती रही,

मैं कांटा हूँ,

मैं कांटा था,

मगर चुभने अब लगा हूँ।”

विभिन्न प्रकार की बिच्छू बूटी और उसके खाने में उपयोग

दुनिया में बिच्छू बूटी  की पाँच प्रमुख प्रजातियाँ विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती हैं और इनके उपयोग भी अलग-अलग होते हैं। कॉमन नेटल (Urtica dioica) सबसे अधिक पाई जाने वाली प्रजाति है, जिसका उपयोग सब्जी, चाय और औषधि के रूप में किया जाता है। ड्वार्फ नेटल (Urtica urens) आकार में छोटी होती है, लेकिन इसकी जलन अधिक तेज़ होती है और भारत में केवल सिक्किम और दार्जिलिंग में पाया जाता है। वुड नेटल (Laportea canadensis) आमतौर पर कनाडा के जंगलों में पाई जाती है, और इसके पत्तों का उपयोग खाद्य और औषधीय उद्देश्यों के लिए किया जाता है। हिमालयन नेटल (Girardinia diversifolia) विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है, और इसके रेशेदार तनों से पारंपरिक रूप से रस्सी और कपड़े बनाए जाते थे। फाल्स नेटल (Boehmeria cylindrica) बिच्छू बूटी के समान दिखने वाली प्रजाति है, लेकिन इसमें स्टिंगिंग हेयर नहीं होते, इसलिए यह मुख्य रूप से औषधीय और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाती है। हमारे गांव सत्यवाली में हिमालयन नेटल और कॉमन नेटल पाई जाती हैं। कॉमन नेटल ने ज्योति को अपना डंक मारा था।

कॉमन नेटल (Urtica dioica) और हिमालयन नेटल (Girardinia diversifolia) के बीच अंतर। फ़ोटो: Rawpixel

सत्यवाली गांव की 78 वर्षीय बुजुर्ग महिला हुमा देवी जी के अनुसार, “हमारे बचपन में मेरी दादी बिच्छू बूटी के बड़े-बड़े सूखे पौधों से रेशे निकालकर उनका उपयोग रस्सी बनाने में करती थीं।”

बिच्छू बूटी के रेशों से बनी रस्सी बेहद मजबूत होती थी।

उत्तराखंड के सरमोली गांव की निवासी बीना नित्वाल ने बताया, “हमारे गांव सरमोली में तीन प्रकार की बिच्छू बूटी पाई जाती है, जिसे हम स्यून बूटी के नाम से जानते हैं। इनमें से एक प्रजाति है अरेल स्यून, जिसके रेशों से कपड़े तैयार किए जाते हैं, दूसरी है काला स्यून बूटी और तीसरी है स्यून, जिनसे सब्जी और चाय बनाई जाती है।”

इस बार मैं सर्दियों में कॉलेज से जब गांव गई थी, तो मुझे तेज़ ठंड लगने से ज़ुकाम हो गया था। सत्यवाली हिमाचल के ऊँचे पहाड़ी इलाकों में बसा है, जहां हर साल सर्दियों में बर्फ की मोटी चादर बिछ जाती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ— भारी बर्फबारी के कारण गांव से शहर जाने के रास्ते पूरी तरह बंद हो गए, और दवाइयों का इंतज़ाम करना नामुमकिन हो गया।

ठंड से कांपते हुए जब मैंने अपनी दादी से शिकायत की, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, इसका इलाज तो हमारे आंगन में ही है!”

उन्होंने आंगन के कोने में उगे बिच्छू बूटी के पौधों की ओर इशारा किया। मैं हैरान थी— जिस पौधे को बचपन से जलन और चुभन के डर से दूर रखती आई थी, वही अब मेरी दवा बनने वाला था!

दादी ने चिमटे से बिच्छू बूटी के पत्ते सावधानी से तोड़े— नंगे हाथों से छूना तो नामुमकिन था। फिर उन्होंने उन्हें उबालकर एक गर्मागर्म सूप बनाया। हल्की तीखी सुगंध और घूंट-घूंट कर अंदर जाती गरमाहट ने मानो ठंड को भीतर से पिघला दिया। कुछ ही देर में, मेरी ठिठुरन कम होने लगी, और ज़ुकाम भी जैसे हल्का पड़ गया। मैं सोचने लगी— कितना कुछ हमारे आस-पास ही होता है, बस हमें उसे पहचानने की ज़रूरत होती है!

बिच्छू बूटी को चिमटे की सहायता से निकालते हुए। फोटो भानु प्रिया

इसके बाद दादी ने पत्तों को अच्छे से साफ किया, क्योंकि उन पर धूल जमी थी और छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े भी लगे थे। सफाई के बाद, उन्होंने पत्तों को उबलते पानी में डाल दिया, ताकि उनका कांटेदार असर खत्म हो जाए। जब पत्ते नरम हो गए, तो दादी ने उन्हें शील पर पीसना शुरू किया। शील दो बड़े-बड़े पत्थरों से बना एक पारंपरिक सिलबट्टा होता है, जिस पर मसाले, चटनी और पत्तों को बारीक किया जाता है। धीरे-धीरे बिच्छू बूटी का पेस्ट तैयार होने लगा। फिर, चूल्हे पर चढ़ी कढ़ाई में घी गरम किया और उसमें हल्का-सा तड़का लगाया।

जब पिसे हुए बिच्छू बूटी के पत्तों को हल्का भून लिया गया, तो दादी ने उसमें थोड़ा आटा और पानी मिलाकर पकने के लिए छोड़ दिया। कुछ देर उबलने के बाद सूप तैयार हो गया। ठंडा होने पर जब मैंने पहला घूंट भरा, तो एक अनोखी अनुभूति हुई— गर्माहट, राहत और स्वाद का सुखद संगम! इस सूप का असर किसी भी दवाई से कहीं ज्यादा प्रभावी था। लगातार दो दिनों तक इसे पीने से मेरा जुकाम पूरी तरह ठीक हो गया।

बिच्छू बूटी की सब्जी पोषक तत्वों से भरपूर होती है और सर्दी-जुकाम में राहत दिलाने में मदद करती है। इसमें विटामिन C, आयरन, एंटीऑक्सीडेंट और एंटी- इंफ्लेमेटरी गुण होते हैं, जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं और संक्रमण से लड़ने में सहायक होते हैं। इसके पत्तों में मौजूद एंटी-बैक्टीरियल तत्व गले की खराश, बंद नाक और खांसी को कम करने में मदद करते हैं। साथ ही, यह बलगम (म्यूकस) को ढीला करने और शरीर को अंदर से गर्म रखने में कारगर होता है, जिससे ठंड और जुकाम जल्दी ठीक हो सकता है। बिच्छू बूटी का सेवन शरीर को ऊर्जा देता है और कमजोरी दूर करता है, इसलिए इसे ठंड के मौसम में विशेष रूप से खाना फायदेमंद माना जाता है।

कुगंस की सब्जी। फोटो भानु प्रिया

मेरी दादी हर सर्दियों में बिच्छू बूटी की सब्जी भी बनाती हैं, जो सूप की तरह ही बनाई जाती है लेकिन इसमें पहाड़ी आलू भी डाल दिए जाते हैं। ठंड के महीनों में भारी बर्फबारी के कारण खेत-खलिहान सफेद चादर से ढक जाते हैं और ताज़ी सब्ज़ियाँ मिलना मुश्किल हो जाता है, तब बिच्छू बूटी आसानी से उपलब्ध होता है।

दादी ने बिच्छू बूटी कि यह सब्जी और सूप बनाने की पारंपरिक विधि अपनी मां से सीखी हैं। उन्होंने बताया कि जब वे छोटी थीं, तब उनकी माँ अक्सर सर्दियों में बिच्छू बूटी की सब्ज़ी और सूप बनाया करती थीं। यह सिर्फ एक साधारण भोजन नहीं था, बल्कि सर्दियों के ठंडे दिनों में पोषण और गर्माहट देने वाला एक घरेलू उपचार भी था।

एक बार, ठंडी रात के अंधेरे में मेरे चाचा अचानक गिर पड़े और उनके पैर में मोच आ गई। गाँव के दूर-दराज़ इलाके में डॉक्टर तक पहुँचना आसान नहीं था। चाचू की तकलीफ़ देखकर गाँव के बुजुर्गों ने बिच्छू बूटी का लेप तैयार किया। दादी ने शील में बिच्छू बूटी को बारीक पीसा, उसमें थोड़ा नमक मिलाया और चाचू के सूजे हुए पैर पर लगा दिया। कहा जाता है कि अंदरूनी चोटों और सूजन के लिए यह बहुत असरदार होता है, और सच में, चाचू को इससे राहत मिली।

एक पत्थर की सहायता से बिच्छू बूटी को बारीक करते हुए। फोटो: दिकेश्वर राणा

बिच्छू बूटी न केवल औषधीय गुणों से भरपूर है, बल्कि यह पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और जैव विविधता को मजबूती देने में मदद करती है। इसके गहरे जड़ें मिट्टी को स्थिर रखती हैं, जिससे मृदा अपरदन (Soil Erosion) कम होता है, और इसके पत्ते व तने कीटों, तितलियों और पक्षियों के लिए खाद्य स्रोत का काम करते हैं। पारंपरिक ज्ञान में इसकी पहचान औषधि के रूप में की जाती रही है, लेकिन इसके कीटनाशी गुण खेतों में फसलों की सुरक्षा करने और जैविक खेती को बढ़ावा देने में भी सहायक होते हैं। इसके अलावा, यह पौधा कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर वायुमंडल में ऑक्सीजन के स्तर को संतुलित करने में मदद करता है। सदियों से चली आ रही इस वनस्पति का संरक्षण न केवल मानव स्वास्थ्य बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आवश्यक है।

खोता हुआ ज्ञान

मेरी दादी ने बिच्छू बूटी के बारे अपनी मां से सीखा, फिर उन्होंने मेरी मम्मी को सिखाया। लेकिन मेरी मम्मी ने मुझे नहीं सिखाया, और ना ही मैंने उनसे सीखने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि यह ज्ञान अब हमारे मां की पीढ़ी तक ही सीमित रह गया है। शायद इसलिए क्योंकि अब हमारे पास इतने संसाधन हैं कि इसकी जरूरत कम लगने लगी है।

मुझे लगता है कि आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में लोगों के पास यह सब सीखने का समय नहीं है। अब लोग घरेलू उपचारों की जगह बाज़ार में झट से मिलने वाली चीज़ों का अधिक उपयोग कर रहे हैं। मैं सीखना चाहती हूं, और सौभाग्य से मेरी दादी इसे सिखा सकती हैं। लेकिन गांव में अब इसे सिखाने वाले बहुत कम रह गए हैं। पहले लोग इससे रस्सी और कपड़े बनाते थे, लेकिन अब हमारे गाँव में यह लगभग खत्म हो गया है। मुझे बस यही डर है कि अगर हमने अब नहीं सीखा, तो आगे चलकर इसे सिखाने वाला कोई नहीं रहेगा।

मैंने देखा है कि यह ज्ञान अक्सर महिलाओं के बीच ही पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता है– दादी से मां, मां से बेटी या बहू तक। मेरी समझ में, पुरुष भी इसके बारे में जानते हैं, लेकिन जब पारंपरिक रसोई-कला की बात होती है, तो हम सिर्फ महिलाओं का जिक्र करते हैं। क्या पुरुषों को भी इस विरासत का हिस्सा नहीं बनना चाहिए? क्या मां को अपने बेटों को भी खाना बनाने की कला नहीं सिखानी चाहिए? सिर्फ बेटियों को ही क्यों?

मेरे हिसाब से वर्तमान समय में लोग बिच्छू बूटी को उतना महत्व नहीं दे रहे हैं जितना पहले दिया जाता था, क्योंकि आधुनिक खेती और शहरीकरण के कारण स्थानीय जड़ी-बूटियों का महत्व घटता जा रहा है। लोग अब इसे अपने आंगन या खेतों में उगने वाला एक अवांछनीय पौधा मानने लगे हैं, जबकि यह स्वास्थ्य, जैव विविधता और मिट्टी की उर्वरता के लिए फायदेमंद है। अगर इसके लाभों को फिर से जागरूक किया जाए, तो यह न केवल पारंपरिक ज्ञान को बचाने में मदद करेगा, बल्कि प्रकृति और स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद साबित होगा।

सत्यवाली गाँव में रहने वाली मेरी सहपाठी जन्नत कहती हैं, मैं चाहती हूँ कि बिच्छू बूटी सुरक्षित रहे, और इसके व्यंजनों की विधियाँ भी आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचें। जिस तरह आज हमारे पास बिच्छू बूटी से रस्सी बनाने की विधि उपलब्ध नहीं है, उसी तरह अगर ध्यान नहीं दिया गया, तो एक दिन बिच्छू बूटी की सब्जी बनाने की विधि भी विलुप्त हो जाएगी।”

इसी गाँव की ट्विंकल,12वीं कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की भी बिच्छू बूटी के महत्व को समझती हैं।

वह कहती हैं, बिच्छू बूटी सिर्फ एक पौधा नहीं, बल्कि एक बहुमूल्य विरासत है, जिसकी असली कीमत हमारे पूर्वज जानते थे। उन्होंने पीढ़ियों तक इसे सहेजा, और अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसे संरक्षित रखें, ताकि भविष्य में भी इसका लाभ मिलता रहे।”

जिसे हम कांटों वाला समझकर नष्ट कर रहे हैं, वही प्रकृति का अनमोल खजाना है। बिच्छू बूटी की तरह न जाने कितनी जड़ी-बूटियाँ हमारी अज्ञानता की भेंट चढ़ चुकी हैं। अगर इंसान यूँ ही चलता रहा, तो आने वाली पीढ़ियों को केवल इनके नाम ही सुनने को मिलेंगे। 

हुक्का पीते दादा इस बदलाव को समझते हुए गहरी सांस लेकर बोले, 

कहावतों के ज़माने चले गए

अब कौन बुजुर्गों की बातें सुनता है

आज वही होता है, जो जिसको अच्छा लगता है।”

Meet the storyteller

Bhanu Priya
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Bhanupriya grew up close to nature amidst the snow-covered mountains of Satyawali village in the Siraj region of Himachal Pradesh. A third-year student of B.A. in History, Bhanu has a passion for writing, composing poetry, and Shayari. She enjoys reading fiction novels and painting. Her deep connection with the culture of the mountains, inspires her to preserve this heritage through her writing and creativity, so that future generations can experience the beauty of nature and its legacy.

भानुप्रिया हिमाचल प्रदेश के सिराज क्षेत्र के सत्यावली गांव की रहने वाली हैं, और बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच पली-बढ़ी हैं। इतिहास में B.A. तृतीय वर्ष की छात्रा भानु को प्रकृति के करीब रहते हुए लिखने, कविताएं और शायरी रचने का शौक है। वह फिक्शन उपन्यास पढ़ना और पेंटिंग करना पसंद करती हैं। पहाड़ों की संस्कृति से गहरा लगाव के चलते वह इस विरासत को अपने लेखन और रचनात्मकता के जरिए सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां प्रकृति और उसकी धरोहर की सुंदरता को महसूस कर सकें।

Voices of Rural India
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Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

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