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ररगाड़ी का राकश- जोहार घाटी का एक प्रेत

कई साल पहले, जोहार घाटी की एक ठिठुरती रात में, एक अकेला व्यापारी विश्राम के लिए रुका— पर उसे एहसास हुआ कि कोई रहस्यमयी छाया उसकी हर हरकत दोहरा रही थी। कहते हैं, नकलची राकश अब भी ररगाड़ी के उस सुनसान और खतरनाक रास्ते पर भटकता है, जहाँ बहुत कम लोग ठहरने की हिम्मत करते हैं। लेकिन क्या वह सच में कोई राक्षश था, या फिर एक कहानी, जो यात्रियों को इन भयावह पहाड़ी रास्तों से दूर रखने के लिए गढ़ी गई थी? आज भी अनदेखी शक्तियों और अनोखी घटनाओं की कहानियाँ सुनी जाती हैं, जहाँ हकीकत और लोककथा के बीच की रेखा धुंधली पड़ जाती है। इन कहानियों के माध्यम से लेखक एक सवाल उठाते हैं— क्या ये सिर्फ़ किस्से हैं, या फिर डर और सुरक्षा के बीच बुनी गई चेतावनियाँ?

कहानीकार: बीना वर्मा,
ग्राम मल्ला घोरपट्टा, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड

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कहते हैं कि कुछ कहानियाँ सिर्फ़ डराने के लिए गढ़ी जाती हैं, लेकिन कुछ ऐसी होती हैं जिनमें सच्चाई का अंश छिपा होता है— इतना गहरा कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाने के बावजूद उनका असर कभी कम नहीं होता। हवा सरसराए, झाड़ियों से अजीब सी आवाज़ आए, या रात के सन्नाटे में कोई परछाईं लहराए— तब लोग कहते हैं, “यहाँ जरूर कोई अदृश्य शक्ति का वास होगा।” जंगलों की गहराई, ऊंचे चट्टान, बहती गाड़-गधेरियाँ, वीरान खंडहर— सबमें कोई न कोई कहानी छिपी होती है। आज मैं आपको ऐसी ही एक कहानी सुनाने वाली हूँ— ररगाड़ी नामक एक डरावनी जगह के राकश (राक्षस) की!

गोरी नदी के तट पर बसा ररगाड़ी । फोटो: बीना वर्मा

सदियों पहले की बात है, हिमालय के ऊंचे पहाड़ी दर्रो को पार करके उत्तराखण्ड के जोहार घाटी के व्यापारी भारत से तिब्बत जाया करते थे। ठंड के छः महीनों में वे मुनस्यारी और उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्र के बीच आते जाते और गर्मियों में तिब्बत की ओर कूच कर जाते। वे अपने घोड़ों और भेड़-बकरियों पर चावल, मक्का, दालें लादकर तिब्बत जाते और बदले में वहाँ से सोना, नमक, याक, भेड़-बकरियाँ लेकर लौटते। यह व्यापार लगभग 300 सालों तक चलता रहा, लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद हमेशा के लिए बंद हो गया।

हिमालय के इस हिस्से की खड़ी चट्टानों और उबड़-खाबड़ रास्तों वाली यात्रा लंबी और कठिन होती थी। व्यापारियों के लिए मल्ला (ऊपरी) जोहार घाटी में स्थित मिलम गाँव (3,400 मीटर), उनका प्रमुख ठिकाना हुआ करता था। व्यापारियों को रास्ते में ररगाड़ी नामक एक जगह से गुज़रना पड़ता था जो मुनस्यारी से लगभग 35 किलोमीटर दूर, गोरी नदी के किनारे पर पड़ता है। जोहार घाटी, उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित है, जहाँ मिलम ग्लेशियर से गोरी नदी का उद्गम होता है। मिलम मुनस्यारी शहर से लगभग 64 किलोमीटर दूर है।इस कारण जोहार घाटीको मिलम या गोरी घाटी के नाम से भी जाना जाता है।

जोहार घाटी में मिलम के रास्ते पर लिलम गांव। फोटो: त्रिलोक राणा

तिब्बत जाने वाले व्यापारी अक्सर कहा करते थे कि ररगाड़ी में एक रहस्यमयी राक्षस रहता है, जो यात्रियों को डराने के साथ-साथ उनकी हूबहू नकल भी उतारता है। ररगाड़ी में एक उडियार (गुफ़ा) हुआ करता था, जिससे होकर पैदल यात्रियों को गुज़रना पड़ता था। यही उनका आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता था। यह गुफ़ा गोरी नदी के पास, एक खड़ी पहाड़ी की ढलान पर स्थित थी। इसकी ऊँचाई लगभग चार मीटर और लंबाई बीस मीटर थी। इसी अंधेरे और रहस्यमयी गुफ़ा में, ररगाड़ी का वह नकलची राक्षस निवास करता था। जब जोहार घाटी के यात्री ररगाड़ी से गुज़रते हैं तो वे रात में वहाँ रुकने से कतराते हैं। कहते हैं कि यह नकलची राकश आज भी वहीं भटकता है— किसी नए यात्री से भिड़ंत के इंतज़ार में…

गुफा का अवशेष जिसे सड़क बनाने के लिए नष्ट कर दिया गया था। फोटो: बीना वर्मा

बचपन में, मैंने अपने गाँव मल्ला घोरपट्टा (मुनस्यारी) के बुजुर्गों और घरवालों से इस राक्षस के कारनामों की कई कहानियाँ सुनी थीं। जब कभी कोई मज़ाक में किसी की नकल उतारता, तो लोग कहते— “इसमें ज़रूर ररगाड़ी का राकश घुस गया होगा!”

बुज़ुर्गों की मानें तो ररगाड़ी का राकश कोई साधारण भूत नहीं है। यह राक्षश सिर्फ़ किसी की नकल ही नहीं उतार सकता है- वह उसकी आवाज़, उसकी हरकतें, यहाँ तक कि उसके दुख और डर को भी झलका सकता है। और सबसे अजीब बात? इसे कभी किसी ने ठीक से देखा नहीं। पर जिसने इसे महसूस किया, वह कभी पहले जैसा नहीं रहा। ऐसा माना जाता है कि उसका शरीर लम्बे-लम्बे बालों से ढका हुआ है, नाखून इतने बड़े हैं कि पंजे की तरह लगते हैं और कद- काठी, हट्टा-कट्टा, डरावना है। वर्षों तक यह मार्ग यात्रियों और व्यापारियों के लिए जाना-पहचाना रहा, और इसके साथ जुड़ी कहानियाँ आज भी लोगों की यादों में बसी हुई हैं। कुछ इसे सिर्फ़ एक लोककथा मानते हैं, तो कुछ दावा करते हैं कि उन्होंने ररगाड़ी के राकश की परछाई ज़रूर देखी या महसूस की है।

ररगाड़ी की एक डरावनी रात

कई साल पहले की बात है- एक व्यापारी को तिब्बत से लौटने में देर हो गई। जब तक वह निकला, तब तक जोहार घाटी के सारे लोग ठंड से बचने के लिए मुनस्यारी पहुँच चुके थे। वह अकेला ही अपनी भेड़-बकरियों के साथ लौट रहा था। जब चलते-चलते वह ररगाड़ी पहुँचा, तो उसने सोचा कि रात वहीं उडियार (गुफ़ा) में गुज़ार ली जाए। उसने अपना तंबू लगाया और खाना पकाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करने चला गया। 

जब वह लौटा तो उसने देखा कि उसका एक भेड़ गायब था। वह हैरान रह गया। रात के घिरते अंधेरे में उसने चारों तरफ भेड़ को ढूंडा, लेकिन कोई निशान नहीं मिला। उसे लगा शायद कोई जंगली जानवर भेड़ को उठा ले गया होगा। लेकिन अगली सुबह जैसे ही वह उठा, उसने पाया कि उसकी सारी भेड़-बकरियाँ मरी पड़ी थीं! किसने मारा? कैसे मरीं? उसे कुछ समझ नहीं आया। भय और निराशा से वह ज़मीन पर बैठकर रोने लगा। तभी, ररगाड़ी के गुफ़ा के अंधेरे में से किसी और के रोने की आवाज़ सुनाई देने लगी। वह चौकन्ना हो गया। उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, लेकिन कुछ नज़र नहीं आया। पर वह आवाज़…वह साफ़ सुन सकता था। वह जब रोता, तो आवाज़ भी उसके साथ रोती। जब वह चुप होता, तो वह भी चुप हो जाती। एक भयानक एहसास ने उसे जकड़ लिया।

जोहार घाटी में भेड़ें घास खा रही हैं। फ़ोटो: दुर्गा प्रसाद

अचानक उसने अपने गले पर कुछ अजीब महसूस किया— एक कठोर गाँठ जैसी चीज़ उभर आई थी, जैसे माँस का कोई टुकड़ा जम गया हो। वह कुछ समझ पाता, उससे पहले ही अंधेरे में एक परछाई उसके करीब आई। वह लंबा था, उसके घने बाल थे, पंजों जैसे नाखून, और आँखें… उनकी लाल चमक अंधेरे में भी साफ़ दिखाई दे रही थी। वह व्यापारी की ओर बढ़ा और बिना कुछ कहे उसके गले से वह गाँठ निकाल दी। व्यापारी डर से थरथराने लगा। उसी रात, एक और व्यापारी उस जगह पहुँचा। वह अनजान था कि यहाँ कुछ अजीब घट चुका है। जैसे ही वह वहाँ पहुँचा, उस राक्षस ने गाँठ को उसके गले पर चिपका दिया!

एक समय था जब पहाड़ में कई भेड़-बकरी पालकों को घेंगा (गॉइटर) हुआ करता था और गले में गांठ बन जाया करती थी। तब आयोडीन युक्त नमक कहां मिला करता था जो अब खाने से इस बीमारी का पहाड़ों से निवारण लगभग हो चुका है।

बीमारी या प्रेत का छल?

एक और ऐसी कहानी कहानी मैंने अपनी माँ से सुनी थी, और इसने मेरे मन में द्वंद पैदा कर दिया— क्या सच में नकलची राकश मौजूद था? क्या किसी की बीमारी का कारण वास्तव में यह राकश हो सकता था?

कई साल पहले, गर्मियों में मुनस्यारी से मल्ला जोहार पलायन करने वाले परिवार ररगाड़ी से यात्रा कर लास्पा (3,400 मीटर) पहुँचे। वहाँ से घर लौटने के कुछ समय बाद, उस परिवार की एक महिला की तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। परिवार वालों ने उसकी हालत देखकर उसे अस्पताल ले जाने का निर्णय लिया, लेकिन डॉक्टरों के इलाज के बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ। दिन-ब-दिन उसकी स्थिति और गंभीर होती गई।

हमारे पहाड़ों में जब कोई बीमारी दवा से ठीक नहीं होती, तो लोग देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करने लगते हैं। इसी विश्वास के चलते, महिला के परिवार ने सोचा कि पूजा-पाठ करवाने से वह ठीक हो जाएगी। लेकिन पूजा का भी कोई असर नहीं हुआ, और महिला की हालत लगातार बिगड़ती गई। धीरे-धीरे परिवार वालों को अजीब बातें महसूस होने लगीं। कभी-कभी वह महिला अपने ही परिवार वालों की नकल उतारने लगती। पहले तो उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जैसे-जैसे उसकी हरकतें असामान्य होती गईं, वे घबरा गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्या हो रहा है।

फिर एक दिन, अचानक महिला ने कहा, “मैं ररगाड़ी की राकश हूँ!”

यह सुनकर परिवार के लोग अचंभित रह गए। इतने दिनों से उसकी बिगड़ती हालत का कारण कोई बीमारी नहीं, बल्कि ररगाड़ी के नकलची राकश का छल (भूत-प्रेत) निकला। डरे-सहमे परिवार वालों ने फैसला किया कि इस प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए ररगाड़ी के छल की पूजा करवाना ज़रूरी है। जैसे ही उन्होंने पूजा की तैयारियाँ शुरू कीं, कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी— उस महिला की मृत्यु हो गई।

ररगाड़ी के प्रेत से मुक्ति दिलाने वाला मंदिर
ररगाड़ी के राकश को मात देने वाले व्यापरी की लोककथा

शीत ऋतु पूरी तरह शुरू होने से पहले की एक ठंडी रात थी। चारों ओर घना सन्नाटा पसरा था, और दूर पहाड़ों पर बर्फ़ चमक रही थी। जोहार घाटी के व्यापारी हर साल की तरह इस मौसम में मुनस्यारी की ओर जाते थे। उन्हीं में से एक व्यापारी, अपनी बकरियों के साथ ररगाड़ी के उडियार में रुका। रास्ता लंबा था, रात का अंधेरा घिर चुका था, और आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था। उसने टेंट लगाया और आग जलाने लगा। 

आग की लपटें धीरे-धीरे भड़कने लगीं, और उसकी हल्की गर्मी व्यापारी को राहत देने लगी। वह खाने की तैयारी में जुट गया, तभी अचानक… कहीं दूर से एक आवाज़ आई— 

“मैं भी हूँ… मेरे लिए भी खाना बनाओ!”

ररगाड़ी में अपनी भेड़-बकरियों के साथ व्यापारी का एक रेखाचित्र. चित्रकार हेमन्त धर्मशक्तू (रिंकू)

व्यापारी ने चौंककर इधर-उधर देखा। अंधेरे में कुछ नज़र नहीं आया। उसने इसे मन का भ्रम समझकर अनदेखा कर दिया और वापस खाने की तैयारी में लग गया। लेकिन कुछ ही पलों बाद वही आवाज़ फिर से गूंजी— इस बार और पास से। अब व्यापारी सतर्क हो गया। उसने पास पड़ी लकड़ी उठाकर आग में डाल दी, जिससे उसकी रोशनी थोड़ी और बढ़ गई। कुछ देर बाद झाड़ियों के पीछे से एक आदमी धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ता दिखा। लंबा, दुबला-पतला, अजीब तरह से झुका हुआ। व्यापारी को अचानक एक सुकून महसूस हुआ— चलो, कोई इंसान तो मिला!

मुस्कुराते हुए उसने उस आदमी को खाने के पास बुलाते हुए पूछा- “कौन हो भाई? कहाँ से आ रहे हो? क्या तुम भी कोई व्यापारी हो?”

कोई उत्तर नहीं। अब व्यापारी को अजीब सा लगने लगा। उसने गौर से देखा—सामने बैठा शख़्स हल्की आग की रोशनी में उसकी ही ओर घूर रहा था, लेकिन उसकी आँखों में कोई भाव नहीं थे। ख़ैर, व्यापारी ने ज़्यादा सोचे बिना अपने लिए खाना परोसा और उस अजनबी के लिए भी एक थाली रख दी।

जैसे ही व्यापारी ने पहला निवाला उठाया, सामने वाला भी ठीक उसी तरह अपनी थाली से हाथ बढ़ाने लगा। व्यापारी ने निवाला मुँह में डाला— सामने वाले ने भी बिल्कुल उसी तरह किया। व्यापारी ने माथे पर हाथ फेरा, सामने वाले ने भी। व्यापारी ने गला खंखारा, सामने वाले ने भी। अब व्यापारी को समझ आ गया— यह कोई सामान्य इंसान नहीं था! यह उसकी हर हरकत की नकल कर रहा था! उसका गला सूखने लगा। उसने कुछ भी न करने का नाटक किया, और सामने वाला भी ठहर गया। अब व्यापारी को डर लगने लगा, लेकिन वह घबराया नहीं। उसने कुछ सोचकर अपनी गठरी से घी और चर्बी निकाली और अपने शरीर पर मलने लगा। जैसा कि उसे उम्मीद थी, वह अजनबी भी ठीक वैसा ही करने लगा। व्यापारी को एक पुरानी तरकीब याद आई— अगर नकलची को हराना है, तो उसे कुछ ऐसा करने पर मजबूर करो जिससे वह भाग जाए!

व्यापारी ने आग में से जलती हुई लकड़ी निकाली और जैसे ही उसे अपने शरीर से लगाने का नाटक किया, सामने वाले ने भी वैसा ही किया।

लेकिन जैसे ही जलती हुई लकड़ी उस शक्स के चर्बी से सने शरीर से टकराई, वह चीख़ने लगा— “मैं जल रहा हूँ! मैं जल रहा हूँ! अब क्या करूँ?”

व्यापारी ने झट से कहा, “भागो! पानी में कूद जाओ!”

वह रहस्यमयी प्रेत तुरंत पास की गोरी नदी में कूद गया और पानी के तेज़ बहाव में बह गया। व्यापारी ने जल्दी से अपना सामान समेटा, अपनी बकरियों को इकट्ठा किया और बिना रुके पूरी रात चलता रहा। जब सुबह हुई, तो वह मुनस्यारी के क़रीब पहुँच चुका था।

गोरी नदी के तट पर स्थित ररगाड़ी, फ़ोटो: बीना वर्मा

कोई नहीं जानता कि उस रात ररगाड़ी के राक्षस का वास्तव में अंत हुआ था या नहीं। न ही यह स्पष्ट हो पाया कि उसकी शक्तियाँ क्या थीं या वह कैसा दिखता था। कुछ कहते हैं कि उसने कई रूप धारण किए, तो कुछ उसकी भयावह हरकतों को याद करते हैं— एक रहस्य जो आज तक धुंधला नहीं पड़ा।

एक खोई पथ का रहस्य

मैंने तो न दिन में भूत-प्रेत कभी देखा, न रात में, और न ही किसी पर उसका साया पड़ने का प्रभाव देखा। लेकिन इन कहानियों को सुनकर ररगाड़ी के नकलची राक्षश की क्या सच्चाई होगी- इस सवाल ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।

अप्रैल 2023 की बात है, मेरे दोस्तों ने अचानक कहा, “चलो, हम ररगाड़ी घूमने चलते हैं!”

मिलम तक का सफर, जो कभी लंबी और कठिन पैदल यात्रा हुआ करती थी, अब ररगाड़ी तक नई सड़क बनने के बाद आसान हो गई थी। मुनस्यारी से अब कई लोग वहाँ घूमने जाने लगे थे। मन ही मन मैं बहुत उत्साहित थी। आखिर, बचपन में सुनी उस रहस्यमयी जगह को अपनी आँखों से देखने का मौका जो मिल रहा था। वहाँ जाकर क्या महसूस होगा? क्या वह जगह उतनी ही डरावनी होगी जितना सुना था?

सफर पर निकलने के दिन मौसम बिल्कुल साफ़ था और खुले आकाश में सूरज चमक रहा था। हमारी गाड़ी ररगाड़ी की ओर बढ़ने लगी और चारों ओर का नज़ारा बेहद सुंदर लग रहा था। दाईं ओर पंचाचूली पर्वत श्रंखला के चमचमाती बर्फीली चोटियाँ, बाईं ओर घना जंगल, और सामने हंसलिंग पर्वत।

पंचाचूली सूरज की रोशनी में चमकती हुई। फोटो: ईशा शाह

ररगाड़ी के पास पहुँचकर जैसे ही हम गाड़ी से उतरे, रोड के नीचे गोरी नदी बहती नज़र आई। उसकी घमघमाहट चारों ओर गूँज रही थी। साथ ही सुर-सुर करती ठंडी हवा बह रही थी जिसमें मेरा दुपट्टे और बाल फरफराते हुए उड़ रहे थे। उस बहाव में एक अजीब-सा खिंचाव था।

गाड़ी से उतर कर हम गोरी नदी के किनारे आगे एक किलोमीटर पैदल चले। चलते-चलते मुझे  रारामेनसिंह और बबिल धार के चट्टान दिखे— इतने ऊँचे कि सिर ऊपर उठाकर देखने के बाद भी उनकी चोटियाँ अंतहीन लग रही थीं। बचपन में सुनी हुई बात याद आई— बुज़ुर्ग कहा करते थे कि जब कोई इन पहाड़ों को देखता, तो उसके सिर की टोपी गिर जाती! हर ओर सिर्फ़ गोरी नदी की गूंज, हवा की आवाज़ें सुनाई दे रही थी। मेरे भीतर एक अनकही बेचैनी उठ रही थी।

बेबेल धार की ऊंची चोटी. फोटो: बीना वर्मा

ररगाड़ी में एक झरना भी है, जिसे “ररगाड़ी का छ्यूर ” कहा जाता है। यह झरना रास्ते के ठीक बीचों-बीच बहता है, जिससे यहाँ से गुजरने वाले यात्रियों के ऊपर लगातार पानी गिरता रहता है। यह स्थान फिसलन और पानी का तेज़ बहाव के कारण खतरनाक माना जाता है। अब रोड बनाने के कारण वहां लगातार पत्थर गिरने का खतरा भी बना रहता है।

ररगाड़ी का छ्यूर (झरना). फोटो: बीना वर्मा

ररगाड़ी के राकश के उडियार के स्थान पर पहुँचने पर सब को गहरा झटका लगा। दो साल पहले तक जहाँ सदियों से एक विशाल गुफ़ा हुआ करती थी, अब उसका किनारा तोड़ कर सड़क बना दी गई थी। पर आज भी जो लोग उस जगह पर जाते हैं, वे किसी अनजानी घबराहट और मानसिक तनाव से घिर जाते हैं- बिल्कुल वैसा जैसा मुझे वहां महसूस हो रहा था।

मौसम अचानक ख़राब हो गया था। तेज़ बारिश होने लगी, और बादल ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे थे, जैसे दिन में ही अंधेरा छा गया हो। तभी मेरी माँ के बताए हुए किस्से याद आ गए— वही भूत की कहानियाँ, जो वो बचपन में शरारत करने पर मुझे सुनाया करती थीं। मेरे साथी भी उन कहानियों को याद कर रहे थे। नदी में पानी का तेज़ बहाव, बर्फ़िली हवाओं की अजीब-सी आवाज़ जो इतनी तीव्र थीं कि लगा जैसे किसी को उड़ा ले जाएगी। चारों ओर बस ऊँचे-ऊँचे पहाड़— यह सब देखकर ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी माँ की उन्हीं कहानियों के बीच आ गई हूँ।

हिमालय के इस इलाके में मौसम का कोई भरोसा नहीं; कब साफ़ आसमान बादलों से घिरकर भर जाए और बारिश शुरू हो जाए, कहना मुश्किल होता है। यही इस जगह की सबसे अनोखी बात है— यह हर पल बदलती रहती है। एक बात निश्चित थी— ररगाड़ी एक भयावह और खतरनाक जगह में अचानक परिवर्तित हो गई थी, जहाँ अकेले जाने में किसी को भी डर लग सकता है।

मैंने बचपन में ररगाड़ी के राकश के किस्से अपनी माँ से अनगिनत बार सुनी थी। वे इसे बार-बार सुनाते, ताकि मैं शरारत न करूँ। मैं डर के मारे चुपचाप बैठ जाती, और मेरे मन में हमेशा उस राकश की छवि बनी रहती, जिसे मैंने कभी देखा भी नहीं था। और आज मैं बिल्कुल वैसे ही महसूस कर रही थी

डर की दास्तान या हकीकत का साया?

आज भी लोगों को मानसिक रूप से राक्षश की अनुभूति होती है— शायद इसलिए क्योंकि ररगाड़ी अपने आप में एक डरावनी जगह है। क्या लोग यहाँ अपने-अपने अनुभवों के आधार पर डर को महसूस करते हैं? अक्सर भय से ही तो कहानियाँ जन्म लेती हैं। कई लोगों का मानना है कि आज भी वह मायावी राक्षश यहीं कहीं मौजूद है। इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी नकलची राकश से जुड़ी अनेक कहानियाँ और किस्से सुने और सुनाए गए हैं, जो सदियों से चेतावनियों के रूप में प्रसारित होते आ रहे हैं।

मेरी कुछ साथियों का मानना है कि ये कहानियाँ सच हो सकती हैं, क्योंकि उन्होंने बचपन से ही बुजुर्गों से इन्हें सुना है। उनके लिए यह सिर्फ़ किस्से-कहानियाँ नहीं, बल्कि बीते समय की गूंज हैं, जिनमें सदियों की मान्यताएँ छिपी हुई हैं। वहीं, एक नौजवान साथी इसे पूरी तरह सच मानता है। उसका कहना है कि उसने खुद कुछ अनदेखी शक्तियों की उपस्थिति महसूस की है, और उसकी दादी की बताई कहानियों ने उसके विश्वास को और मज़बूत कर दिया है। 

पर क्या यह सच में किसी राकश की कहानी है, या फिर एक डरावनी हकीकत जो हमें इस जगह से दूर रखने के लिए गढ़ी गई? ररगाड़ी जैसे सुनसान, दुर्गम इलाकों में कई हादसे हुए हैं— बर्फीली हवाओं में रास्ता भटकना, चट्टानों का गिरना, और अनजाने खतरों में फँस जाना। क्या यह कहानी किसी पुराने हादसे की याद है, जिसे पीढ़ियों ने एक नए रूप में ढाल दिया?

रारगाड़ी में भूस्खलन। फोटो: बीना वर्मा

डर कभी-कभी हमारी सुरक्षा का हथियार भी बन जाता है। हो सकता है कि इस किस्से का जन्म लोगों को उन जगहों से दूर रखने के लिए हुआ हो— एक ऐसा तरीका जिससे वे खतरनाक दर्रों और अचानक बदलते मौसम से बच सकें। या फिर ऐसी परेशानियों और हादसों के लिए कोई कारण ढूंड पाना हो जिसे और किसी तरीके से समझ पाना उस समय सम्भव न हो? परंतु जितनी बार यह कहानी सुनी जाती है, उतनी ही बार यह सवाल उठता है— क्या यह सिर्फ़ एक लोककथा है, या फिर सचमुच कोई प्रेत या मायावी परछाईं अब भी वहाँ मंडरा रही है?

Meet the storyteller

Beena Verma
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Beena Verma spent her childhood in Sai Polu village, and after her marriage she has experienced city-life in places like Ahmedabad and Haldwani. Her easy-going nature and bright smile belies a steely determination to stand up for what she believes is just and right. She enjoys making videos and posting them on social media. She is an active member of Maati, an autonomous women collective based in Munsiari.

बीना वर्मा का बचपन मुनस्यारी के साई पोलू गांव में बीता और शादी के बाद उन्होंने अहमदाबाद और हलद्वानी जैसी जगहों पर शहरी जीवन का अनुभव लिया। उज्ज्वल मुस्कान और सहज स्वभाव के साथ-साथ, बीना अन्याय के खिलाफ खड़े होने की दृढ़ता रखती है। उसे वीडियो बनाना और उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करना अच्छा लगता है। वह पिछले एक साल से मुनस्यारी स्थित माटी संगठन की सक्रिय सदस्य रही हैं।

Voices of Rural India
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Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

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