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युमदासी: प्रेम, तिरसकार और प्रतिरोध का लोकगीत
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कहानीकर्ता : आकांक्षा नेगी
गाँव सापनी, जिला किन्नौर,
हिमाचल प्रदेश
युमदासी का लोकगीत, जो हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के शौंग गांव की एक युवाती की कहानी है, आज भी क्षेत्र के लोगों के दिलों में ख़ास जगह बनाए हुई है। विवाह के कुछ ही समय बाद उसे ससुराल से निकाला गया और वह अकेली अपने छोटे बच्चों के साथ जस्ती पबंग की वीरान पहाड़ियों में अपने मवेशियों के साथ जीने के लिए मजबूर की गई। उसने ऊपर उड़ते हुए गरुड़ों में शांति और अपनी हिम्मत में ताकत पाई। उसकी संघर्षों और अडिग आत्मा को इस लोक गीत में अमर किया गया, जो आज भी किन्नौर में प्रिय है। लेकिन क्या उसका संघर्ष व्यर्थ था, या उसकी कहानी एक ऐसी धरोहर छोड़ गई है जो आज भी महिलाओं की व्यथा के बावजूद प्रेरित करती है? लेखिका ने शौंग गांव जाकर इस सवाल से जूझते हुए यह पूछा है कि क्या युमदासी की गाथा आज की महिलाओं के लिए क्या मायने रखती है?
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“क्या तुमने कभी युमदासी गीत के बारे में सुना है?” मेरी दादी, प्रेम प्यारी माथुस ने मुझसे एक ठंडी शरद दोपहर में पूछा।
मैं शौंग गाँव में उनके गर्म लकड़ी से बने पंथांग (रसोई) में बैठी थी, जो हिमाचल प्रदेश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के किन्नौर जिले में तिब्बत के बॉडर पर स्थित है। रसोई में नमकीन चाय की खुशबू फैली हुई थी, और कहीं दूर किन्नौरी गीतों की धीमी धुनें बज रही थीं। दादी रसोई के बीचो-बीच, चूल्हे के पास बैठी चाय बना रही थीं, और मैं उनके बाईं तरफ बैठी, उन्हें देख रही थी। मुझे यह पारंपरिक धुनों की मनमोहक ध्वनियाँ पसन्द है जिन्हें सुनकर मन में एक भावनात्मक और ऐतिहासिक गहराई का ऐहसास छोड़ जाती हैं। लेकिन उस दिन, जब युमदासी का गीत बजा, एक अलग एहसास हुआ।
“यह गीत प्रेम, दर्द और संघर्ष की बात करता है,” मेरी दादी ने कहा, उनकी आवाज़ में एक भारीपन थी। “यह सिर्फ एक धुन नहीं, बल्कि एक कहानी है— एक सच्ची कहानी, एक ऐसी महिला की, जिसने अपनी ज़िन्दगी में अपार कठिनाइयाँ झेली।”
मेरी दादी की आँखों में नर्मी आ गई, “युमदासी सिर्फ एक महिला के संघर्षों की कहानी नहीं है, बल्कि हमारे समाज की कई महिलाओं के जीवन की कहानी है। युमदासी को अपने जीवन में वह स्वतंत्रता नहीं मिली, जिसकी उसे तलाश थी, लेकिन उसका साहस आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन गया,” उन्होंने कहा।
“उसकी ताकत पहाड़ों की तरह थी— अडिग और शाश्वत।”
उनके शब्द गहरे अर्थ से भरे हवा में गूंजते रहे थे।
मेरे अंदर युमदासी के बारे में और जानने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई।
वह कौन थी? इतनी शक्तिशाली विरासत को प्रेरित करने वाले संघर्ष क्या थे?
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यमदासीःसंघर्ष और अडिगता कीकहानी
मेरी दादी ने मुझे बताया कि युमदासी की कहानी लगभग 80 साल से भी अधिक पुरानी है, जब किन्नौर बुशहर रियासत की राजधानी हुआ करता था और राजपूत भाटी वंश वहां शासन करता था।
“बुशहर सिर्फ सबसे पुरानी पहाड़ी रियासतों में से एक नहीं था,” उन्होंने गर्व से कहा, “बल्कि यह तिब्बत, किन्नौर और हिमाचल के निचले क्षेत्रों के बीच व्यापार का एक समृद्ध केंद्र भी था।”
इसी छोटे से पहाड़ी प्रदेश में युमदासी नाम की एक युवाती रहती थी।
युमदासी की कहानी को समझने की मेरी जिज्ञासा मुझे शौंग तक ले आई थी। शौंग एक हिमालयी गाँव है जो सांगला घाटी से 32 किलोमीटर दूर स्थित है। युमदासी का विवाह इसी गाँव में हुआ था। यह जगह इतिहास में गुथी हुई थी- पतले रास्ते और प्राचीन घर बीते समय के रहस्यों को आज भी सँजोए हुए थे। जब मैंने गाँववालों से बात की और युमदासी की कहानी के टुकड़े समेटने की कोशिश की, तो जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि उसकी विरासत किन्नौर के भूगोल की तरह एकदम विविध थी। कहानी गहरी और जटिल थी, जो किन्नौर की संस्कृति और स्मृतियों में रची-बसी थी। जो भी मिला, उसके पास युमदासी के जीवन की अपनी अलग ही व्याख्या थी, अपनी अलग कहानी।
लेकिन उन तमाम कहानियों में एक सच्चाई साफ़ झलकती थी—युमदासी के जज़बे ने लोगों के जीवन में एक गहरा छाप छोड़ा था खासकर उनमें, जो उसे आज भी याद करते हैं।
Yumdasi– a Kinnauri folksong that tells of a real life story | Voice of Vimal Negi | Music Prabhu Negi
यमदासी का गाना। आवाज़: विमल नेगी
युमदासी का जन्म किन्नौर के छोटे से गाँव ब्रुआ में मेबन परिवार में हुआ था, जहाँ उसने कठिन परिश्रम, निष्ठा और बड़ों के प्रति सम्मान जैसे जीवन मूल्यों के साथ परवरिश पाई। किशोरावस्था में उसका विवाह शौंग गाँव के प्रतिष्ठित माथुस परिवार के रतन सिंह से कर दिया गया। मथुस परिवार अपनी संपत्ति, प्रभाव और समाज में महत्वपूर्ण योगदानों के लिए पहले भी अत्यंत प्रतिष्ठित था और आज भी है— विशेष रूप से किन्नौर के पहले विधायक को जन्म देने के लिए। युमदासी के लिए यह पारंपरिक रूप से तय हुआ विवाह, एक ऐसा मोड़ था जिसने एक ही रात में उसका पूरा जीवन बदल दिया।
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अपनी शादी के शुरुआती वर्षों में युमदासी ने अपने नए परिवार अपनी जगह बनाने के लिए अथक परिश्रम किया। अपनी युवावस्था के बावजूद, उसने एक पत्नी और बहू से अपेक्षित सभी कठिन जिम्मेदारियाँ निभाईं।
गृहस्थी के कामों के साथ-साथ, उसने खेतों में भी कड़ी मेहनत की और किन्नौर जैसे जनजातीय क्षेत्र में जीवन की कठिनाइयों से जूझती रहीं। खेत घर से काफी दूर था, जहाँ तक पहुँचने के लिए उसे रोज़ लंबी दूरी तय करनी पड़ती। उसने गायों और भेड़ों की देखभाल की— गोबर इकट्ठा करना, खाद बनाना, गायों का दूध निकालना और उनके चारे के लिए खड़ी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से घास काटना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। सर्दियों में, वह जंगल से सूखे पत्ते बटोरकर गायों के बाड़े में बिछाने के लिए लाती थीं। इसके अलावा, पास के जलस्रोत से पानी लाने का काम भी उसके कंधों पर था— हर कार्य ताकत और सहनशक्ति की माँग करता था।
खेती-बाड़ी के साथ-साथ युमदासी रसोई और सफाई की भी पूरी ज़िम्मेदारी संभालती थीं, ताकि घर सुचारू रूप से चलता रहे, भले ही उन पर कभी न खत्म होने वाली माँगों का दबाव क्यों न हो। उसकी सास एक सख्त स्वभाव की महिला थी और पारंपरिक मान्यताओं और कठोर लैंगिक भूमिकाओं की गहराई से जकड़ी हुई थीं। उन्होंने युमदासी के प्रति न तो कोई सहानुभूति दिखाई और न ही कोई मदद की। उसको न अपनी सास से और न ही अपने पति से कोई सहयोग मिला— वह इन सभी बोझों को अकेले उठाने के लिए छोड़ दी गईं।
युमदासी से शादी के कुछ ही समय बाद, उसके पति ने दूसरी शादी कर ली। घर में किसी तरह का विवाद न हो, इसके लिए उसकी सास ने युमदासी को एक कठोर आदेश दिया—
“अंग तेम आ ली युम हाय दालासी याली पालास बीमा गया यालीतोक,
पालास बीमा गया यालीतोक याली जिस्ती चा लि पाबंगो पालीलांग“
(मेरी बहू युमदासी, तुम्हें जिस्ती पबांग जाकर भेड़ों को चराना होगा।)
ये शब्द मात्र एक गीत नहीं थे— वे कठोर वास्तविकता का बोझ भी उठाए हुए थे। किन्नौर में हर पहाड़ी चोटी के नीचे एक गाँव बसा होता था, और इन गाँवों के ऊपरी हिस्सों को पबांग कहा जाता था। सबसे ऊँची चोटियों को जिस्ती पबांग कहा जाता था, जो एक सुनसान और दूरस्थ स्थान था। ये जगहें किन्नौर के लोगों के लिए अस्थायी बसेरे के रूप में काम आती थीं, जहाँ वे गर्मियों के महीनों में अपनी गायों और भेड़ों को चराने के लिए भेजते थे ताकि उन्हें पोषक आहार मिल सके।
अपनी सास के इस निर्मम निर्णय के जवाब में, युमदासी व्यंग्यात्मक रूप से अपने गीत में कहती हैं—
“हो भगवान ठालाकुर यूमे ताली कूटोन तोनिमा।”
(हे भगवान! मेरी सास कितनी चालाक है!)
यह माना जाता है कि उस समय युमदासी गर्भवती थी और उसने अपनी मुश्किलों से कुछ राहत की उम्मीद की थी। लेकिन राहत के बजाय, वह अपने छोटे बच्चों के साथ एक कठोर व बिना कोई राहत के जीवन जीने को मजबूर की गई, जहाँ उसे अकेले अपने मवेशियों की देखभाल करनी पड़ती थी, घर-गृहस्ति की सुरक्षा से बहुत दूर। जो गीत कभी सिर्फ़ एक धुन थी, वह अब उसके सहने पड़े अन्याय की एक मार्मिक याद बन गई।
“खोक्चो ताली तीकलाक हाय चांग रांग । शालांगो युमसी हाय पुवान। शालांगो युमसी हाय पुवान। शालागो हो हा कुयालिदो।”
(भेड़ों की देखभाल करते हुए, युमदासी अपनी गोद में अपने नवजात बच्चे को थामे रहती है। पबांग में अकेली, वह एक चरवाहिन के रूप में जीवन बिताती है। उसकी आवाज़ घाटी में गूंजती है जब वह अपने मवेशियों के झुंड को पुकारती है—‘हू हा!’)
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युमदासी महसूस करने लगीं कि उसकी ताकत धीरे-धीरे चूक रही है, लेकिन उसकी सास अडिग रहीं — उसकी हालत की परवाह किए बिना, उसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर करती रहीं। यह काम बेहद कठिन था, खासकर एक ऐसी महिला के लिए जिसने हाल ही में एक बच्चे को जन्म दिया था। युमदासी को लगा कि उसके पास न कोई आवाज़ थी, न कोई विकल्प— बस एक मौन स्वीकृति का बोझ था। वह जानती थीं कि अगर उसने विरोध किया, तो सब कुछ दांव पर लग सकता था— समाज की उपेक्षा, अपने ही परिवार से बहिष्कार। अगर उसने अपना हक मांगा, तो उसे डर था कि उसे एक सम्मानित स्त्री के रूप में नहीं देखा जाएगा और इस दुनिया में उसके लिए कोई ठिकाना न रहेगा। इसलिए, उसने अपने शब्दों को निगल लिया और अपनी सास के क्रोध का बोझ चुपचाप सहती रहीं।
जिस्ती पबांग की ठंडी हवाएँ उसकी कमजोर काया को भेदती रहीं, जबकि वे इस वीरान पहाड़ियों में भेड़ों की देखभाल करने के लिए संघर्ष करती रहीं। उसकी जर्जर झोपड़ी की छत जगह-जगह से टपकती थी, जो कठोर प्राकृतिक परिस्थितियों से सुरक्षा देने में असमर्थ थी। जीवन यापन के लिए उसके पास पर्याप्त सामग्री तक नहीं थी। रातें भूख की पीड़ा और अकेलापन की सिसकियों से भरी होतीं। उन तन्हा पलों में, वे अक्सर सोचतीं— क्या कोई उसके दुख को महसूस करता है? या फिर उसकी जिंदगी भी उन्हीं अनगिनत स्त्रियों की तरह बनकर रह जाएगी, जिनकी तकलीफें कभी किसी की जुबान पर नहीं आतीं?
जब अंततः युमदासी घर लौटीं, तो उसके साथ दो बच्चे थे— एक बेटी, विद्यापोती, और एक बेटा, रामपाल सिंह। उसका पति, रतन सिंह अब उदासीन और ठंडे हो चुके थे। युमदासी के लिए, यह भावनात्मक दूरी उन सभी कठिनाइयों से कहीं अधिक गहरा घाव था, जो उसने अब तक सहे थे। यह पीड़ा उसके दिल को बिखेर देने के लिए काफी थी— एक ऐसा टूटन, जो उसे भीतर तक झकझोर गया।
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यह सच्चाई युमदासी को भीतर तक तोड़ गई। वर्षों की कुर्बानी, निष्ठा और मौन सहनशीलता राख बनकर हवाओं में उड़ गई। क्या एक समर्पित जीवन का यही प्रतिफल था— त्याग और तिरस्कार? लेकिन जिस समाज में स्त्रियों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने भाग्य को बिना किसी सवाल के स्वीकार करें, वहीं युमदासी ने परंपराओं को चुनौती देने का साहस दिखा डाला। उसने एक निर्णय लिया— इस बार अपने लिए। उसने अपने मायके लौटने का फैसला किया—एक ऐसा कदम जिसने हर सामाजिक मान्यता को झकझोर दिया और पूरे समुदाय की नींव हिला दी।
उस जमाने में स्त्रियों से यही अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने पति के साथ खड़ी रहें, जीवन के हर थपेड़े को बिना किसी शिकायत के सहन करें। लेकिन युमदासी उस विवाह में रहने को तैयार नहीं थीं, जहाँ उसे न तो सम्मान मिलता था और न ही कोई महत्व। मगर जब वह अपने मायके के परिवार के पास लौटीं, तो उसके साहस का स्वागत सम्मान से नहीं, बल्कि तिरस्कार से हुआ। उसके रिश्तेदार स्तब्ध रह गए और उसे वापस अपने पति के पास जाने की हिदायत दी। उनका तर्क था कि एक पत्नी और माँ के रूप में युमदासी का कर्तव्य था कि वह अपने पति के फैसले को स्वीकार करे, उसकी नई पत्नी के साथ रहे और जीवनभर उसकी सेवा करती रहे।
युमदासी के दुखी दिल से यह शब्द उमड़े़-
“युमदासीस लोलितोश आंग मनबोनअ पालापी बालिकु बेरंग गौरचांग
बालिकु बेरंग गौरचांग आली जवानीचु बेरंग दुलुखांग”
(मुझे लगता है कि मेरे माता-पिता पापी हैं। उन्होंने मेरी शादी तब कर दी जब मैं बहुत छोटी थी, और अब मुझे अपनी जवानी में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।)
उन दिनों के समाज ने तय कर दिया था कि एक स्त्री का मूल्य उसकी समझौता करने और बिना सवाल किए बलिदान देने की क्षमता से आँका जाएगा। लेकिन युमदासी का दिल दुख और आक्रोश से भरा था। उसने अपने विवाह और परिवार के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, फिर भी उसे पूरी तरह नकार दिया गया।
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नए सिरे से जीवन शुरू करने और खुद को संभालने के संकल्प के बावजूद, युमदासी के दिल में अब भी अपने पति से सुलह की एक उम्मीद बाकी थी। वह चाहती थी कि शायद वह अपना फैसला बदल दे। लेकिन उसने युमदासी के प्रयासों को ठुकरा दिया, वापसी के हर रास्ते को बंद कर दिया। समाज के कठोर फैसले का बोझ और चारों ओर पसरी तिरस्कार भरी निगाहों ने उसे अकेला कर दिया। वह टूटने की कगार पर थी—एक ऐसा अकेलापन जिसने उसे घेर लिया, जैसे दुनिया उसके खिलाफ उमड़ती लहर बन गई हो, बेहिसाब और निर्मम।
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जब मैं शौंग गाँव गई, तो वहाँ की महिलाओं ने युमदासी की कहानी का एक और रूप साझा किया। उन्होंने मुझे बताया कि जिस्ती पाबंग में, युमदासी अपनी गहरी अकेलेपन से उबरने के लिए एक गिद्ध से बात किया करती थी।
गीत के बोल कहते हैं-
“ईद कांशीरस गोल्डस बदोतोच युमदासी लोश – या कांशीरस गोल्डस आंग मनबोन मातंगीण आ।”
(एक गिद्ध जिस्ती पबांग आया, और युमदासी ने पूछा, ‘क्या तुमने मेरे परिवार को देखा है?’)
कहानी के अनुसार, इस घटना के बाद, युमदासी पबांग की चोटियों को पार करके अपने घर ब्रुआ लौट आई और अंततः अपनी जान ले ली।
क्या हम सही सवाल पूछ रहे हैं?
किन्नौर में हम सभी ने यह कहानी सुनी है, लेकिन हम उसकी पीड़ा और निराशा की गहराई को शायद ही समझ सकते हैं। ऐसा दर्द, ऐसा बोझ केवल वही जान सकता है जिसने इसे सहा हो। युमदासी ने अकेले अपने दुःख का भार उठाया— एक ऐसा भार, जिसे वह अब और नहीं सहन कर सकी। फिर भी, जो कुछ भी उसने सहा, उसकी कहानी आज भी उसकी दृढ़ता की गवाही देती है। समाज की कठोर और अन्यायपूर्ण परंपराओं के आगे उसकी यह बहादुरी भी टिक नहीं सकी।
युमदासी का गीत पूछता है-
“युमदासीचू बिपदा सुनचेनिमा याली चेच छांग चू ली ज़ुर्बानआ मागयआ शो चेच छांग चू ली ज़ुर्बानआ मागयआ शो याली सोदाई ता दुःखी चू को यालीमो।”
(युमदासी के जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि लड़की बनकर जन्म ही नहीं लेना चाहिए। मैं लड़की का जीवन नहीं चाहती—क्योंकि मैंने इसे जिया है, इसे सहा है, और इसे पार कर चुकी हूँ।)
मैं मानती हूँ कि गीत का यह वाक्य युमदासी के साथ हुए अन्याय के प्रति वास्तविक आक्रोश से उपजा हो सकता है, मगर मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मैं एक स्त्री होने पर गर्व महसूस करती हूँ। फिर भी, जब मैं इस गीत में ये शब्द सुनती हूँ, तो खुद से सवाल करने लगती हूँ: क्या एक लड़की के जीवन को ठुकरा देना चाहिए, या उसके साथ जुड़े दमनकारी सामाजिक अपेक्षाओं पर सवाल उठाना चाहिए?
युमदासी की कहानी उसकी मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हुई। उसकी विरासत आज भी जीवित है, यह याद दिलाने के लिए कि साहस केवल संघर्ष करने में नहीं, बल्कि खुद को महत्व देने में भी है— चाहे समाज कुछ भी कहे। उसकी कहानी हमें सिखाती है कि किसी स्त्री का मूल्य केवल उसके सहनशीलता या दूसरों की सेवा में नहीं, बल्कि उसके अपने चुनाव करने की स्वाधीनता और निर्णय लेने के अधिकार में निहित है। उसकी आत्मा आज भी किन्नौर की पहाड़ियों में गूंजती है, उन गीतों में जो उसे याद करते हैं, और उन दिलों में जो उसकी कहानी सुनते हैं। हर प्रतिरोध की कहानी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नई राह बना सकती है।
शौंग गाँव में मैंने युमदासी के साथ रतन सिंह और उनके परिवार द्वारा किए गए व्यवहार के बारे में स्थानीय लोगों के बीच एक अजीब चुप्पी पाई। कोई भी, विशेष रूप से महिलाएं, उनके बारे में कोई सवाल या आलोचना नहीं उठाती थीं। यह चुप्पी इस बात का संकेत हो सकता है कि शायद रतन सिंह समुदाय में एक शक्तिशाली और सम्मानित व्यक्ति के रूप में देखा जाता था, क्योंकि युमदासी के साथ उनके व्यवहार के बावजूद किसी ने भी उनके खिलाफ कुछ नहीं कहा। फिर भी, जबकि रतन सिंह को सम्मान प्राप्त था, युमदासी को एक साहसी और मजबूत महिला के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने समाजिक अपेक्षाओं का सामना किया।
रतन सिंह और युमदासी की अलग-अलग कहानियां समाज की गहरी जमी हुई मान्यताओं, शक्ति और लिंग-भेद आधारित भूमिकाओं को दिखाती हैं। युमदासी की बहादुरी किन्नौरी लोकगीतों में आज भी जिंदा है, जहाँ उनके साहस का जश्न मनाया जाता है। वहीं, रतन सिंह की विरासत बिना किसी सवाल के स्वीकार की जाती रही, भले ही उन्होंने युमदासी को कष्ट दिए हों। उन्होंने आठ शादियाँ कीं, जो उनके पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाता है, लेकिन उनकी आलोचना कभी नहीं हुई। उनकी माँ की युमदासी के प्रति क्रूरता और उस समय की कठोर लिंग-भेद आधारित भूमिकाओं पर भी समुदाय ने कोई सवाल खुलकर नहीं उठाया।
लोकगीतों में आज भी जिंदा है, जहाँ उनके साहस का जश्न मनाया जाता
यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है: युमदासी के संघर्ष को शक्ति के प्रतीक के रूप में तो सराहा जाता है, लेकिन कोई यह क्यों नहीं पूछता कि उसे इतने अन्याय का शिकार क्यों होना पड़ा? रतन सिंह की विरासत बिना किसी जांच-पड़ताल के क्यों स्वीकार की जाती है, जबकि युमदासी के कष्टों के कारण बनी परिस्थितियाँ अब भी चुप्पी में ढकी हुई हैं?
जो मुझे इस कहानी और गीत की ओर खींचता है, वह सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि उसकी छोड़ी गई विरासत है। क्या हम सचमुच युमदासी की सहनशीलता को सम्मानित कर सकते हैं बिना उन लोगों का सामना किए जिन्होंने उसे कष्ट पहुँचाया? क्या उसे उसकी बहादुरी के लिए जाना जा सकता है बिना उन सामाजिक मान्यताओं और व्यक्तियों को चुनौती दिए जिन्होंने उसकी पीड़ा को जारी रहने दिया?
Meet the storyteller
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