मुनस्यारी में छिपा मशरुमों का जादू
इस चौमास भर मैंने गोरी घाटी के मुनस्यारी में सरमोली-जैंती वन पंचायत के जंगलों में च्यॉउ यानि मशरूम से नए सिरे से वास्ता जोड़ा है। बचपन से जो मेरे लिए बस ‘गुबरी च्यॉउ ’ हुआ करते थे, अब मैंने 60 से अधिक मशरूम के फ़ोटो खींच उनको नज़दीकी से जानना शुरू किया है। इन मशरूम के जरिए मैं फ़ंगस की दुनिया से वाकिफ होने लगा हूँ- कैसे वो हमारे लिए दोनों पोषक और जानलेवा हो सकते हैं, मानसिक अवस्था को बदलने की शक्ति रखतें है और दवा भी हैं। वे जंगल का इंटरनेट है और उसका भी स्वास्थ्य बनाकर रखते हैं। फ़सग और मशरूम को जानने का यह सिर्फ शुरुआत है क्योंकि इसने हमारे घाटी के कई लोगों की किस्मत तक बदल दी है।
कहानीकार- दीपक पछाई
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़ उत्तराखंड
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तिब्बत बॉर्डर के पास स्थित गोरी घाटी के वन पंचायत सरमोली-जैंती की जैव विविधता पर एक अध्ययन करते समय मैं पिछले पाँच महीने से उन जंगलो में घूम रहा हूँ। मेरी नजर चलते-चलते अनेक प्रकार के मशरुमों में पड़ा और मेरी उनमें रुचि बढ़ने लगी। फिर मैं रोज उनकी ढूंड में जंगल में घूमने लगा। मुझे बहुत प्रकार के मशरुम दिखने लगे और मैं फोटो लेने लगा व फिर लोगों से चर्चा किया। मेरे गांव सरमोली में मशरूमों के जानकार व्यक्ति थियो से मेरी बातचीत होने लगी- पता चला कि कौन से मशरूम इंसानों के किस काम आते है और कौन से जानलेवा भी हो सकते है। और यह भी पता चला कि हर मशरुम के अपने-अपने अलग नाम होते है। वैसे तो मैं बचपन से ही काफी मशरुमों को देखते आ रहा था। मैनें अपने दादी को 7-8 साल पहले कुछ मशरुमों के नाम पूछा तो उन्होंने सभी का नाम गुबरी च्यॉउ बताया क्योंकि कुछ मशरुम होते है जो गोबर में उगते है। मेरे दिमाग में कई सालों तक वही बात टिकी रही कि सारे मशरुम गुबरी च्यॉउ ही होते है। हिमालय के हमारे इलाके में मशरूम को च्यॉउ कहते हैं। फिर मशरुम के बारे में मैनें खास जानने का कोशिश नही किया।
मैंने इस वर्ष के जुलाई से नवम्बर माह के बीच अपने वन पंचायत के जंगल में ही करीब 60 प्रजाति तक के मशरुमों का फोटो लिए हैं। मशरुम हिमालय क्षेत्र में पाये जाने वाला एक भोज्य पदार्थ है। वैसे तो मशरुम की शुरुआत करीब 1.5 बिलियन वर्ष पूर्व ही हो गई थी। पौधों और जानवरों के पृथ्वी पर प्रकट होने से पहले से ही मशरुम धरती पर उगने शुरु हो गये थे। हालाकि पृथ्वी में 2000 से ज्यादा मशरुम की प्रजाति हैं, पर उनमें से सिर्फ 25 प्रजाति के मशरुम खाये जाते है।
मशरुम एक फ़ंगस किस्म का जीव है जिसमें न पत्ती न फूल होते है क्योंकि यह पौधा नहीं है। इस फंगस का छतरीनुमा हिस्सा जो जमीन के ऊपर दिखता है, वह मशरूम की fruiting body होती है। एक मशरुम के स्पोर (यानि उनके बीज) होते है जो बहुत सूक्ष्म होने के साथ लाखों में होते है जो मशरूम के पक जाने पर उसकी छतरीनुमा फ़्रूटिंग बॉडी से बहुत तेजी से हवा के ज़रिये फैल जाते हैं व किसी अनुकुल स्थान पर पहुँच कर उगने लग जाते हैं। हिमालय में मशरुम कॉनिफर, यानि चीड़, सुराई, देवदार व रागा जैसे जंगलों में और नमी वाले स्थानों में ज्यादा पाए जाते हैं।
जंगल में घूमते हुए मैंने देखा कि कुछ मशरुम हैं जो बांज के सड़े पत्तियों व अन्य सड़े पेड़ों में उगे रहे थे। मृत जीवों को अच्छे से सड़ाने से उनके उर्वर तत्व जंगल में उग रहे पेड़-पौधों के लिए खाद व पोषण के काम आ जाते हैं। इसे मृतोपजीवी मशरुम (Saprophytic Fungus) कहते है।
कुछ तो ऐसे मशरुम होते हैं जो उतीस जैसे पेड़ों की जड़ो में और दलहन- जैसे हमारे यहां उगने वाले राजमा व फलीदार पौधों की जड़ों में पाए जाते हैं। यह सूक्ष्म फंगस पेड़-पौध के साथ मिल कर जीते हैं व एक दूसरे की मदद करते हैं। इन्हें सहजीवी मशरुम (Symbiotic Fungus) कहते हैं।
और कुछ ऐसे भी मशरुम के बारे पता चला जिसके बारे सुनकर मैं खुद भी हैरान हो गया क्योंकि वे दूसरे जीवों को इस्तेमाल कर उन्हें मार डालते हैं। ऐसों को परजीवी मशरुम (Parasitic Fungus) कहते है जिसकी अत्यन्त रोचक प्रजाति कॉर्डिसेप्स कहलाती है। कॉर्डिसेप्स का एक किस्म चींटियों के शरीर में प्रवेश करने के बाद उसके दिमाग में ऐसे छा जाता है जिससे कि वह चींटी को किसी पौधे के टूक (चोटी) पर जाने को मजबूर कर देता है। वहां से चमगादड़ बड़ी आसानी से उसे नोच कर खा लेता है। यह कॉर्डिसेप्स की इस प्रजाति को अपने जीवन-चक्र पूरा करने के क्रम में अति आवश्यक होता है जिसके लिए चींटियों को अपनीजान का बलिदान देने पर वह मजबूर कर देता है। चींटी ही क्या, सुना है कि मैजिक मशरूम तो इंसानों के मानसिक अवस्था तक बदलने की शक्ति रखते है।
मशरुम को जंगल का इंटरनेट भी कहते है। मशरुम की जड़े, या यूं कहिये उसका जो जाल (माइसीलियम) होता है वह जमीन के अन्दर फैला होता है, जो पेड़-पौधों को एक-दूसरे के साथ सर्म्पक कराने में मदद करता है। मशरुम खेतों में खाद बनाने के कार्य व भूमि को उपजाऊ करने के साथ हमारे खाने की चीजों में भी उपयोगी है। डबलरोटी यानि ब्रेड को फूलाने व खमीर चढ़ाने के लिए यीस्ट (जो एक फंगस है) का सदियों से प्रयोग किया जा रहा है। मशरुमों से पेनिसिलिन नामक दवाई भी बनता है।
ज़ाहिर है कि मनुष्यों के जीवन में भी मशरूम उतने ही व्यापत हैं। वैसे तो मुनस्यारी के पहाड़ी समाज में अक्सर लोगों का मानना था कि मशरुमों को शिल्पकार (दलित) लोग ही खाते है। यह भी कहते है कि कुछ पंडित लोग मशरुमों को नही खाते है क्योंकि उनको लगता है कि यह भी एक मांसाहारी भोजन है जिसे खाने से वह इंकार करते हैं। पर मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। मेरे पड़ोसी जंगल से खाने वाले मशरुमों को लेकर जब हाल में आये थे तो उन्होंने हमें भी कुछ दिए जिसे हमने भी पका कर खाया।
गोरी घाटी के भेड़ व बकरीपालक जंगलों में मशरुमों को खाते हैं और अक्सर घर लाकर उसे सूखाते है व बेचते भी हैं। मुनस्यारी के भोटिया समाज अपनी परम्परा अनुसार दारू व जान बनाने के लिए एक फंगस/मशरुम का उपयोग आज भी करते हैं। गांवों घरों में बाल्मा (यीस्ट) की टिक्की बनाई जाती जिसे कूट कर इस्तेमाल किए जाने वाले अनाज में डाला जाता है और उसे ferment/ पकाने का काम कर उसे जान व दारु बना देता है।
गोरी घाटी के निचले हिस्से में (5000 फुट तक) जहां गर्मी थोड़ा ज्यादा होता है वहां लोग धान की खेती करते है। उन धान के खेतों में बहुत मशरुम उग जाते है जो छतरी के तरह दिखने वाले होते हैं। जिसे लोग तोड़ कर अपने घर लेकर उसे पका कर खाते है। व उसे अन्य लोगों को भी बेचते हैं।
हमारे गांव सरमोली में (7800 फुट पर) चौमास के समय क्या होता है कि जब भी मौसम खराब होता है और बादल गरजते हैं, तो उस समय खाने वाले मशरुम जंगलों में ज्यादा उगते है- ऐसी हमारी सोच है। क्योंकि बिजली के कड़कने से नाइट्रोजन उपलब्ध हो जाता है जो मशरुमों को उगने में मदद करता है। जब भी बिजली- बादल गरजते है तो लोग उसके दूसरे या तीसरे दिन जंगलों में जाते हैं और सूखे पेड़ों व नमीदार जगह में खाने वाले मशरुम को ढूढ़ के लाते है व उसको पका के खाते हैं। कुछ उसे बेचते भी है क्योंकि उससे थोड़ी बहुत आमदनी भी हो जाती है।
जहां मशरूम हमारे जीवन में दीवनदायी है, वहीं वह जानलेवा भी हो सकते हैं। दो साल पहले की बात है- मैं और मेरे कुछ साथी मुनस्यारी से करीब 10 कि.मी. ऊपर थामरी कुण्ड (9000 फुट के आस पास) के जंगल में गये थे जो कि एक घना और पुराना जंगल है। वहां हमने खाने वाले मशरुमों को ढूंढा और करीब 8 किलो तक मशरुम को लेकर घर लौटे। पर जब रात को मेरे पापा ने मशरुम को खाने के लिए पकाया तो खाते समय सभी डर गये और पके-पकाए हुए मशरुम को फेंक दिया। मन में शक पड़ गया कि कहीं मशरुम जहरीला न हो और हमें मशरुमों की उतनी जानकारी नहीं थी।
कई बार जानकारी होते हुए भी भयंकर भूल हो जाती है। आज से करीब 25 वर्ष पहले की बात है। कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले के सतोली गांव (जो मुक्तेश्वर में पड़ता है) में एक डॉक्टर और उनका परिवार रहता था। उनकी पत्नी पर्यावरण के मुद्दों पर काम करती थी और साथ में उनकी एक 4 साल की बेटी थी। उनके घर में एक नेपाली व्यक्ति काम करता था जो मशरुम का अच्छा जानकार भी था। किसी और दिन के जैसे वह चीड़ के जंगल से मशरूम बटोर कर घर ले आया। शाम को दिल्ली से आए मेहमान के लिए डॉक्टर की पत्नी ने उन मशरुम को मक्खन में पकाया। तलते-तलते खुद भी खाने लगी और एक कटोरे में पकाए हुए मशरुम को मेहमान के सामने रख दिया। छोटी बेटी ने मजे से उस कटोरे से काफी मशरुम खा लिए। वह मशरुम अमानिटा प्रजाति के थे, जिसे जानकारी होते हुए भी पहचानने में गल्ती कर दी। तीन दिन में सभी कोशिसों के बावजूद उन्हें खाने के कारण डॉक्टर की बेटी व बीवी दोनों की मौत हो गई। डॉक्टर व उनके मेहमान आपस में बातचीत में व्यस्त होने के कारण मशरूम को नहीं खाया था और वे बच गये।
मशरूम के बारे में जैसे मेरी जानकारी बढ़ी तो पता चला कि मशरुम कितने ज़हरीले होते है। खासकर ऐसे मशरुम जिनके तने में एक गोल झालर सी होती है। अगर आप अपने हाथों से भी उनको पकड़ते है, तो अपने हाथों को अच्छे से धो ले क्योंकि उसका मामूली सा अंश अगर आप के मुँह में चला गया तो वह जानलेवा होता है।
बिना जानकारी के मशरुमों को हमें नही खाना है और छूना भी नही है। ऐसा एक मशरूम है जिसका नाम डैथ कैप है, यानि कि मौत की टोपी और वह बहुत ज़हरीला व जानलेवा है।
पर कुछ ऐसे मशरूम हमारे जंगलों में मिलते हैं जो हज़ार रुपये किलो तक बिकते हैं। गुच्छी (मोर्चेला) मशरुम पहाड़ो के घने जंगल यानी नमीदार व चीड़ के जंगलों में ज्यादा पाया जाता है। यह खाने में भी बहुत स्वादिष्ट है। इस मशरूम को पहचानना सरल है और उसकी ऊंचाई करीब 8-10 सेमी. होती है और यह कही पर एक गुच्छे में तो कही पर एक-दो में मिलते हैं। लोग क्या करते है कि गुच्छी मशरुम को सूखा कर उसकी माला बनाते हैं व उसे बेचते हैं। इंटरनेट पर मैंने चेक किया तो सूखी गुच्छी की कीमत रुपये तीस से पचास हजार प्रति किलो तक है। गुच्छी मशरुम स्वास्थ के लिए भी लाभदायक माना जाता है। इसमें अन्य मशरूमों के जैसे प्रोटीन, फाइबर, आयरन व कई प्रकार के विटामिन पाए जाते हैं।
इससे भी एक और चमत्कारी मशरूम जो हमारे घाटी में लोग इक्ठ्ठा कर बेच रहे हैं जिसे हम ‘कीड़ा जड़ी’ या यरसा गोम्बू बुलाते हैं। यह कीड़ा जड़ी मशरुम (कॉर्डीसेप्स साइनेसिस) और एक कैटरपिलर है जिसने लोगों की किस्मत बदल दी। पर इसकी अपनी कहानी है जो मैं किसी दिन आपको अपनी अगली कहानी में बताना चाहूंगा।