
किन्नौर के पारंपरिक आभूषण कारीगर
कहानीकार- प्रमिति नेगी
रिकांग पिओ, जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश
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मैं अक्सर अपनी आमां को मज़ाक करते हुए पूछती हूँ-
“आमां मेरी शादी में अपकी मां के दिए दागलो (चांदी के कड़े) मुझे दोगी?”
वो मुझे टालकर कहती है-
“जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी तो दे दूंगी, फिलहाल तो वो मेरे ही हैं।”
मैं किन्नौर की निवासी हूँ, जो हिमाचल प्रदेश का एक समृद्ध कलात्मक ज़िला है। यहां के पारंपरिक आभूषण बेहद खूबसूरत और विशिष्ट हैं। किन्नौर की संस्कृति, इतिहास और अर्थव्यवस्था से पारंपरिक आभूषण और उनके निर्माता गहरे रूप से जुड़े हुए हैं।

मैंने बचपन से अपने आस पड़ोस की महिलाओं को तीज- त्यौहार के समय पारम्परिक वेशभूषा में सज संवर और दिल खोल कर नाच-गाने में शामिल होते देखा हैं। जैसे जैसे बड़ी हुई तो इन गहनों और किन्नौर के संस्कृति के प्रति मेरे अन्दर एक आकर्षण उत्पन्न होता गया। आकर्षण का कारण केवल इनकी सुंदरता और इन्हे पहन कर खुद को सुन्दर महसूस करना ही नहीं बल्कि आभूषणों के पीछे के भावनात्मक मूल्यों का एहसास भी था। शादी के समय परंपरागत तौर पर लड़की के मायके वालों से उसे कुछ आभूषण दिए जाते है, जैसेकि कोंटाई, बिथरी और गुर शांगलांग । ससुराल से भी गहने दिए जाते हैं पर मां के घर से दिए गए आभूषणों की बात कुछ और है। नवजात शिशु को उसके नानी व मापो (ननिहाल) के परिवार वालों द्वारा दागलो (चाँदी के कड़े) दिए जाते है। बहू-बेटियों को विरासत में मिलने वाले पुश्तैनी गहने जिसे न जाने उस परिवार की कितनी पीढ़ियों ने पहना हो, अपनी एक अलग ही कहानी बताते है। औरत के गहने उसके आर्थिक सुरक्षा का आखरी ज़रिया माना जाता है।

जितने स्नेह से एक महिला अपने गहनों को पहनती है, उस से कई गुना अधिक प्यार से गहनों को अपने हाथों से तराशते है कानम गांव के पारम्परिक जौहरी पदम् सोनी और उनके भाई भगत सोनी। दोनों भाई अपने कार्य में बहुत हुनर रखते हैं। उनके पास दूर दूर से अभूषण बनाने की मांग आती है। देवता और मंदिरों के बड़े काम भी उन्होंने किए है। अपने दाक्पो के साथ का रिश्ता भी उन्हें बहुत प्रिय है और अच्छा काम करते रहने के लिए प्रेरित करते हैं। किन्नौर में दाक्पो एक ऐसी प्रथा है जिसके तहत एक कारीगर की कई पीढ़ियां एक परिवार के साथ जुड़ी रहती है। गांव में एक कारीगर के कई दाक्पो हो सकते हैं।

समय के साथ दोनों भाइयों ने कई आधुनिक तकनीकों को अपनाया है। बहुत से हाथ से किए जाने वाले काम अब मशीन के सहारे से आसान हो गए हैं। उन्होंने अपनी गहनों की दुकान लगाई थी परन्तु कई बार उसपर ताला लगा वो अपने दाक्पो‘ व कुछ लोगों द्वारा ऑर्डर पर घर की चार दिवार के अंदर ही काम करतें हैं।
पदम् जी का कहना था-
“हर कोई हमारे काम को नहीं समझ पाता।”
उनके काम के महत्त्व को समझने के लिए किसी एक कलाकृति को बनाने में लगने वाली सारी मेहनत और समय का एहसास होना ज़रूरी है। कहते हैं कि हीरे की परख तो जौहरी ही कर पाता है। लेकिन ख़ुशी की बात है कि पदम् और भगत सोनी अपने हुनर के दम पर आज बेहतरीन कार्य कर रहे हैं और लोगों की सराहना एवं इज़्ज़त कमा कर रहे।
किन्नौर के कारीगरों के सामने अवसर और चुनौतियां दोनों खड़ी है। मेरा यह वीडियो इनमें से कुछ पहलुओं की सतह को खंगालने की कोशिश करता है।
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