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माटी के रंग – हिमालयी जड़ी बूटियों व पेड़ों से ऊन की रंगाई

लेखिकाः बीना नित्वाल

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मेरा जन्म भोटिया परिवार में बागेश्वर जिले में हुआ। भोटिया समुदाय ऊनी कारोबार, भेड़ पालन के लिये प्रसिद्ध थे और कहा जाता था कि पूरे कुमांउ के ऊनी वस्त्र यहीं से जाते थे। मैंने बचपन में ज़्यादा खेती करना सीखा था क्योंकि हमारे पास काफी खेत थे। मैंने अपनी माँ से ऊन की प्राकृतिक रंगाई के बारे में सुना तो था पर शादी के बाद मैं जब मुनस्यारी में सरमोली आई, तभी जाकर खुद रंगाई व बुनाई का काम करने लगी। जब हम लोग रंगों के लिये पेड़ के पत्ती, फल के बखल,  जड़ी बूटी के जड़ को देखते हैं तो इनको देखने से लगता नहीं कि इन वनस्पतियों से कितने  प्रकार के रंग निकल सकते हैं और इनको दवा के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता है। फिर सोचती हूँ प्रकृति हमारे लिये कितनी उपयोगी है जो हर तरह के चीज़ों में वह अपना गुण दिखाती है जिन की हमारे जीवन में कितनी ज़रुरत पड़ती है।

सरमोली गाँव से पंचचूली शिखरों का दृश्य।फोटोः बीना नित्वाल

शादी के बाद मैंने अपनी सास को रंगाई करते देखा। उनके जाने के बाद हमारे आस पड़ोस में भी कोई ऊन रंगाने का काम करते नहीं दिख रही थी। दन आसन बनाने वाले लोग सब बाज़ार में खरीदा हुआ कैमिकल रंग वाला ऊन इस्तेमाल करने लगे थे और हमारी पुरानी जड़ी-बूटी, पेड़-पौधों से किये जाने वाले ऊन के रंगाई की कला गायब होने लगी। जबसे मैं हमारे गांव में माटी संगठन में जुड़ी तबसे हम लोग पेड़-पौधों व जड़ी-बूटी से ऊनी तागे को रंगाने की परम्परा को लुप्त होने से बचाने का प्रयास कर रहे हैं।

1962 से पहले हमारे यहां से लोग तिब्बत से व्यापार करते थे। पुरुष बकरियों के साथ जाते थे और महिलायें ऊनी कारोबार करती थीं। पुराने समय में आदमी व औरतें जो भी पहनते थे, वे खुद ऊन से बुनकर बनाया करते थे। पुरूषों के ओढ़ने का पंखी, पहनने के लिये ऊनी कोटपट्टू से बना कोट-पैन्ट और सिर की टोपी सभी ऊन से बनायी जाती थीं। और औरतों की शॉल, कमौल (महिलाओं द्वारा घागरे के साथ पहनने वाली कमीज़) का कपड़ा भी यहीं बुनकर बनाते थे। ओढ़ने व बिछाने का दन आसन तकिया कवर, वह सब ऊन का होता था और सफ़ेद, काला व भनियान भेड़ के ऊन के कुदरती रंगों के साथ मुनस्यारी के पहाड़ो के जंगलों व खेतों में मिलने वाले वनस्पति से निकाले गये पेड़ पौधे व जड़ी बूटी के रंग से रंगा कर बनाते थे।

मुनस्यारी में पुराने समय की महिलाओं के घागरे के ऊपर पहनने काला कौमोल। फोटोः त्रिलोक राणा
बिछाने का राम सरन नैचूरल और कैमीकल दोनों को मिला के एक डिजायन। फोटोः बीना नित्वाल

उस समय खुद की भेड़ बकरी पालने वाले लोग अपनी भेड़ों की ऊन से कारोबार करते थे। जिसके पास भेड़ बकरी कम होती थी तो वे लोग तिब्बत से आने वाली हुनी ऊन को खरीदते थे। यह ऊन दो रंग के होते थे – सफ़ेद और काला। सफ़ेद ऊन को रंगाने के लिये पेड़ पौंधो व जड़ी बूटी का इस्तमाल करते थे क्योंकि वह आसानी से अपने आसपास से मिल जाया करते थे।

अखरोट और शमा जड़ के ऊन के तागें। फोटोः बीना नित्वाल

उन दिनों गांव घरों के नज़दीक बाज़ार नहीं था जिसके कारण मुनस्यारी में कैमिकल रंग नहीं मिल पाते थे। यहाँ की महिलाएं खुद जड़ी बूटी से अनेकों रंग से ऊन की रंगाई का काम किया करती थीं।

भनियान रंग (हलका भूरा से गहरा ब्राउन) के लिये अखरोट के बख्ल (फल के ऊपर का छिलका) व एक समय तक अखरोट की जड़ का भी इस्तमाल किया जाता था। सीज़न के हिसाब से ऊन का तागा रंगाया जाता था। बसन्त में निकले अखरोट की ताज़ी पत्तियों से अनोखा हरा रंग निकलता है और सावन में उसी के फल के बख्ल से बनाये रंग की गहराई ही कुछ और है। जड़ी बूटी से ऊनी तागा या कपड़ा रंगाते समय कोई कैमिकल का इस्तमाल नहीं किया जाता था। पीले रंग में ऊन को रंगाने के लिये शमा जड़  को खोदा, उसे पानी में धोया, जड़ को कूटा, फिर कुटी हुई जड़ को पानी मे चूल्हे में आग जला कर गरम करके उबाला, जड़ का कलर पानी में आने तक लगभग एक घण्टे तक उबाला जाता है। उबलने के बाद जड़ और पानी को अलग अलग कर दिया जाता है।

फिर शमा के रंग वाले पानी में ऊन का सफेद तागा गोल लछ्छी बना के डाल दिया। तागे को धीमी आंच में एक घण्टे तक रखना होगा। फिर आग को बुझा,  तागे को ठंडा होने तक रखा जाता है। ठंडा हो जाने पर ऊन को पानी से धो कर छाँव वाली जगह में सूखने के लिये डाल दिया जाता है।

रंगाई करते हुये। फोटोः रेखा रौतेला

पीले रंग के अनेकों शेड उच्च हिमालय के बुग्यालों में पाये जाने वाले ढोलू की जड़, और मुनस्यारी में गांव घरों व खेतों में आसानी से मिल जाने वाले शमा पात की जड़ और किरमोली की जड़ों का ऊन को रंगाने के लिये इस्तमाल किया जाता था। गुलाबी व लाल रंग के लिये मजेठा की बेल के जड़ से निकले रंग से रंगाते थे। इसके अलावा हम उत्तीस की छाल से हल्का गुलाबी और बुरांस के फूल से गेहरा गुलाबी; काफल के छाल से लाल; हल्दी के जड़, हरड़ के फल और गैंदे के फूल से पीला; और नील से नीला रंग बनाने में इस्तमाल करते हैं।

तागे को रंगने के लिये कुछ नियम पुराने समय से बनाए गए थे। जैसे किसी के घर में कोई गुज़र गया हो तो उस घर में रंगाई नहीं करते क्योंकि उस घर में दुःख के दिन चल रहे होते हैं। किसी वस्तु को रंगीन करने से मन में खुशी मिलती है या मन खुश हो जाता है। इस लिये उन दिनो में रंग रंगाने को अशुभ माना जाता है।

कहते हैं कि मुनस्यारी में सड़क 1972 में पहुँच गई थी और उसके साथ बाज़ार भी पहुँच गए। अब लगभग 30-40 सालों से यहाँ के लोगों ने प्राकृतिक रंगाई करना छोड़ सा दिया था क्योंकि यहाँ बाज़ार के आने से लोगों को आसानी से रंग-बिरंगे व बने-बनाये पाउडर के रुप रासायनिक रंग खरीदने के लिये मिल जाने लगे। रंग भी कई प्रकार के थे और चटकीले-भटकीले थे। उस पाउडर में तागे को रंगाने के लिये तेज़ाब का इस्तेमाल किया जाने लगा। बिना तेज़ाब के तागा रंग भी अच्छा नहीं पकड़ पाता था।

जब से मैं माटी संगठन से जुड़ी, मैंने देखा कि महिलाएं फिर से परम्परागत ऊनी कारोबार बढ़ाने लगी हैं।  तब मुझे धीरे धीरे यह पता लगने लगा कि बाज़ार से खरीदे रंग जो हम इस्तेमाल करते हैं उसमें कितने प्रकार के कैमिकल मिले होते हैं। यह भी एहसास हुआ कि कहीं हमारी पुश्तैनी कला लुप्त न हो जाए। वो रंग जो हमारे जीवन में आसानी से हमारे आस पास की प्रकृति से मिल जाते हैं। इस लिये हम लोग इसे बढ़ावा देने में लग गये। इस स्थानीय कला व ज्ञान को बचायें रखने के लिये हम अब जड़ी बूटी के रंगो का इस्तेमाल कर पुराने डिज़ाइनों के साथ साथ नये डिज़ाइनों को बनाने लगे। क्योंकि मुनस्यारी में बहुत रंग बिरंगे पक्षी देखने को मिलते हैं, हमने पक्षी डिज़ाइन के आसन बनाने शुरु किए और जो भी पर्यटक घूमने आते हैं उनको लोकल पेड़ पौधों से रंगाई गई प्राकृतिक रंगो के पक्षी के डिज़ाइनों वाले आसन पसन्द आने लगे। ऊनी सामानों को पारम्परिक और प्राकृतिक तरीके से रंगाये सामानों की बिक्री से हम महिलाओं की आजीविका भी बढ़ने लगी। अब हम लोगों को लगने लगा है कि इस कला को और बढ़ाना होगा क्योंकि यह रंग पर्यावरण के लिये भी नुकसानदायक नहीं हैं। कैमिकल रंग बन्द हो जाने पर भी हमारे रंगाई का काम कभी बन्द नहीं होगा क्योंकि यह रंग हमारे पहाड़ की प्रकृति में पाये जाते हैं और आसानी से मिल जाते हैं।

मैं और मेरे साथी आज अपने बुजुर्गों से पूछ कर इस कला को लुप्त होने से बचाने के काम में लगे हैं। पर यह परम्परा आगे भी चलती रहे, हम इस कोविड के लॉकडाउन के दौर में गांव के बच्चों को भी प्राकृतिक रंगाई सिखा रहें हैं और आने वाली नयी पीढ़ी इस कला से अपनी आजीविका का स्रोत भी बना सकती है।

बच्चों के साथ रंगाई करते हुये। फोटोः मलिका विर्दी

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Himalayan Ark is mountain community owned and run tourism enterprise based in Munsiari, Uttarakhand. They enable and guide deep dives into rural lives and cultures, as well as in natural history and high mountain conservation initiatives and adventures. in the past 2 years spotlighted stories in the written word, through photo and video stories from across the Indian Himalayan Region.

हिमालयन आर्क एक पर्वतीय समुदाय द्वारा स्वामित्व और संचालित पर्यटन उद्यम है, जो उत्तराखंड के मुनस्यारी में स्थित है। पहाड़ी ग्रामीण जीवन और संस्कृतियों के साथ यह पर्यटन कम्पनी प्राकृतिक इतिहास और उच्च पर्वतीय संरक्षण पहलों और रोमांचक अभियानों में गहन अनुभव प्रदान करने और मार्गदर्शन करने का कार्य करता है।

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