Biodiversity,  Uttarakhand,  Written (Hindi)

चौमास के फूल- हिमालय की स्थानीय कहानियां

उत्तराखंड हिमालय के गोरी घाटी में स्थित सरमोली-जैंती वन पंचायत के माध्यम से कम जाने-पहचाने फूलदार वनस्पतियों के एक फ़ोटो-यात्रा पर निकलें, जिनमें से प्रत्येक में स्थानीय परंपराओं के अनुकूल उनके उपचार और अनुष्ठान शक्ति की कहानियां निहित हैं। इन पौधों के औषधीय से लेकर सांस्कृतिक महत्व तक, स्थानीय समुदाय के जीवन और विविध पौधों के बीच सहजीवी संबंध की गहराई से अपना परिचय साधें। चौमास के महीनों के दौरान खिलने वाले इन जंगली फूलों का फ़ोटो द्वारा दस्तावेज़ीकरण व खोज, इस कहानीकार के लिए महज एक शुरुआत है।

कहानीकार- हर्ष मोहन भाकुनी
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी,
जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड

Read this story in English

जंगल में पाए जाने वाले विविध पौधों की पहचान अक्सर उनके फूलों से किया जा सकता है। पिछले वर्ष मैंने चौमास के महीनों में (बसंत से शरद ऋतु तक) सरमोली-जैंती वन पंचायत में मिलने वाले जंगली फूलों की तस्वीरें लेकर उनका दस्तावेजीकरण करना शुरू किया। यह कार्य मैंने समुदाय संरक्षित क्षेत्र के एक प्रॉजेक्ट के तहत फूलदार पौधों व जड़ी-बूटियों की जैव विविधता को रिकॉर्ड करने के लिए किया। इस अध्ययन के दौरान मुझे पता चला कि गोरी घाटी के लगभग 2200 वर्ग किमी क्षेत्र में वैसे तो 2000 से ऊपर फूलदार पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियां की पहचान की जा चुकी है। गोरी घाटी उत्तराखण्ड हिमालय के बॉडर जिला पिथौरगढ़ में स्थित है। इस घाटी में हमारे वन पंचायत (सुमुद्र तल से 2230 मीटर ऊँचाई) के वनस्पति ठंडा समशीतोष्ण क्षेत्र के वन समूह (Cool Temperate region vegetation type) प्रकार में आते हैं। गांव के लोगों से जंगली फूलों के स्थानीय नाम पूछने पर मुझे उनसे जुड़ी अनेक अनसुनी किस्से-कहानियां पता चली। मुझे ऐहसास हुआ कि एक पौधे की पहचान सिर्फ फूलों से ही नहीं होता। फूलों की पहली पहचान के साथ उन पौधों का हमारे द्वारा उनके इस्तेमाल से जुड़ी कहानियों  भी है। ऐसी एक कहानी मेरी भी है। 

बिन्दी गांव के ऊपर चट्टानों पर खेलते हुए

गर्मियों की छुट्टियां थीं और मैं अपने ममकोट, यानि जहां मेरे नानी- नाना, मामी- मामा और मेरे अच्छे दोस्त रहते हैं, में आया हुआ था। बिन्दी गांव (समुद्र तल से 1320 मीटर ) जो गोरी पार स्थित है- के उस तोक में पहाड़ के तेज ढलान वाले हिस्से के बीचों-बीच है जहां मात्र 5 परिवारों के घर बसे हैं।

हमेशा जैसे मैं उस सुबह उठकर दोस्तों के साथ गाय-बकरी जंगल ले गए। फिर नाश्ता करने तक घर वापस आए और नास्ता खत्म करने के बाद कुछ देर आराम करके फिर जंगल की ओर दिन का खाना लेकर चले गए। 

पहाड़ी के उस ढलान वाले हिस्से में धूप दोपहर के बाद जल्दी ही डूब जाती है। गाय व बकरियों को चरने के लिए खुले जंगल में छोड़कर हम नहाने के लिए नदी में चले जाते, तेज धूप में नदी को रोक कर एक छोटा सा तालाब बनाकर उसमें बैठकर पानी के साथ खेलते रहते और जैसे ही धूप ढलनें लगती, हम तालाब तोड़कर वापस गाय-बकरियों  के पास चले जाते। हम फिर खाना खाते और छोटे पत्थरों को इकठ्ठा करते और मिट्टी का घर बनाते। छोटी सी सड़क बनाकर उन पर पत्थर के गाड़ियों को दोड़ाते दोस्तों के साथ खेल-खेल में समय कब बीत जाता,पता ही नहीं चलता। शाम होते ही गाय- बकरियों को इकठ्ठा कर उन्हें घर ले आते।

पाति (आर्टिमिसिया)

उस दिन मैं जब घर को वापस लौट रहा था तो मैं पत्थरों में फिसलकर गिर गया। मेरा पैर कट गया और काफी खुन बहने लगा। घर पहूँचने के बाद नानी ने घाव में हल्दी लगाकर कपड़े से बांध दिया। कुछ दिनों बाद देखा तो घाव बड़ गया था। गांव से अस्पताल दूर था और मेरा चल कर जाना मुश्किल था। नानी जंगल जाकर पाति  का पौधा लेकर आई और उसके पत्तियों को पीस कर रस बनाकर दुध, हल्दी के साथ मिलाकर एक लेप तैयार कर मेरे घाव पर लगाकर उसे पट्टी से बांध दिया।  इसके असर से घाव जल्द ठीक होने लगा। 

जहां पाति  दवा के काम आती है, उसके फूल साधारण और अपने पत्तों जैसे रंग के होते हैं। कई और फूलदार पौध हैं जो हम इंसान अपने रोजमर्रा जीवन में प्रयोग करते हैं। कुछों के सूक्ष्म फूल जो आमतौर पर जरूरत पड़ने तक झलकते नहीं। और कई पौध जिनका हमारे जीवन के अनेक पहलुओं में महत्त्व रखते हैं। लोगों का कहना था कि जब बाजार से कम और जंगल पर हम ज्यादा निर्भर थे तो ज्वर, पेट दर्द, सांस चढ़ना आदि बिमारीयों में इन्हीं जंगल से प्राप्त पौधे दवा का काम करती थीं। 

पाषाण भेद (बर्जेनिया)

जंगल में खड़ी  चट्टानों में उगने वाला पाषाण भेद  के हल्के गुलाबी फूल बसन्त ऋतु के आने का संदेशा लेकर आते हैं। इस पौधे का स्थानीय नाम घी पाति  है और यहां की संस्कृति से जुड़ा है। अगस्त के महीने में जब घी त्यौहार मनाया जाता है तो हम अपने पूर्वज और पित्रों को इसके पत्तियों में शोगुन (खाना) रख कर चढ़ाते हैं। 

पाषाण भेद चट्टानों के दरारों में उगते हुए पाया जाता है, और शायद इस लिए इसके जड़ पथरी के रोग के इलाज में कारगर माना जाता है। हमारे गांव-घरों में इसके जड़ को कूट, पानी में उबाल और उसे छानने के बाद पीने से पेचिस का इलाज किया जाता है।

बज्रदन्ती (पोटेंटटिला)

बज्रदन्ती  नाम से इस पौधे की पहचान होती है क्योकि जैसा नाम वैसा काम। स्थानीय भाषा में इस पौधे को बिला खुटी  भी कहते है। यहाँ के घुमन्तु समुदाय अपने मवेशी व भेड़ लेकर अक्सर जंगलों में दूर-दूर तक जाया करते थे। उनके पास दाँत साफ़ करने के लिए अन्य किसी प्रकार का मंजन उपलब्ध नहीं था। तब बज्रदन्ती  के जड़, जो बिल्ली के पंजे के भाँती दिखाई देता है, को खोदकर निकाला और मंजन के रुप में इस्तेमाल करना सिखा। इसे पेट के दर्द को कम करने के लिए दवा के रुप में प्रयोग किया करते थे और इसे औषधी के रुप में नयी पहचान मिली। 

झांकारा (फ़ैगोपायरम)

झांकरा  का पौधा पहाड़ो में अक्सर खेतों के किनारें में पाया जाता है और चौमास में उसके झालरनुमा सफेद फूल खिलते हैं। लोग झांकरा  के पत्तियों को अपना आहार बनाते और अपने पालतु मवेशी को भी खिलाते हैं। पर ज्यादा खिलाने से बुखार भी आ जाता है।

भीं काफल (फ़्रेगेरिया / स्ट्रॉबेरी)

जब कभी हम जंगल में घूमने जाते हैं तो हम भीं काफल  के मीठे-मीठे लाल फल जमीन पर उगते हुए ढूँढते और उन्हे मजे से खाते है। इंसानों के अलावा चीटियाँ भी इसे पसंद करते है और इसके आस-पास अपने घर को बनाते हैं। भींकाफल  के फूल कोमल सफेद होते हैं।

काकोली (रॉस्कोइया)

काकोली के पौधे को हम बचपन में बत्तख फूल बुलाते थे जो घर के आने जाने के रास्तों व जंगल में अक्सर पाया जाता है। हम इसके हल्के बैंगनी पंखुरूयों को तोड़कर बत्तख जैसा रुप बनाते थे। इसके नये फूल को खाने पर मिठा-मिठा स्वाद आता है। काकोली के पौधे के जड़ शक्तिवर्धक दवा के रुप में इस्तेमाल किया जाते हैं। इसके जड़ को सुखा कर इसके चूर्ण को चवनप्रास में मिलाकर व दवा के रुप में खाया जाता है। 

वन मण्डुआ (बिस्टॉर्टा)

वनों के खुले मैदानी इलाकों में वन मण्डुआ  के पौधे चौमास के माह के अन्तिम महीनों में अक्सर एक सुर्ख लाल रंग की बिछी हुई चादर जैसे दिखाई देती है। हमारे पूर्वज इसके जड़ का इस्तेमाल चाय बनाकर पीने में करते थे। आज भी चाय के शौकिन लोग इस पौधे को ढूँढ कर इसकी चाय बनाकर पीते हैं क्योकि माना जाता है कि यह शरीर के दर्द निवारक के रुप में अति लाभदायक है।

वन तुलसी (ऑरिगानो)

घर की तुलसी की तरह वन तुलसी  भी बहुत महक बिखेरती है। जंगली वन तुलसी जंगल के बीच व घास के मैदानों में उगता पाया जाता है। यह पौधा न केवल पहाड़ों में चाय में इस्तेमाल करते है बल्कि पाश्चात्य खाने जैसे पीट्जा में ज़ायके के रुप में डाला जाता है। दो दशक पहले जब पहाड़ों में ऐलोपैथिक दवा बाजार से आसानी से नहीं मिला करती थी, तब इसे वर्षा ऋतु में हाथ व पाँव के अंगुलियों पर होने वाले कातू  रोग या सफेद रंग की फंफूदी की तरह के रोग के उपचार में प्रयोग किया जाता था। पत्तियों को पीसकर बन तुलसी का रस निकालकर उस स्थान में लगाया जाता है जिससे काफी आराम मिलता था।

वन हल्दी (कॉटिलिया)

वन हल्दी के पौधे को स्थानीय लोग सिर्रु  के नाम से जाना जाता हैं। जंगल में बड़े पेड़ों के छाए व नमीदार जगह पर उगने वाले इस पौधे के सुरज के जैसे पीले फूल चौमास में चमकते हुए दिखते हैं। मुझे पता चला कि इनके जड़ को कुटकर, पानी के साथ घोल बनाकर एक हफ्ते तक पीने से पेट दर्द ठीक हो जाता है। जब हमारे गांव में कच्चे मकान हुआ करते थे तो इनका पत्तियों समेत पूरा पौधा छत में डाला जाता था ताकि बारिश का पानी घर के अन्दर न आ पाये। आज के दिन सिर्रू का जड़ जंगलों से इक्ठ्ठा कर, उसे धो, पतला-पतला काटकर कर सुखाया जाता है। ठेकेदार गांव आकर इस सुगंधित जड़ी को लगभग पचास रुपए किलो के हिसाब से खरीदते हैं।

वन तम्बाकू (वर्बैसम/ मुलिन) 

वन तम्बाकू को स्थानीय भाषा में इसे भालु तमाक  कहते हैं जो हमारे खेतों और जंगलों मे खुले मैदानों में दो दशक पूर्व तक काफी अधिक मात्रा में पाया जाता था। लेकिन अब यह पौधा लगभग गायब हो चुका जिसका एक कारण बढ़ता तापमान और जलवायु परिर्वतन हो सकता है। कहा जाता है कि इसका प्रयोग जानवरों के ‘अन्याल’ रोग (दिखाई देना बन्द हो जाना)के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है।  पौधे के पत्ते को पीसकर इसके रस को जानवरों के आँख में डाल दिया जाता है जिससे रोग ठीक होने लगता है।

अरेल स्यून ( स्टिंगिंग नेटल) 

अरेल या स्यून बूटी के फूल न तो देखने में सुन्दर हैं और न तो छूए जा सकते हैं। इसी लिए इसे बिछू बूटी  भी बुलाया जाता है। पर इनके तने के रेशों से कपड़े बनाये जाते। पहले इसके तने को पानी में 1 हफ्ते तक भिगोया जाता है। फिर इसे राख के साथ पानी में पकाकर कुटा जाता है। जब इसके रेशे निकल जाते है तब इसे सुखाकर काड्रिंग मसीन में रेशों से तागा तैयार किया जाता है। अरेल के तागे को रेशम के साथ बुनकर कीमती कपड़े बनाए जाते हैं। 

कुर्री (सायाथुला)

एक और कांटेदार पौधेजिसेशायद ही कोई भूल सके है कुर्री (सायाथुला) की झाड़ है। इस पौधे को घुमन्तु पौधा भी कहा जाता है क्योंकि इसका फल जंगलों में चरते भेड़-बकड़ीयों के खाल व चरवाहों के कपड़ो में मजबूती से चिपक जाता है। कुर्री के कांटेदार फल गोरी के उच्च हिमालय के जोहार इलाके से भाबर के मैदानी क्षेत्र तक पहूंच जाता है। इसका पौधा पूरे हिमालय से तराई तक पाये जाते हैं।

पोत्त (ऐनेफ़लिस)

जहां कुर्री  के पौधे से भेड़पालक बच के चलते है, वहीं पोत्त  के पौधों को गोरी घाटी के लोग अच्छा मानते हैं। इसके सफ़ेद फूलों की भी चादर-सी गोरी घाटी के वनों में सामान्य रूप से देखी जा सकती हैं। ठण्ड व बारीश के मौसम में जंगलों में जब आग जलाने में मुश्किलें आती है तो इस पौधे का काफी महत्व है। भेड़ पालक जब जंगलों में जाते हैं तो वे आग जलाने के लिए पोत के सूखे हुए कागज़ जैसे फूलों व पत्तों का इस्तेमाल करते हैं। पोत्त  के फूल का मुनस्यारी में एक और महत्त्व है। भादों के महीने में और खुंदड़ू त्यौहार के बाद जब घास सुखने लगती है और पहली बार घास का लूटा एक जगह लगाया जाता है तो उसके सिरे को पोत्त  के फूल से सजाए जाते हैं। 

पर मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि पोत्त  के फूलों को मंदिरों में नहीं चढ़ाये जाते।

बच्चों के गले में जंगली सूरजमुखी की मालाएं

हिमालय के पहाड़ी संस्कृति के तहत गोरी घाटी में जंगली फूलों में सिर्फ बुराँशकौलपद्म  या ब्रह्म कमल  और जंगली सुरजमुखी  का फूल मन्दिरों में चढ़ाये जाते हैं। पिछले साल जब मैं अपना बर्तबन (मुन्डन)  कराने छिपला केदार (सुमुद्र तल से 4876 मीटर की ऊँचाई) के मंदिर गया था तो मैंने जंगली सुरजमुखी  की माला पहने अपने साथियों को देखा। किसी अन्य फूल को नहीं चढ़ाया जाता है क्योंकि शायद जंगली फूलों को अशुद्ध माना जाता है। 

वैसे ही पाति  के पौधे से पहाड़ी घरों में आज भी जुड़ा एक अनोखा रिवाज है। जब किसी का देहांत हो जाता है तो उस घर में तेरहवीं तक पाति  की पत्तियों को धूप के रुप में जलाकर इस्तेमाल किया जाता है। 

हैबनेरिया इंटरमीडिया                           स्पाएरैंथस स्पाएरैसल

 हमारे संस्कृति में प्रकृति से प्राप्त संसाधनों का इस्तेमाल करने का एक अलग महत्व है जो हमारे पर्यावरण से जुड़े हुए है चाहे वह पेड़-पौधों, जड़ी-बुटियों या उनके फूलों से या फिर पत्थरों से हो। पर फूलदार पौधों की  प्राकृतिक जगत में अपनी एक अलग दुनिया भी तो है जिसे हम बाहर से बस निहार सकते। मैंने कई ऐसे जंगल में उगने वाले छोटे फूलों की तस्वीर लीं जो मुझे उनके बारे और जानने के लिए उत्सुक बनाते हैं। इन में से कुछ भूमिगत ऑर्किड प्रजाति के फूल हैं जैसे हैबेनेरिया  और स्पाइरैंथस । 

बिगोनिया मेगैप्टेरा                      हाइपेरिकम चौइसिएनम                      स्टलेरिया मीडिया

बिगोनिया  के खुबसूरत फूल जो अब हमारे गांव के लगभग हर घर में गमलों में सजाए हुए मिल सकते है का जंगली रिश्तेदार हमारे जंगल में नमीदार पत्थरों और वन पंचायत की दीवारों में उगते मिले। जहां बसन्ती  या हाइपेरिकम  के फूल सूरज जैसे सुनहरे चमकते है, वहीं स्टलेरिया  के सफेद फूल ऐसे प्रतित होता है जैसे धरती पर तारे उतर आएं हो। जंगली फूल की रंगीन दुनिया आँखों को मोह लेती हैं। बरसात के मौसम में जंगलों में पाए जाने वाले यह सुरभित फूलों को देखकर मैं अपने रोजर्मरा जीवन के संघर्षों को कुछ क्षण तक भूल जाता हूँ। 

कैसे न देखूँ इन रंग-बिरंगे, खिलते फूलों को

कभी खुशियाँ भरते आये जीवन में, कभी शोक मनाते आये जीवन में 

कभी मिले ये सम्मान में, कभी दिये उपहार में……

चौमास के इन चार महीनों में मैंने 58 प्रजातियों के फूलों की फ़ोटो लीं जोकि 24 फूलदार परिवारों से हैं। उत्तराखण्ड हिमालय के नेपाल बॉडर से लगे पिथौरागढ़ जिले के गोरी घाटी में पाए जाने वाले फूलों की खोज में यह मेरी महज शुरूआत है। 

Meet the storyteller

Harsh Mohan Bhakuni
+ posts

Harsh Mohan has spent the 25 years of his life in Sarmoli village, located right across the Panchachuli mountain range and his wish is to stay here for the rest of his life. When he gets a chance, he has the habit of sitting alone in nature, gazing at the mountains and relishing the quietness. Harsh likes watching science fiction films and plays the 'Backi' position in football. His dream is to open his own café one day.

Voices of Rural India
Website | + posts

Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x