
साज़ो त्यौहार- फसलों से जुड़ा एक गहरा नाता
साज़ो एक किन्नौरी त्योहार है, जो वहां के पर्वतीय कृषि परंपराओं से गहरे जुड़ा हुआ है। जब कहानीकार रीतियों, गीतों और भोज से भरे इस उत्सव में शामिल होती है, तो वह इन परंपराओं के अर्थ और प्रासंगिकता पर विचार करती है। क्या ये आवश्यकताओं और जीवन के तरीके से आकारित हुई थीं या यह सिर्फ विश्वास पर टिकी एक परम्परा है? अपने परिवार के बड़ों से बातचीत के दौरान, कहानीकार किन्नौरी कृषि परंपरा और दैनिक जीवन के बीच के रिश्ते को उजागर करती है, यह सवाल उठाते हुए कि कुछ परंपराएँ समय के बदलाव के बावजूद कैसे जीवित रहती हैं?

Storyteller: Isha Dames
Meeru, District Kinnaur,
Himachal Pradesh
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सर्दी अपने चरम पर है। घर के फाटक के बाहर, गुरगुराहटे लगाते छोटे से कूल (नाले) में बहता पानी अब ठंड से जमकर शांत बैठा है। इन दिनों ठंड इतनी तीव्र होती है कि हमारे दाँत एक-दूसरे से कटकटाने लगते हैं। कुछ ही महीनों पहले, हम बर्फ़ से ढके ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को दूर से देखकर सोचते थे कि काश हम वहाँ जाकर खेल पाते। अब हम उस काश को हकीकत में बदलते हुए देख रहे हैं। मौसम बदलने पर हम बर्फ़ पड़ने की उम्मीद में रात को सोते हैं, और सुबह जब सफ़ेद चादर में लिपटी धरती को देखते हैं तो मन खुशी से झूम उठता है।
जनवरी की कड़ाके की ठंड में सुबह के उजाले के साथ रसोईघर से हलवे की मीठी खुशबू आती है और मेरे गांव मीरु में प्रार्थनाओं की धीमी-धीमी आवाज़ गूंजतने लगती है। यह है साज़ो— साल का पहला त्यौहार, जो हर वर्ष 12 और 13 जनवरी को नई उम्मीदों और खुशियों का आगाज़ करता है। यह त्यौहार हमारे जीवन और परंपराओं से गहराई से जुड़ा है, और ठंड की सफ़ेदी से ढके किन्नौर में एक नई ऊर्जा लेकर आता है।
मेरा सुन्दर गांव मीरु हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिला का एक दुर्गम क्षेत्र में बसा है जिला मुख्यालय, रिकांग पिओ से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ की सर्दियाँ लंबी और कठिन होती हैं, लेकिन साज़ो जीवन में उल्लास और उम्मीद भर देता हैं।

बचपन, बर्फ और साज़ो का इंतज़ार
साज़ो मेरे लिए बचपन की अनगिनत यादों का संगम हैं। बचपन से ही जिस तरह मैं यह त्यौहार मनाती आई थी, आज भी यह वैसे ही मनाया जाता है। वही साज़ो का इंतज़ार करना, घर की साफ-सफाई करना, परिवार के साथ बैठकर खुशियाँ बाँटना और अपने पारंपरिक पकवान बनाना— यही सब पहले भी किया जाता था और आज भी किया जा रहा है।
सर्दियों में अधिक बर्फबारी और ठिठुरती ठंड के कारण हमें स्कूलों से दो महीने की छुट्टियां मिल जाती थीं। जनवरी के महीने में उस समय बर्फ़ चार से पाँच फीट तक गिरती थी, जिससे लोगों का घरों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता था। स्कूल से छुट्टी मिलना और साज़ो का बेसब्री से इंतज़ार करना ही हमारे बचपन की सबसे बड़ी खुशी होती थी। छुट्टियों में जब भी बर्फ पड़ती तो लकड़ी और पाइप की स्केटिंग (फिस्लन पट्टी) बनाकर हम खूब खेला करते थे। बर्फ में स्केटिंग खेलकर हमारे कपड़े पूरी तरह से गिले हो जाते थे। मां के डाँट के डर से मैं और मेरा भाई पानठंग (किचन) में चूल्हे के पास बैठकर अपने कपड़े सुखाने लग जाते थे, ताकि मां से डांट न खानी पड़े।

जैसे साज़ो नज़दीक आता, तो घर के सभी सदस्य मिलकर पूरी साफ़-सफ़ाई करते। इसमें पुरुष भी शामिल होते— मेरे पापा और भाई सफ़ाई करने या फ़र्श धोने में हाथ बँटाते। लेकिन जिन घरों में कोई महिला नहीं होती, वहाँ पुरुष ही ये सारा काम संभालते। यह मुझे सोचने पर मजबूर करता है— जब महिलाएँ घर में होती हैं, तो यह उनकी ज़िम्मेदारी क्यों मानी जाती है, जबकि पुरुषों का योगदान ‘मदद’ कहलाता है?
उबाऊ और कठिन काम पानठंग (रसोई) के फ़र्श को धोना लगता था, क्योंकि किन्नौर में अधिकतर लोग ठंड से बचने के लिए लकड़ी के फ़र्श का उपयोग करते हैं। हिमालय के कई क्षेत्रों में लोग लकड़ी से बने घरों को अधिक पसंद इसलिये भी करते है, क्योंकि लकड़ी को एक शुद्ध और प्राकृतिक पदार्थ माना जाता हैं। यह लकड़ी देवदार (सेड्रस देवदारा) के पेड़ की होती है, जिसे हम अपनी किन्नौरी बोली में लिम बौठंग कहते हैं।
आजकल हमारे गांव में भी पत्थर और सीमेंट के मकान ज़्यादा देखने को मिल रहे हैं। देखने में ये मकान सुंदर लगते हैं, लेकिन इनमें ठंड अधिक महसूस होती है। इसी कारण, इनमें रहने वाले लोग अक्सर घुटनों, कमर, पैरों और पीठ के दर्द जैसी समस्याओं से परेशान रहते हैं।

हर साज़ो की सुबह, मां और आपी भोर से पहले उठकर हलवा-पूरी बनाती हैं, क्योंकि इसे देवी-देवताओं को अर्पित करना शुभ माना जाता है। त्यौहारों के दौरान ग्राम देवता— जो पूरे गांव के रक्षक और मार्गदर्शक होते हैं— और किम शू (गृह देवता), जो केवल घर के अपने देवता होते हैं, की पूजा करनी आवश्यक होती है। हर घर के गृह देवता अलग होते हैं और हमारे घर में इन्हें गूंगा किम शू कहा जाता है। परिवार के बुज़ुर्गों का मानना है कि ये देवता पूरे घर-परिवार की रक्षा करते हैं।
पूजा के दौरान धूप जलाई जाती है, और हलवा-पूरी के छोटे टुकड़े कर तीन बार मंदिर की दिशा में फेंके जाते हैं, जिससे ग्राम देवता को स्मरण किया जाता है। इसी विधि से पानठंग (रसोई) के कोने में प्रसाद चढ़ाकर गृह देवता की पूजा भी की जाती है। देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद ही त्यौहार की शुरुआत होती है।

साज़ो और फ़सलें का अनमोल रिश्ता
मेरी आपी (दादी) ने मुझे समझाया, “साज़ो न केवल साल की शुरुआत का दिन है, बल्कि यह उन फसलों के प्रति आभार जताने और आशीर्वाद मांगने का अवसर भी है, जो हमारे जीवनयापन का आधार हैं।”
साल भर खेतों में मेहनत करने के बाद जब फसल काटने का समय आता है, तो हर किसान यही आशा करता है कि उसकी फसल अच्छी हो। इसी कामना के साथ, साज़ो के दिन दोपहर में कू पोले (कोदरे की जलेबी) और तीन प्रकार की दालों— काले चने, काली माह और राजमा— को मिलाकर खिचड़ी बनाई जाती है। इसे सबसे पहले देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता है, और फिर परिवारजन इसे ग्रहण करते हैं।
मेरी आपी–तेते (दादी-दादू) ने बताया कि साज़ो के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा की शुरुआत बेहद साधारण, लेकिन अर्थपूर्ण कारणों से हुई। पुराने समय में, जब लोगों के पास अधिक पैसे नहीं होते थे, वे बाज़ार से चावल खरीदने के बजाय अपने खेतों में उगाई गई प्राकृतिक उपज का ही उपयोग करते थे। लेकिन साज़ो उत्सव का दिन खास होता था— यह वह अवसर था जब लोग अपनी सीमित संसाधनों के बावजूद, त्यौहार का महत्व समझते हुए चावल खरीदते और खिचड़ी बनाकर खाते थे। ठीक उसी तरह जैसे आज हम त्यौहारों पर विशेष पकवान बनाते हैं, उन दिनों खिचड़ी बनाने की परंपरा थी जो आज तक चली आ रही है।
अक्टूबर के महीने में ज़ोद (गेहूं), टिच़ा (नंगा ज़ौ) और टांग (ज़ौ) की बुवाई होती है, जो मई-जून में पककर तैयार होती हैं। इसी महीने मां घर के सामने वाले खेतों में यार (किन्नौरी मटर) भी बोती है, ताकि घर से ही फसलों पर नज़र रख सके। जंगलों से बंदर अक्सर खाने की तलाश में गांव की ओर आ जाते हैं और फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं, इसलिए हमें हमेशा सतर्क रहना पड़ता है। जनवरी में, जब साज़ो का त्यौहार आता है, तो ये फसलें खेतों में लहलहा रही होती हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि आने वाले महीनों में ये फसलें अच्छी तरह बढ़ें और किसी नुकसान से बची रहें। बचपन में, जब जून-जुलाई की छुट्टियों में मैं गांव आती थी, तो लहराती फसलें देखकर ऐसा लगता था मानो साज़ो के दौरान की गई हमारी प्रार्थनाएँ सफल हो गई हों।
पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ वर्शो से अधिकांश लोग खेती पर निर्भर रहे हैं, यह त्यौहार सिर्फ परंपराओं का हिस्सा नहीं, बल्कि ज़मीन और जीवन से गहरे जुड़ाव का प्रतीक भी है।

क्या हमारी आस्थाएँ मिट्टी से जुड़ी हैं?
जून के महीने में जब फसलें पककर तैयार हो जाती हैं, तो मां हमेशा की तरह मुझे मटर चुनने का काम सौंप देती है। आपी के साथ बातें करते और पारंपरिक गाने सुनते-सुनते कब काम पूरा हो जाता है, इसका पता ही नहीं चलता।
मुझे आपी का सुनाया हुआ एक गीत याद है—
“ग पाल्सु छांग हाए, आंग कोरिमंग आंग युम्स”
(मैं एक फूहाल का बच्चा हूँह, और मेरा कर्म मेरे पीछे है।)
“आंग कोरिमंग आंग युम्स हाए, आंग किस्मत आंग युम्स”
(मेरा कर्म मेरे पीछे है और मेरी किस्मत भी मेरे पीछे है।)
यह गीत चरवाहों के जीवन को दर्शाता है— कैसे वे अपने घर-परिवार से दूर रहकर भेड़-बकरियाँ चराते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
मटर चुनते-चुनते आपी ने मुझसे कहा, “साज़ो से कुछ दिन पहले हमारे ग्राम देवता—श्री स्वर्ग राज चरोनी जी, स्वर्ग लोक चले जाते हैं, और साज़ो के दिन वे वहाँ से अनाज, वर्षा और गांव वालों के लिए खुशियाँ लेकर वापस धरती लोक पर लौटते हैं।”
लोगों की मान्यता है कि यदि देवता जी की मूर्तियों के पास घास का तिनका पाया जाए, तो उस वर्ष अच्छी बारिश होती है। वहीं, यदि मूर्तियों के बीच चूहों का कोई मल मिलता है, तो खुबानी (एप्रिकॉट्स) और चूलियों (बेर) की फसल खूब होती है। मुझे यह दिलचस्प लगता है कि हमारे पूर्वजों ने भविष्यवाणियों और विश्वासों को भी फसलों से जोड़ रखा था, जिससे यह साफ दिखता है कि साज़ो और खेती कितनी गहराई से एक-दूसरे से जुड़े हैं। और यह भी कि कभी खेती हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का कितना अहम हिस्सा हुआ करती थी।

साज़ो के दौरन और रोज़मर्रा जीवन में भी, हम अपने घर के पनठांग में बैठकर कुछ भी खाने से पहले, चूल्हे को देवता समान मानकर उसमें भोग चढ़ाते है।

त्यौहार के दिन गांव की सभी महिलाएं, पुरुष, बुजुर्ग और बच्चे पारम्परिक पनावे पहन एकत्रितहोते हैं।किन्नौर की कठोर ठंड को देखते हुए यहाँ की पारंपरिक वेशभूषा मुख्य रूप से भेड़ और बकरी के ऊन से बने वस्त्रों से तैयार की जाती है, जिसे हमारी भाषा में दोहडू कहा जाता है। सिर पर पहनी जाने वाली किन्नौरी टोपी इसका अभिन्न हिस्सा होती है। बिना किन्नौरी टोपी के हमारी पारंपरिक वेशभूषा अधूरी मानी जाती है, क्योंकि यह सांस्कृतिक पहचान दर्शाती है। सब मिलकर कायंग करते हैं जोकिन्नौर का एक पारंपरिक नृत्य है, जिसमें सभी लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर लयबद्ध रूप से धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हैं। यह नृत्य उम्र के अनुसार किया जाता है— सबसे आगे गांव के बुजुर्ग होते हैं, उनके पीछे उनसे छोटे, और सबसे पीछे युवा एवं बच्चे होते हैं।

देवता जी भी इस नृत्य में शामिल होते हैं। वे रोथंग (रथ) पर विराजमान होते हैं, जिसे दो व्यक्ति कंधों पर उठाते हैं। मान्यता है कि देवता जी की मूर्तियों में दिव्य ऊर्जा समाहित होती है और जब उन्हें उठाया जाता है, तो वे हल्के झटकों के साथ ऊपर-नीचे गति करने लगते हैं, मानो प्रसन्न होकर स्वयं भक्तों के साथ कायंग कर रहे हों।
खेतीबाड़ी में, बारिश और बर्फबारी का समय हमारे हाथ में नहीं होता। फ़सल का भविष्य पूरी तरह प्रकृति की अनिश्चितताओं पर टिका होता है। ऐसे में देवी देवताओं की पूजा ही हमें भरोसा बनाए रखने का तरीका देती है। यह हमारी आस्था का एक माध्यम बन जाती है जो हमें इस अनिश्चितता के बीच भी आगे बढ़ने का सहारा देती है।

पहले के समय में खेती केवल आजीविका का साधन नहीं, बल्कि हमारे पारंपरिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। लेकिन आज इसकी मात्रा पहले की तुलना में काफी कम हो गई है। मेरी मां का मानना है कि इसका मुख्य कारण आर्थिक स्थिति में बदलाव है। पहले, पैसों की कमी के कारण लोग अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए खुद के खेतों में अलग-अलग अनाज उगाकर जीवनयापन करते थे। वहीं, आज के समय में लोगों के पास पैसे कमाने के कई विकल्प हैं। रोज़गार और बेहतर अवसरों की तलाश में लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे खेती-बाड़ी पर उनका ध्यान कम हो गया है।
खेती में कमी आने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि यहां के लोग अब सेब को अधिक महत्व दे रहे हैं, क्योंकि इससे आर्थिक विकास के नए रास्ते खुले हैं। किन्नौर की पहाड़ियों के सीढ़ीदार खेतों में पहले गेहूं, मक्का और जौ जैसी फसलें प्रमुख थीं, लेकिन अब सेब मुख्य पैदावार बन गया है। किन्नौर में साल 1700 से 1900 तक भी सेब का उत्पादन होता था, लेकिन उस समय गांवों में सड़क सुविधा उपलब्ध नहीं थी। 1975-76 के आसपास किन्नौर के गांवों तक सड़क पहुंचने से इस क्षेत्र में बड़े बदलाव आए और यह आधुनिकता की राह पर बढ़ा। किन्नौर के रॉयल सेब और गोल्डन सेब की दुनिया भर में एक अलग पहचान है। हालांकि, पहले जो फसलें उगाई जाती थीं, अब बहुत कम लोग उनकी खेती करते हैं।
किन्नौर के रिकांग पिओ की एक निवासी बताती हैं, “किन्नौर के विभिन्न गांवों में सेब के बागान आजीविका का एक प्रमुख स्रोत बन चुके हैं और व्यस्त मौसम के दौरान किसान मजदूरों को काम पर रखते हैं। सेब की खेती से अच्छी आमदनी होती है, जिससे कई लोग आर्थिक रूप से संपन्न हो गए हैं। इसी कारण वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर भेजते हैं। यदि किसी परिवार में कई भाई होते हैं, तो आमतौर पर एक या दो खेती से जुड़े रहते हैं, जबकि बाकी नौकरी या अन्य व्यवसायों में लग जाते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि खेती पूरी तरह से कम हो गई है। लेकिन हाँ, अब लोग अन्य क्षेत्रों में भी कदम रख रहे हैं। आधुनिकता और नए अवसरों की उपलब्धता ने इस बदलाव को तेज कर दिया है।”

जहाँ पहले पारंपरिक रूप से अलग-अलग फसलें उगाई जाती थीं ताकि जीवनयापन के लिए भोजन उपलब्ध रहे, वहीं अब सेब के बागान अधिक प्रचलित हो गए हैं। पारंपरिक फसलें अब उतनी मात्रा में नहीं उगाई जातीं जितनी पहले होती थीं, जिससे खेती की विविधता भी प्रभावित हुई है। यही कारण है कि साज़ो पर्व का महत्व और बढ़ जाता है। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उन बची-खुची पारंपरिक फसलों के साथ हमारे गहरे संबंध की पुष्टि भी है।
जब मैं आपी को लोकगीत गाते और गांव के लोगों को कायांग लगाते देखती हूँ तो लगता है जैसे ये त्यौहार और परंपराएं हमें हमारी मिट्टी से जोड़े रखने की आखिरी कड़ी हैं। लेकिन मन में एक सवाल भी उठता है— क्या दशकों बाद भी हम ऐसे ही इकट्ठे होकर अपनी परंपराओं को जिएंगे, या फिर ये भी सर्दियों की बर्फ की तरह धीरे-धीरे पिघल जाएंगी?
Meet the storyteller
