श्यमार: दलदल में छिपे प्रकृति के जीवनदेही खजाने
सरमोली और शंखधूरा के वन पंचायत में बसे श्यमार सिर्फ एक भूभाग नहीं, बल्कि कहानियों, रहस्यमयी आस्थाओं और दुर्लभ जीवों का जीवंत संसार हैं। यह जलदेवी और एरी-आचरी का वास भी माना जाता हैं। यहाँ के नमी भरे पर्यावरण में तितलियों, पक्षियों और वनस्पतियों की अनगिनत प्रजातियाँ फलती-फूलती हैं। यह किसानों के लिए भी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। श्यमार केवल एक प्राकृतिक खजाना नहीं, बल्कि हमारे सांस्कृतिक, जैविक और आर्थिक ताने-बाने का गवाह है। आखिर क्या है श्यमार के खजाने का राज, और इसे बचाने के लिए लोग देश-विदेश से क्यों जुट रहे हैं? जानने के लिए कहानीकार के अपने जीवन-अनुभवों से उपजी इस यात्रा में हमारे साथ आइए।
कहानीकार- बीना नित्वाल, फ़ेलो हिमल प्रकृति
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड
Read this story in English
“जै हो सैम देवता!” मेरी माँ, हेमा राणा की आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँजती है, जब भी मैं किसी सैम या श्यमार (आर्द्रभूमि या वेटलैंड) की तरफ कदम रखती हूँ।
वह हमेशा खेत में काम शुरू करने से पहले सैम देवता, हमारे गाँव फरसाली (उत्तराखण्ड के बागेश्वर ज़िले में स्थित) के स्थानीय संरक्षक का नाम लेतीं और हमारी फ़सल की रक्षा की प्रार्थना करतीं।
लगभग 25 साल पहले जब मैं 15 साल की थी, मैं अपनी माँ के साथ श्यमार वाले खेतों में जाया करती थी। मैं उनके पीछे कभी पगडंडियों पर चलती तो कभी गाँव के अंदर से हमारे सात खेतों की ओर चलती। रास्ते में सीढ़ी वाले बहुत खेत दिखते, जो उत्तराखण्ड हिमालय के इन पहाड़ों का एक आम नज़ारा है।। करीब एक किलोमीटर के रास्ते के बाद, हम हमारे खेत पहुँच जाते जिसमें हम धान के साथ भट (सोया) और गेहूं और सरसों उगाया करते थे।
साल 2000 में हमारे गांव में बहुत रूर (सूखा) पड़ा। फसलें पूरी तरह से बर्बाद हो गईं थी।
उस समय माँ ने कहा, “रूर के बावजूद, श्यमार वाले खेतों में फसलें बच गई हैं। वहाँ से उतना अनाज तो मिल ही जाएगा जिससे हमारा गुजारा हो सके।”
माँ हमेशा कहा करती थीं कि अगर श्यमार न होता, तो हमारी खेती भी न होती। बचपन में तो मैं मेरी माँ की बातों को एक कान से सुनती और दूसरे कान से निकाल देती।
लेकिन इस साल, मई के महीने की एक धूप भरी सुबह को, एक छोटे से किस्से ने मुझे इन बातों पर गौर करने के लिए मजबूर किया। मैं मुनस्यारी में स्थित सरमोली गाँव में कुछ पर्यटकों के साथ पक्षी देखने गई थी। हमारे गांव के पक्षी गाइड त्रिलोक राणा हमें एक ऐसे क्षेत्र में ले गए जहाँ उन्हें पता था कि हमें विभिन्न प्रकार की तितलियाँ, पक्षी, पेड़ और घास देखने को मिलेंगे। जब उन्होंने मुझे बताया कि हम श्यमार के करीब थे, तो वो बचपन के खेत, वही कहानियां, और माँ की कही पुरानी बातें मुझे याद आ गई।
मैं सोचने लगी, क्या सच में श्यमार ने हमें बचाए रखा? अगर श्यमार न होता, तो क्या हमारी खेती और जैव विविधता का यह रूप संभव होता? क्यों श्यमार वाले खेतों की फसलें अन्य क्षेत्रों से बेहतर होती हैं? आखिर, श्यमार में ऐसा क्या है जो इसे इतना खास बनाता है?
श्यमार क्या हैं और ये कैसे बनते हैं?
श्यमार के बारे में जानने की उत्सुकता ने मुझे थियो के पास पहुँचाया, जो सरमोली के निवासी और पर्यावरण के गहन जानकार हैं।
उन्होंने बताया, “जैसे हमारी धरती पर नदियाँ, तालाब और झरने होते हैं, वैसे ही श्यमार भी एक प्राकृतिक धरोहर है।”
थियो जी ने समझाया कि श्यमार एक ऐसी भूमि है, जहाँ पानी की मात्रा के अनुसार उसका स्वरूप बदलता रहता है। पानी अधिक हो, तो यह तालाब बन जाता है, और कम हो, तो मिट्टी दिखाई देने लगती है। यह मिट्टी बहुत गीली और मुलायम होती है और बीच-बीच में छोटे गड्ढों में पानी भरा होता है, जो या तो कोई ऊपरी जल स्रोत से या भूजल के रूप में आता है।
मेरे ससुराल का गांव शंखधूरा (जहां मैं पिछले 20 सालो से रह रही हूं) और उसके बाजू वाला गांव सरमोली के वन पंचायत में पेड़ो से घिरी एक सुन्दर जगह है जिसे मेसर कुंड कहा जाता है। कुंड से लगभग 600 मीटर की दूरी पर एक विशाल श्यमार है। इसके साथ कई और श्यमार भी मिलते हैं, जैसे आपस में जुड़े हुए रिश्तेदार। हमारे वन पंचायत के अनेक छोटे कुंडों के बीच स्थित ये श्यमार कभी कुंड हुआ करते थे, लेकिन अब वे धीरे-धीरे भरते जा रहे हैं। यह भराव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जब तक कुंड के भीतर और बाहर पानी का बहाव बना रहता है, कुंड सुरक्षित रहता है। लेकिन यदि पानी के साथ मिट्टी लगातार आती रहे और पानी की मात्रा कम हो जाए, तो धीरे-धीरे वहां घास उगने लगती है, और वही कुंड श्यमार में बदल जाता है।
हिमालय के ऊंचे पहाड़ों में, ग्लेशियरों की गतिविधि, कटाव या हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाओं से धरती में गड्ढे बन जाते हैं। जब बर्फ पिघलती है, तो ये गड्ढे ठंडे पानी से भर जाते हैं और तालाब या झीलें बन जाती हैं। पानी और मिट्टी की मात्रा के अनुसार, यहाँ श्यमार भी बन सकते हैं। मेसर कुंड (समुद्रतल से 2665 मूटर की ऊंचाई) से लगभाग 3 किमी की तीखी चढ़ाई पर बुढ़गेर धार के पास भी ऐसे कई गड्ढे हैं, जहां पानी जमा होता है। ये स्थान हमारे गाय व जंगली जानवरों, जैसे कांकड़, जंगली सूअर और अनेकों पक्षी के लिए पानी पीने और रहने का ठिकाना बनते हैं। लेकिन यदि ये जगहें खत्म हो जाएं, तो जंगली जानवर या तो कम हो जाएंगे या फिर यहां से कहीं और चले जाएंगे।
एक प्राकृतिक धरोहर और जीवन का केंद्र
उस रात, जब मैं सोने गई, तो श्यमार के बारे में सुनी हुई बातें मेरे सपनों में उभरने लगीं। मैं खुद को शंखधूरा के वन पंचायत के श्यमार में चलते हुए देख रही थी। जैसे ही मैंने नरम मिट्टी में पहला कदम रखा, अचानक से मेरा पैर फुस्स करके गीली मिट्टी में धँसने लगा, जैसे कोई अदृश्य हाथ मुझे नीचे खींच रहा हो। जगह-जगह पानी छोटे तलाब जैसे गड्ढों में भरा हुआ था और उनमें मेंढक के अंडे, माला जैसी श्रृंखला में तैर रहे थे। उन्हें देख ऐसा लग रहा था मानों दो-तीन मीटर लम्बी पतली पारदर्शी पाईप में छोटी-छोटी काली बिंदियाँ हो। श्यमार के बीच में छोटे पत्थरों पर हरी स्याल (काई) जमी हुई थी, और किनारे पर घने पेड़ों के बीच से ठंडा पानी बह रहा था। पानी इतना ठंडा था कि छूते ही मेरे हाथ जम से गए।
श्यमार के आस-पास खरसू, तिमसू (ओक पेड़ की प्रजातियाँ), उतीस (एल्डर), बुरांश (रोडोडेंड्रन), पांगड़ (होर्स चेस्टनट), ग्यै (सिल्वर बेरी), चेटर (लॉरेल), मेहल (जंगली नाशपाती) जैसे पेड़ों की छांव में कई झाड़ीनुमा पौधे जैसे रिंगाल (एक प्रकार का बांस), भेकल (प्रिंसेपिया), घिंगाड़ू (हिमालयन फायरथॉर्न), हिसालू (वन्य रास्पबेरी), किरमोली (बरबरिस) और अनेक प्रकार की घास फैली हुई थीं।
चारों ओर सिल्वरी हेज ब्लू, कैबेज वाइट, चेस्नट टाइगर, हिल सार्जेंट, पेन्टिड लेडी जैसी अनेक तितली प्रजातियाँ मंडरा रही थीं। पक्षियों की बात करें तो यूरेशियन वुडकॉक, ब्लू व्हिस्लिंग थ्रश, और व्हाइट-थ्रोटेड लाफिंग थ्रश जैसे पक्षी हर ओर चहचहा रहे थे। लाफिंग थ्रश की “ई-ही-ई-ही” की आवाज़ तो सचमुच किसी जोरदार हँसी जैसी लग रही थी।
श्यमार की मिट्टी और पानी में इतनी विविधता और जीवन था, जिसे देखकर समझ आया कि इसे केवल कीचड़ समझना गलत होगा। यहाँ के हर पेड़, पौधे, तितली और पक्षी ने मुझे यह एहसास दिलाया कि श्यमार एक जीवित खजाना है। यह सिर्फ हमारी प्राकृतिक धरोहर नहीं, बल्कि उन हजारों जीवों का घर है, जिनके बिना यह जीवन अधूरा है।
इसके अलावा श्यमार जल स्रोत भी होते है। मेसर कुंड से मेसर रोली (झरना) बहती है जो हमारे गांव में पानी का प्राथमिक स्रोत हैं। सरमोली और शंखधूरा गाँवों में पानी पहुँचाने के लिए पाइपें इसी रोली से लगाई गई हैं। रोली के पास वाले श्यमार में खेती भी अच्छी होती है, क्योंकि मिट्टी नमीदार और उपजाऊ होती है। इसलिए तो यह केवल पानी का स्रोत नहीं, बल्कि जीवन का केंद्र है।
“अगर श्यमार न हो,” मैंने सोचा, “तो शायद इन जीवों और हमारे जीवन का संतुलन ही बिगड़ जाए।”
जल देवी की पवित्र भूमि
श्यमार को जल देवी का स्थल भी माना जाता है। सरस्वती देवी लगभग 82 वर्ष की हैं और वे सरमोली में रहती हैं।
उन्होंने बताया, “मैंने बचपन से देखा है कि जहाँ श्यमार का इलाका है, उसे जल देवी की भूमि कहा जाता है। उसे नाग देवता का भी वास माना जाता है। यह भी मान्यता है कि जल देवी की भूमि में एरी (एक प्रकार की रक्षक हवा), आचरी (परी या अलौकिक शक्ति), बान (जंगल में बसने वाले परलौकिक हवाई रूप), और मशान (नदी किनारे श्मशान घाट से जुड़ी आत्मिक शक्तियाँ) निवास करती हैं।”
आज भी गांव वाले इस मान्यता को बनाये रखे हैं। शायद इसी आस्था के चलते पानी का यह स्रोत और श्यमार जैसे इलाके अब तक सुरक्षित हैं।
चोरी के सेब और श्यमार में फंसे कदम
माँ अक्सर एक पुरानी कहावत सुनाया करती थीं।
उन्होंने बताया, “एक दिन आकाशवाणी हुई कि द्वी खुटियों वाले (यानी दो पैर वाले) लोग भाग जाएँ, क्योंकि यॉक खुटी (एक पैर वाला) तुम्हें धढूंढकार खा जाएगा।”
तब ऐसी एक कथा प्रचलित थी कि एक खुटी वाला बहुत शक्तिशाली था और उसको पूरी दुनिया पर राज करना था। पर ये करने के लिए, उसे सारे दो खुटी वाले लोगों को धरती से हटा देना होगा। माँ का मानना था कि अगर दो पैर वाले बचना चाहते हैं, तो उन्हें श्यमार वाले इलाके में चले जाना चाहिए, जहाँ एक पैर वाला दलदल में फँस जाएगा और दो पैर वाले सुरक्षित रहेंगे।
गांव में जब कोई बहुत रुक-रुक के चलता है, तो लोग मजाक में कहते हैं, “क्या बात है, श्यमारन जायू जश?” (क्या तू श्यमार में फंस गया है?)
दीपक पछाई, जो सरमोली में रहता है, अपने बचपन में एक दिन, अपने दोस्त कविराज पांडे के साथ पार्वती भाकुनी के खेत के पास से गुजर रहा था। उसे खेत में लाल और रसीले सेब दिखे।
दीपक ने बताया, “हमने सोचा, ये सेब तो खाने ही हैं। हम पेड़ पर चढ़ गए। लेकिन तभी पार्वती दीदी बाहर आ गईं। पकड़े जाने से पहले ही हम वहां से भागे। जल्दी में, हम श्यमार वाले इलाके में पहुँच गए और मेरे दोनों पैर दलदल में धंस गए। मैंने जैसे-तैसे पैर निकाल लिया, लेकिन एक चप्पल वहीं फंसा रह गया। डर के मारे मैं नंगे पैर ही घर भाग गया। बाद में दोस्तों की मदद से चप्पल वापस निकाली।”
ऐसी ही एक कहानी शंखधूरा गांव के त्रिलोक राणा ने सुनाई।
फरवरी के किसी ठंडे दिन वे काम के लिए लेट हो रहे थे। छोटे रास्ते की तलाश में उन्होंने सोचा, “आज श्यमार वाले रास्ते से चला जाता हूँ।”
रास्ता छोटा था, लेकिन पूरी तरह बर्फ से ढका हुआ था। जैसे ही उन्होंने श्यमार पर कदम रखा, उनके दोनों पैर धीरे-धीरे बर्फ और गीली मिट्टी में धंसते गए। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने घुटनों तक फंसे पैरों को बाहर निकाला। जब बाहर निकले, तो देखा कि घुटनों से नीचे उनका शरीर श्यमार की मिट्टी में सना हुआ था। और काम पर भी लेट ही पहुँचे।
इन कहानियों को सुनकर हंसी तो आई, लेकिन साथ ही यह भी समझ में आया कि श्यमार जैसे स्थान सिर्फ भूगोल का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक कहानियों, डर और प्रकृति के साथ जीने में सावधानियों का भी प्रतीक हैं। ये किस्से हमारी यादों और लोककथाओं को जीवंत रखते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते हैं कि प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने और उसकी शक्ति का सम्मान करना कितना जरूरी है।
श्यमार का महत्व और जीवन का जाल
आजकल लोग दुनिया भर में श्यमार और तालाबों के महत्व को समझने लगे हैं। इनका हमारे जीवन, धरती की संरचना, और पशु-पक्षियों के जीवन पर गहरा असर है। श्यमार और उनके संसाधनों के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र (यू एन) के लगभग 90% सदस्य देशों ने ‘रामसर कन्वेंशन’ – एक महत्वपूर्ण अंतरसरकारी संधि- को स्वीकार किया है। यह कन्वेंशन श्यमार के सोचा-सुलझा उपयोग के लिए रूपरेखा प्रदान करता है। भारत ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, जिससे श्यमार और तालाबों के संरक्षण के प्रयास पूरी दुनिया के लिए नहीं, बल्कि हमारे देश के लिए भी अहम हो जाता है।
साइबेरिया से पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा करके भरतपुर, राजस्थान के बड़े श्यमार में आते हैं। यहाँ उन्हें पर्याप्त भोजन, मछलियाँ, कीड़े और बीज मिलते हैं। फिर गर्मियों में ये पक्षी वापस साइबेरिया लौट जाते हैं। भारत में कई पक्षी सर्दियों में दूसरे देशों में जाते हैं, इसलिए देशों के बीच श्यमार के संरक्षण की आवश्यकता पर विचार किया जाता है। अगर एक भी देश इस संसाधन को न बचाए, तो पूरी दुनिया पर इसका प्रभाव पड़ेगा।
श्यमार में जीवों का एक नेटवर्क बना हुआ है। छोटे कीड़े बड़े कीड़ों का भोजन बनते हैं, और बड़े कीड़े पक्षियों का। यह भोजन की चेन एक जैविक तंत्र बनाती है, जो श्यमार के अस्तित्व के लिए जरूरी है। स्याल (काई) अपना खाना सूर्य की किरणों से बनाता है। यह हरा होता है क्योंकि इसमें क्लोरोफिल होता है, जो सूर्य से अपनी शक्ति प्राप्त करता है। अगर सूरज ना हो, तो स्याल मर जाएगा। और अगर स्याल ना हो तो बहुत सारे छोटे जीवों को खाना नहीं मिलेगा और फिर वो भी मर जाएँगे। अगर वो छोटे जीव नहीं होंगे, तो मछलियाँ नहीं होंगी और फिर पक्षी और जानवर जो मछली खाते हैं, वो भी नहीं होंगे। ये इसको खाएगा, वो उसको खाएगा, ऐसा एक प्रकृति में चेन बना रहता है। यह संतुलन बनाए रखने में श्यमार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बारिश का पानी रोलियों के ज़रिये स्याल और कीड़ों को लेकर बहता है। बहते-बहते, हमारी गोरी घाटी का यह पानी हिमालयी नदियों में मिल जाता है- फिर, गोरी, काली, शारदा, घाघरा और अंततः गंगा नदी में मिलकर हिंद महासागर तक पहुँच जाता है। नदी के लिए आवश्यक पोषण भूमि से प्राप्त होता है, और श्यमार इस पोषण को प्रदान करने में एक आवश्यक माध्यम है।
इस यात्रा के दौरान पानी बहुत सारे वन पंचायतों के जंगलों से होकर बहता है और वन्य जीवन को पोषण प्रदान करता है। कभी-कभी बाढ़ आने या नदी के पलटने पर, पानी फैल तो जाता ही है पर साथ मे वह कुण्ड और गड्ढ़ो को दो-तीन महीनों के लिए भर भी देता हैं, जिनमें मछलियाँ बह कर चली जाती हैं। इन मछलियों को जानवर और पक्षी खाते है और इस तरह ये मछलियाँ पक्षियों और जानवरों का आहार बनती हैं।
सालों से इस बहाव का इंतजार करते हुए, मेंढक और मछली जैसे कई जीवों ने श्यमार को अपना घर बना लिया है। अगर हम इस प्राकृतिक बहाव को रोकने की कोशिश करेंगे, या इसमें दखल देंगे — जैसे गड्ढ़ो को भर देना, पानी को रुकने या स्याल बनने न देना — तो यह पूरा जैविक तंत्र टूट जाएगा, और जीवन के इस नेटवर्क को नुकसान होगा।
विकास और विनाश: श्यमारों की अनदेखी का अंजाम
अगर ऐसा हर जगह होने लगा जैसे आजकल शहरों में हो रहा है, तो हालात और भी बिगड़ सकती हैं। जो ताल-तालाब और श्यमार कभी पानी को सहेजने और बाढ़ को नियंत्रित करने का काम करते थे, वे अब गायब हो चुके हैं। क्यों? क्योंकि हमने उन्हें अपनी जरूरतों के मुताबिक ढक दिया।
लोग सोचते हैं, “क्यों इस ज़मीन को बर्बाद करें? इसे भर देते हैं और मकान बना लेते हैं।”
मकान तो बन गए, लेकिन उन जगहों की बाढ़ झेलने की जो प्राकृतिक क्षमता थी, वह पूरी तरह खत्म हो गई। बाढ़ तो आती ही रहेगी, इसका आना प्राकृतिक है। लेकिन श्यमार और तालाब स्पंज की तरह काम करते है, जो पानी को सोखते है और शहरों को डूबने से बचाते है। अब, जब उन जगहों पर मकान खड़े कर दिए गए हैं, तो पानी के पास कोई जगह नहीं बची। नतीजा यह कि मकान और शहर डूबने लगे हैं।
शहरों में बाढ़ की जो तस्वीरें हम हर साल देखते हैं, उनकी वजह अब समझ में आने लगी है। हमने पानी के प्रवाह और उसके रुकने की प्राकृतिक जगहों को खत्म कर दिया है। श्यमार, तालाब, और नदी के किनारे, जहां पानी इकठ्ठा होता था और धीरे-धीरे बहता था, सबको बंद कर दिया है। जब पानी के लिए कोई रास्ता ही नहीं रहेगा, तो वह तबाही मचाएगा ही। यही कारण है कि आज शहरों में बाढ़ का प्रकोप इतना बढ़ गया है।
मैने सुना है कि अमेरिका, नीदरलैंड, बांग्लादेश, चीन, सिंगापुर, और जापान जैसे देशों ने भी अतीत में यही गलती की थी, लेकिन उन्होंने समय रहते इसे सुधारने की दिशा में कदम उठाए। अब इन देशों में मकान तोड़े जा रहे हैं और श्यमारों को फिर से बहाल किया जा रहा है। वहां की सरकारें लोगों को दूसरी जगह जमीन खरीदने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक सहायता दे रही हैं ताकि पानी के प्राकृतिक मार्गों में कोई बाधा न आए। उन्होंने समझ लिया है कि श्यमार न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से बल्कि आर्थिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन देशों ने यह भी पाया कि श्यमार का समुद्र तक की मछलियों और उनके जीवन चक्र से गहरा संबंध है।
हमारे देश में शहरीकरण अभी बड़े पैमाने पर शुरू हुआ है। असली विकास उसी को माना जाता है, जिसमें मकान बने और धन खर्च हो, लेकिन अब समझ आ रहा है कि यह रास्ता गलत है। क्या हम अपनी गलतियों से सीख सकते हैं, या हमें भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी? यह सवाल उन सभी जगहों के लिए है, जहां शहरीकरण के नाम पर प्रकृति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है।
शहरीकरण और श्यमार: क्या सह–अस्तित्व संभव है?
पहले तो मुझे बस इतना पता था कि पानी वाले इलाकों में श्यमार होते हैं और यह पानी का स्रोत है। लेकिन जब मैंने श्यमार में समय बिताया, तो समझ आया कि यह हमारे जीवन में कितनी अहम भूमिका निभाता है।
हमारे सरमोली गांव से मुनस्यारी बाजार की ओर जाते वक्त, सड़क के नीचे कभी एक विसाल श्यमार हुआ करता था। वहां बज (ऐकोरस कैलमस) नाम की एक खास पौधा उगा करता था। इस पौधे की जड़ से बच्चों के लिए माला बनाई जाती थी। ऐसा माना जाता था कि इसे पहनने से बच्चे जुकाम और पेट के कीड़ों से सुरक्षित रहेंगे। शरीर के किसी हिस्से में घाव होने पर हमारे लोक मान्यता के तहत इस पौधे का लेप लगाने से वह ठीक हो जाता था।
आज उस श्यमार की जगह पर जोहार क्लब (स्थानीय क्लब) द्वारा खेल और मेलों के लिए पिछले 30 सालों में धीरे-धीरे एक मैदान बना दिया गया है। अब वहां वह बज का पौध खत्म होने के कगार पर है। आस-पास मकान बन गए हैं, और जहां से पानी बहा करता था, वह रास्ता इतना पतला हो गया है कि बरसात के दिनों में पानी रुककर लोगों के घरों और दुकानों में भर जाता है। इसे लोग “दैवी आपदा” कहकर टाल देते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि यह हमारी ही लापरवाही का नतीजा है। क्या हम बिना सोचे-समझे अपनी सुविधा के लिए प्राकृतिक व्यवस्थाओं को खत्म नहीं करते जा रहे हैं? मुझे इस बात का गहरा एहसास है कि हमें अपने आस-पास प्रकृति से जुड़ी की हर चीज को जानना और समझना चाहिए। क्योंकि हम जहां रहते हैं, वहां की हर छोटी-बड़ी चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। क्या आपको नहीं लगता कि जब तक हम यह नहीं समझेंगे, हमारी समस्याएं बढ़ती ही रहेंगी?
मेरी मां, हेमा रावत की वह कहावत आज भी मेरे कानों में गूंजती है- “सेम पैन जस पनिप जाए!”
(जैसे सेम में पानी हमेशा बना रहता वैसे ही तुम पनपते रहो!”)