मेसर कुण्ड की कहानी
लेखिका: पुष्पा सुमत्याल
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मेरा बचपन घोड़पट्टा गाँव में बीता जो बर्निया गाँव से लगा हुआ है और जहाँ मेसर देवता को पूजने वाले बर्पटिया समुदाय के लोग रहते हैं। घोड़पट्टा में बड़े सीढ़ीनुमा खेत और बड़े आँगन वाले घर हैं। दोस्तों के साथ मिलके खोखो और सातपत्ती खेलना मेरी इस गाँव से जुडी सबसे अच्छी यादें हैं। गाँव की उमरदार महिलाएं मुझे उनके कालीनों के लिए नए डिज़ाइन खोजने के लिये भेजा करती थीं। फिर शाम को हम सब गाँव के चबूतरे पर इकट्ठे होकर दिन की कहानियाँ सांझा करते थे।
शादी के बाद मैं मेरे पति के साथ सरमोली आकर बस गयी।मेसर कुंड सरमोली में स्थित है। बचपन में जब बर्निया गांव में मेसर देवता का जागरण लगाता था तो मैं बड़े ही उत्सुकता से देखने जाया करती थी। जब बर्पटिया लोग बाजे गाजे के साथ पूजा के लिये जाते थे तो उस दिन रास्ते में पुजारियों को फूल, फल, घूप बत्ती देने के लिये खड़े हो कर इंतजार करती थी।
चारों तरफ से खरसु, तिम्सू के विशाल वृक्षों से घिरा हुआ सरमोली व शंखघूरा के वन पंचायत के जंगलों के बीच स्थित मेसर कुंड मेसर देवता का वास है।
मेसर कुंड की कहानी, जो मुझे मेरी दादी ने बताई, वह कुछ इस तरह है। सतयुग की बात है – बर्निया गांव से बर्पटिया समुदाय (जो जनजाति समाज में आते हैं) के बेटे-बेटियां अपनी गायों को चुगाने के लिये ग्वाल ताल डानाधार (सरमोली के पास तालाब जहाँ वे नहा सकते थे) रोज जाया करते थे। एक दिन खेलते कूदते दो ग्वाला लड़कियों को नहाने की सूझी। वे नहाने के लिये ग्वाल ताल में कूदी तो वहीं से गायब हो गईं। परिजनों के ढूंढ खोज करने पर भी नहीं मिलीं। परेशान परिजन ब्राहमण के पास चावल लेकर पहुचें और पूछा- “ हमारी बेटियाँ कहाँ हैं और क्यों घर नही पहुचीं?”
ब्राहमण ने कहा- “तुम्हारी लड़कियों को मेसर देवता सफेद घोड़े पर बिठा कर हरण करके ले गये है।”
ग्वाल ताल के पास के ग्राम घोड़पट्टा के नदी में घोड़े के पद चिन्ह भी दिखाए जिसको देखते देखते घबराये परिजन सब मिलकर मेसर कुंड पहुँचे। वहां पहुँच कर उन्होंने मेसर देवता को कहा- “हमारी बेटियों को हमें लौटा दो।”
मेसर देवता बोले- ” मुझे इन से प्यार हो गया है सो मैं इन्हें नहीं लौटा सकता। इनके बदले तुम्हें जो धन-धान्य, हीरा-मोती, जो चाहे वो दे सकता हूं। तीज त्यौहार में आपकी बेटियों को आपको घर मिलने भेज दिया करूँगा।”
फिर भी लड़कियों के घर वाले नहीं माने।
गुस्साये परिजन ने कहा- “ हमें बस हमारी बेटियाँ चाहिये और कुछ नहीं।”
उसी गुस्से में सब ग्राम वासी मिल कर घन, सब्बल लेकर कुंड को तोड़ने लगे और मेसर कुंड फूट कर मेसर रौली (छोटी नदी) के रुप में तेजी से बहने लगा।
इसपर मेसर देवता बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने सब बर्पटिया लोगों को यह कहते हुए श्राप दिया- “तुम लोगों का वंश नहीं बढ़ेगा, तुम जितने हो उतने ही रहोगे।”
तब देवता ने मेसर कुंड में समायी हुई लड़कियों के कंकाल बाहर फ़ेंक दिया। यह देखकर बर्पटिया लोगोंने भयभीत होकर मेसर देवता से माफी माँगी और उनको कहा- “ हम आपकी अपने कुल देवता के रुप में पूजा करेंगे। आपका चार दिवस का जागरण करेंगे व नाग पंचमी के दिन आपकी पूजा पहले करेंगे फिर अन्य देवताओं की पूजा की जायेगी। और इस पूजा में ब्राहमण को नहीं बुलाया जायेगा।”
मेसर देवता ब्राहमण से बहुत नाराज थे कि इन्होंने ही परिजनों को बताया था कि लड़कियों को मेसर देवता हरण कर ले गये हैं। आज भी मेसर देवता की पूजा में ब्राहमण नहीं बुलाया जाता है।
यहाँ पर माना जाता है कि आज भी बर्पटिया लोगों के सीमित परिवार है और उन लोगों की जनसंख्या नहीं बढी़ है।
आज तक पंचमी के दिन मेसर पूजा बड़े धूम धाम से की जाती है। सुबह बर्पटिया लोग बाजे गाजे के साथ आते हैं। बर्निया गाँव से निकलकर मेसर कुंड से गुजरते हुए ऊपर के जैंती गाँव में स्थित श्यमटी के मंदीर में जाते हैं और फिर मेसर कुंड पहुँचते हैं। पहले कौनी (एक प्रकार का मडुला (millet) का भात) बनाकर प्रसादी के तौर पर बांटा जाता था। लेकिन अब कौनी मिलना मुश्किल हो गया है क्योंकि लोगोंने इसे उगाना बन्द कर दिया हैं। मान्यता के अनुसार कौनी के साथ थोड़ा सा चावल मिलाकर खीर बनाई जाती है। चंदन पीठाक के साथ बस तिलक व थोड़ा सा खीर चढ़ाने के लिये बनाया जाता है। बताया जाता है कि सतयुग में पूजा कर चावल के दाने कुंड में छपका जाने पर भोजन बनाने के लिये बर्तन भी मेसर कुंड़ स्वतः निकल जाते थे। भोजन के बाद भी पूजा करके उन्हे वापस डाला जाता था। यदि ठीक से साफ नहीं हुए बर्तन तो वे उपर तैरते थे। ऐसी स्थिति में उन्हें फिर से साफ करके कुंड में अगले वर्ष की पूजा तक समाया जाता था।
इस पूजा में भेड़ बकरी के साथ भैंस के कटरे की बलि दी जाती है। इस बलि को लेकर समाज के कुछ लोग आज सवाल उठा रहे हैं लेकिन बाकि का समाज पुराने मान्यताओं को मानते हुए इस प्रथा को बरकरार रखे हुए हैं। बलि देने के बाद, भैंस के बछड़े के शव को जंगल में भालुओं के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। भेड़ के मांस को पूजा में शामिल हुए लोगों में बाँटा जाता है। मैं खुद जानवरों की बलि देने के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन मैं इस विषय में चुप रहती हूँ क्योंकि मेरे रिश्तेदार मुझपर ज़्यादा होशियार बनने का आरोप लगाते हैं।
पिछले दो दषकों में मेसर कुंड़ की कहानी में नया मोड़ आया – मेसर कुण्ड एक विशाल कुंड हुआ करता था जो अब सुखते जा रहा है। इसके सूखने के लिए बर्पटिया समुदाय को ज़िम्मेदार माना जाता है, परन्तु असल में कुंड के ऊपरी ढलानों के कटाव के कारण कुंड सूखने लगा है। आस पास के सब बड़े पेड़ जा चुके हैं और पशुओं के अत्यधिक चुगान के कारण नए पेड़ उग नहीं पा रहे हैं। सरमोली-जैंती वन पंचायत के जंगलों में स्थित कुंड का आधा हिस्सा 30 साल पहले ही सूख गया था और शंखधुरा वन पंचायत में स्थित दूसरा हिस्सा तेज़ी से सूखता जा रहा है। अनेकों गांव के पानी का स्त्रोत वही जगह है। हम लोगों को भविष्य की चिन्ता थी कि यदि यह पानी सूख गया तो फिर पानी का कोई और स्रोत नहीं रहेगा।
मान्यता थी कि माहवारी के समय महिलाओं को मेसर कुण्ड जाना बिल्कुल मना था, यहाँ तक कि इससे बहती मेसर नदी तक को पार करना मना था। और हाल तक महिलाओं का मेसर कुंड जाना भी वर्जित था।
लेकिन जब 2003 में वन पंचायत सरमोली जैंती की सरपंच एक महिला बनी तो गाँव की महिलाओं ने मेसर कुंड को खोदने का काम शुरू किया। आपस में सोच विचार किया गया कि मान्यताओं के विरुध जाकर यदि हम महिलाएं यह काम उठाती हैं तो अनर्थ तो नहीं होगा? पर यह भी बात रखी गयी कि पानी के स्रोत को बचाने में और देवता के स्थल को बनाये रखने में मेसर देवता हमसे क्यों नाराज़ होंगे? आखिरकार मेसर देवता ने महिला से ही तो प्रेम किया था। उस कुण्ड को पुनर्जीवित करने में भला क्यों मेसर देवता बुरा मानेंगे? शुरुवात सरमोली की महिलाओं व बच्चों ने श्रमदान द्वारा की और फिर गांव के और लोगों ने मिलके अपने हिस्से के सूखे कुण्ड को खोद कर कुण्ड़ को पुनर्जीवित कर दिया।
अपने प्राकृतिक धरोहर को देखते हुए हमें लगा कि क्यों न हम पर्यटन का काम वन पंचायत के साथ मिलकर करें। 2004 से हमने होम स्टे शुरु किया और जो भी आमदनी कमाई, उसका 5% वन पंचायत के संरक्षण के लिये डालने लगे। फिर जब हमारा समुदाय व प्रकृति आधारित पर्यटन का काम बढ़ गया तो 2013 से हमारी व्यक्तिगत आमदानी से 2% डाला जाने लगा। साथ में सरमोली वन पंचायत के हिस्से के मेसर कुण्ड पर हम निरन्तर काम करते रहे। आज मेसर कुंड पर्यटन के नजर से आकर्षण स्थल बन गया है। पिछले साल लॉकडाउन के कारण हमारी कमाई में गिरावट आई। हमारा आर्थिक योगदान कम रहा पर हमने कुंड पर काम जारी रखा क्योंकि यह कुंड हमारे गाँव के पानी की ज़रूरतों को पूरा करता है।
जैसे जैसे मेसर कुण्ड में काम बढ़ता गया वैसे हमें खुदान कार्य में कई जगहों से फिर आर्थिक सहयोग भी मिला जिसमें वन विभाग व अन्य गैर-सरकारी संस्थाएं भी शामिल हुईं। 2007 में सरमोली के हिस्से का कुंड बनके तैयार हो गया। कुण्ड के उद्घाटन के लिये पूजा रखी गयी और वही पूजा मेले के रुप में बदल गयी।
यहां अब हर साल मई के महीने में वन कौतिक (मेला) का आयोजन किया जाता है।उसके साथ हम गाँव वाले हिमल कलासूत्र का आयोजन करते जिसमें – बर्डिंग वॉक, तित्तली- मौथ कार्यशाला, लोकल खाना व योगा कार्यशालाएं, दौड़ यानि ट्रेल रन, व स्कूलों के बच्चों के साथ प्राकृतिक शिक्षा के कार्यक्रम आयोजित करते आयें हैं। मेले में लोक प्रकृति पुरस्कार व स्त्री प्रकृति पुरस्कार भी दिया जाता है- ऐसे लोगों को जो समाज व प्रकृति के लिये समर्पित हो।
आज मेसर कुंड ने एक आस्था के स्थल के साथ हमारे जीवन में नये मतलब के साथ जगह बना ली है। जहाँ एक तरफ हम इसकी देखरेख कर रहें है, वहीं इस कुंड से हमारे गाँव की पहचान बढ़ी है। आने वाले समय में मेसर कुंड पहाड़ के इस ढाल पर बसे अनेकों गांवों के लिये सुरक्षित पानी के स्रोत बना रहेगा।
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