People carrying burning mashalas at Budhi Diwali in Satyawali, Himachal Pradesh
Culture,  Festival,  Himachal Pradesh,  Hindi,  Tradition

मशालों की रात: बूढ़ी दिवाली

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सत्यावली नामक हिमालयी गाँव में हर तीसरे वर्ष, अमावस्या की काली रात को बुढ़ी दिवाली मनाई जाती है। यह त्योहार चीड़ की लकड़ी से तैयार मशालों से रात के अंधेरे को चीरने और एक अनूठी परंपरा के तहत गांव वालों के गुटों के बीच एक दूसरे पर हमला कर नकली युद्धों से मनाया जाता है। यह कहानी इस बात का वर्णन करती है कि कैसे रात को ढोल की आवाज़ों और उत्साह के साथ जीवित किया जाता है, जो अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है, जिससे क्षेत्र में शांति और समृद्धि आती है।

इस मशालों के उत्सव में शामिल हो कर आनंद लेते हुए, युवा लेखक कुछ प्रथाओं और उनके अंतर्निहित विश्वासों पर विचार करते हुए पशु बलि जैसे रिवाजों और कुछ पितृसत्तात्मक परंपराओं पर अहम सवाल उठाती है।

कहानीकारभानु प्रिया
ग्राम सत्यवाली, जिला मंडी, हिमाचल प्रदेश

Read this story in English

अम्मा जाग चुकी थी, लेकिन आसमान में अभी भी अंधेरा छाया हुआ था। चूल्हे के चारों ओर सफाई की शुरुआत हो चुकी थी। चूल्हे में आग जल रही थी, और चिमनी से उठते धुएं की गंध आसमान में फैल रही थी। चूल्हे के पास बैठी मेरी अम्मा, सन्नाटे में चूल्हे की राख से बने कोयलों से दंतमंजन कर रही थी। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई सुबह-सुबह काला पान चबा रहा हो। लेकिन यह काला पान दांतों के लिए बेहद फायदेमंद माना जाता है।

दिसंबर के दिन की यह सुबह हर दिन की सुबह से कुछ अलग थी। जैसे ही मेरी नींद खुली, मैंने मेरे गांव सत्यावाली में “ठक, ठक, ठक” की आवाजों को हर दिशा में गूंजते हुए पाया। घर-घर में एक महीने से चल रही साफ-सफाई का असर अब साफ नजर आ रहा था। पूरा सत्यावली चमचमा रहा था।

सत्यावाली, सिराज क्षेत्र (बर्फ़ से ढके ऊपरी पहाड़ियां) के बालीचौकी में स्थित हिमालय का एक गांव है, जो हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में पड़ता है। यह गांव बालीचौकी से 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और अपनी प्राकृतिक सुंदरता और शांत वातावरण के लिए प्रसिद्ध है।

सत्याबाली, हिमाचल प्रदेश के सिराज क्षेत्र में स्थित गांव। फ़ोटो: मुनीष कुमार

आधी खुली आधी बंद आंखों से मैं, मेरे काष्ठकुणी शैली मकान (लकड़ी और पत्थर से बने पारंपरिक मकान) के फड़ से बाहर निकली। काष्ठकुणी शैली में बने मकानों में मुख्यतः चार मंजिलें पाई जाती है| सबसे ऊपर वाली मंजिल में रसोई होती है जिसे बाउडी कहते हैं| रसोई के नीचे वाले कमरे को हेठी वी कहते हैं जिसका प्रयोग सोने के ले या बेडरूम के रूप में ही किया जाता है। हेठी वी के नीचे वाले कमरे को फड़ कहते हैं और फड़ के नीचे वाले कमरे को खुड़ कहते हैं जहां पर पालतू पशुओं को रखा जाता है। मैंने देखा कि मेरा भाई कुछ लकड़ियों को धूप में सूखाने के लिए खल़ में क़तारों से खड़ा कर रहा था जिससे यह ठक-ठक की आवाज निकल रही थी। खल़ एक प्रकार का खुला आंगन होता है जो कि घर के मुख्य द्वार के आगे स्थित होता है। हमारे यहां पर खल़ बड़ी-बड़ी सलेटी चट्टानों से समतल आकृति के बनाए जाते हैं। खल़  में घास और अनाज को सुखाया जाता है और अनेक घरेलू कार्यों के लिए उपयोग में आता है।

खल़ – घर के मुख्य द्वार के आगे स्थित आगंन जिस पर घास और अनाज सुखाया जाता है। फ़ोटो: सुष्मिता ठाकुर

आज सत्यावाली के लोगों में एक अनोखी ऊर्जा दिखाई दे रही थी। यह ऊर्जा गांव में मनाए जाने वाले त्योहार बूढ़ी दिवाली की थी जिसके लिए यह सब तैयारी हो रही थी। यह बूढ़ी दिवाली हमारे कुल देवता विष्णु नारायण जी को समर्पित है। सिराज क्षेत्र में मनाए जाने वाली बूढ़ी दिवाली हिमाचली लोगों  का एक प्रमुख त्यौहार है। यह हर तीसरे वर्ष नवंबर और दिसंबर में अमावस्या की रात को मनाया जाता है।

मशालों परंपरा और उत्साह का प्रतीक

इस त्योहार की उत्पत्ति उस समय से जुड़ी हुई है जब माना जाता है कि भगवान श्री राम चंद्र रावण का वध करके अयोध्या लौटे। तब लोगों ने उनके स्वागत अयोध्या में में घी के दीए जलाए। लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सूचना के अभाव और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण इस घटना के बारे में जानकारी एक महीने बाद मिली। तब यहाँ के लोगों ने दिए नहीं जलाए क्योंकि उनकी उपलब्धि मुश्किल थी। उसकी जगह उन्होंने मशाले बनाकर यानी लकड़ी, जो आसानी से उपलब्ध थी, में आग जलाकर अपनी खुशी का इज़हार किया और इसी तरह एक अनोखी परंपरा बनाई जो आज तक चली आ रही है।

मैं अपनी चाऊड़ी (लकड़ी का बनी बालकनी) में शर (लकड़ी की बनी रेलिंग) पर बैठी हुई अपने पापा, चाचा और भाई को देख रही थी। वे सब मिलकर लकड़ियों से मशालें बना रहे थे। धूप में सूखी लकड़ियों को चाचा बड़े ध्यान से बराबर आकार में काट रहे थे। पापा उन कटे हुए टुकड़ों को एकत्र कर के गठ्ठौं में बांध रहे थे। पांच गठ्ठौं को जोड़कर एक मशाला का निर्माण किया जा रहा था। खल (आंगन) के पास से गुजरती महिलाएं रुककर उन्हें प्रोत्साहित करतीं और देखतीं कि किसका मशाला सबसे बड़ा और बेहतर बनेगा। वे आपस में हंसी-मजाक करतीं और अनुमान लगातीं कि इस बार की दियाली (दिवाली) में किसकी मशाले सबसे ज्यादा धूम मचाएगी। पूरा माहौल प्रतियोगिता और उत्साह से भरा हुआ था।

सत्यावाली गांव में रहने वाली मेरी चाची शांता देवी ने बताया, “1980-1990 के दशक में, जब मैं अपनी बाल्यावस्था में थी, तब मेरे पिताजी जब मशाला बनाते थे, तो जोर-जोर से पहाड़ी लामड़ (गाना) गाते थे और परंपरिक नृत्य करते थे। फिर वह गठ्ठौं को आपस में जोड़ते हुए उनके इर्द-गिर्द घूमते हुए बड़े ध्यान से मशाला बनाते थे, जैसे यह कोई अनुष्ठान हो।”

लकड़ियों के गठ्ठौं से बनते मशालें। फ़ोटो: भाषिक राणा

मशालें बनाने के लिए गांव वाले वन (जंगल) से विशेष प्रकार की लकड़ी लाई जाती है, जो काइल याचीड़ पाइन के वृक्षों से प्राप्त होती है। चीड़ (पाइनस रॉक्सबर्गी), आमतौर पर 600 मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। ये पेड़ 30 से 50 मीटर (98 से 164 फीट) की ऊंचाई तक बढ़ते हैं और पुराने पेड़ों का तना 2 मीटर (6.5 फीट) तक मोटा हो सकता है। इसकी लकड़ी बेहद जल्दी आग पकड़ लेती है, और इसकी लपटें तेजी से फैलती हैं। पहाड़ी भाषा में इसकी लकड़ी को शौली या जोगनी कहा जाता है। जोगनी का उपयोग दैनिक जीवन के कार्यों में बहुत समय से होता आ रहा है जैसे बिजली न होने पर रोशनी के लिए, खाना बनाने में, और पूजा-पाठ में।

गांव के हर खल (आंगन) में लोग मिलकर मशालें बनाने में जुटे हुए थे। मशालों में लकड़ियों को कसकर बांधने के लिए ठोलूं (हथौड़ा) का उपयोग किया जा रहा था। ठोलूं की ठक-ठक की आवाज से पूरा सत्यावाली गूंज रहा था, वही शोर जिसने मुझे सुबह जगा दिया था। हर कोई अपने हिस्से का योगदान देकर इस पारंपरिक उत्सव की तैयारी में लगा हुआ था।

शोली का उपयोग दैनिक तंदूर की आग जलाने के लिए। फोटो: लता ठाकुर
पितृसत्तात्मक परंपराओं की प्रचलन

मेरे घर में हर पुरुष सदस्य के लिए मशाला बनाया जाता है। इसे अनिवार्य समझा जाता है। यह इतना महत्वपूर्ण है कि यदि परिवार का कोई पुरुष सदस्य गांव में उपस्थित नहीं होता, तो उसके नाम का मशाला अवश्य बनाया जाता है। परिवार में नवजात लड़कों के नाम का मशाला भी बनाया जाता है। महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार का मशाला नहीं बनाया जाता है।

सत्यावाली गांव में रहने वाली महिला प्यारी देवी ने बताया, “मेरी बाल्यावस्था में, मैं भी चाहती थी कि मेरे लिए भी मशाला बनाया जाए। मैं भी पुरुषों की तरह उन मशालों से लड़ाई करना चाहती थी। अब, हालांकि, मुझे इस प्रकार का कोई भी शौक़ नहीं रहा।”

मशालो को लिए युवक। फोटो: ज्ञान चंद राणा

आज भी यहां मनाई जाने वाली दियाली में महिलाओं के नाम पर या किसी भी महिला के लिए कोई मशाला नहीं बनाया जाता।

एक बुजुर्ग जानकार व्यक्ति पीरु राम जी ने बताया, “दियाली उस समय से मनाई जाती है जब समाज में पुरुष प्रधान व्यवस्था थी। उस समय महिलाओं के अधिकारों की निंदा होती थी, जिस कारण उन्हें मशालों के इस त्यौहार से भी वंचित रखा गया। यह रीत वर्तमान तक चली आ रही है।”

गांव में रहने वाले 76 वर्षीय केशव राम ने बताया, “महिलाओं को शांति, प्रेम, सुख, और समृद्धि की पुजारिन माना जाता है। इसलिए उनके लिए कोई मशाला नहीं बनाया जाता, जिससे वे मशालों से लड़ाई में हिस्सा न लें।”

गाँव की छोटी-छोटी बच्चियाँ जब अपने भाई के लिए मशाला बनते देखती हैं, तो उनका भी मशाला उठाने का मन करता है। लेकिन वे वर्षों से चली आ रही इस परंपरा से भली-भांति परिचित हैं और अपने इन ख्यालों को दबाने पर मजबूर हो जाती हैं। अम्मा (दादी) बताती हैं कि उन्हें मात्र इसे देखने से ही संतुष्टि मिल जाती है। जब वे छोटी थीं, तो शायद उन्होंने भी एक मशाला बनाने की इच्छा की होगी। लेकिन उनकी यह बचपन की चाहत बड़े होकर कैसे बदल गई?

शायद इसलिए कि उन्हें पहले से ही इसमें भाग लेने से मना किया गया था। उनके जन्म के समय भी उनके नाम पर मशाला नहीं बना होगा, और ना ही उनकी बेटियों के जन्म पर।

बुजुर्ग महिलाएँ आज भले ही संतुष्ट नज़र आती हों, पर वे बच्चों को इस परंपरा पर सवाल उठाने के लिए ज़रूर प्रेरित कर सकती हैं।

व्याली, मशालों का जुलूस और प्राचीन रस्में

इसी तरह दिन बीत गया, और अम्मा-दादी व्याली (रात के खाने) का प्रबंध करने लगीं। इस दिन रात को विशेष व्यंजन बनाए जाते हैं। व्याली में केड़ी सिडु बन रहे थे। सिडु एक पारंपरिक पकवान है, जिसे गेहूं के आटे से बनाया जाता है। इसके अंदर आलू, भांग के बीज, और अखरोट की बेढी भरकर स्टफिंग की जाती है। इसे घी, लस्सी, चटनी, दूध, और चाय के साथ खाया जाता है।

दूध, सिडू, चटनी, घी की पारंपरिक व्याली (रात के खाने)। फोटो: रवीना ठाकुर

रात के खाने के बाद, अम्मा ने मुझे सारे बर्तन अच्छे से धोने और बाउडी (रसोई) को ठीक से साफ करने को कहा। जब रसोई एकदम चमचमा उठी, तो अम्मा ने मोड़ी बनाने की तैयारी शुरू की। यह एक पारंपरिक व्यंजन है, जो मक्के से बनाया जाता है। इसमें गेहूं और भांग जैसे फसल के बीज का इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें धीरे-धीरे भूनकर कुरकुरा बनाया जाता है। ताजा तैयार मोड़ी साधारण लेकिन बेहद स्वादिष्ट थी, जिसका गहरा स्वाद सत्यावली की ठंड भरी अमावस्या की रात में खास सुकून और गर्माहट लाया।

गेहूं और भांग से बनी मोड़ी – एक पारंपरिक व्यंजन। फोटो: लता ठाकुर

हम सभी बाउडी (रसोई) में बैठकर मोड़ी का आनंद ले रहे थे, कि इतने में बाहर से एक विचित्र शोर सुनाई दिया। सभी के चेहरे मुस्कान से खिल उठे और सभी चाऊडी (लकड़ी से बनी बालकनी) की ओर भागे। रात का अंधेरा था क्योंकि यह त्योहार बिना चाँद की रोशनी वाली रात को मनाया जाता है। मैंने देखा कि मेरी अम्मा, माता, और चाची बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी पट्टू (पारंपरिक स्थानीय पहनावा) पहनकर अपने हाथों में धूप, फूल, अखरोट, और अन्य सामग्री को थाली में सजाकर खल में खड़ी थीं, देवता के स्वागत के लिए।

हिमाचली पट्टू। फोटो: सुनैना पलसारा

मशालों में आग लिए लोगों का एक बड़ा समूह हमारे घर की ओर बढ़ रहा था। यह समूह एक अद्भुत ऊर्जा के साथ ढोल करनाल (वाद्ययंत्र) बजाते हुए हमारे खल में बढ़ता जा रहा था। मैंने देखा कि इसी समूह के बीच में एक पुरुष द्वारा करडी (बांस से बनी टोकरी) उठाई गई थी। इस करडी को विभिन्न तरह के चमकीले पागों (कपड़ों) से लपेटा गया था। यह साधारण करडी अद्भुत थी क्योंकि इस पर हमारे विष्णु जी का मुखौटा विराजमान था। स्वयं हमारे कुल देवता विष्णु जी हमारे साथ बूढ़ी दिवाली के इस त्योहार में सम्मिलित होते हैं। अम्मा, माता, चाची ने देवता का स्वागत किया और उनसे आशीर्वाद लिया। करडी उठाने वाले व्यक्ति ने हमें आशीर्वाद के रूप में कुछ फूल दिए।

करडी के भीतर हमारे देवता नारायण का मुखौटा। फ़ोटो: मुनीष कुमार

इस प्रकार मशालों का यह समूह घर-घर जाता है, पूरे गांव में अपनी अनूठी ऊर्जा फैलाते हुए। मशालों के समूह के साथ एक बकरी को भी घर-घर लिया जाता है। सत्यावाली के सभी घरों में से गुजरता यह फेर का समूह फिर मुख्य मंदिर की ओर बढ़ता है- जहां एक दिलचस्प लड़ाई शुरू होती है जिसका हर कोई बेसब्री से इंतजार करता है।

मशालो को लिए खल़ (आंगन) से गुजरता फेर का समूह। फ़ोटो: भाषिक राणा
बलि की परंपरा – चिंतन का विषय?

ऐसा विश्वास किया जाता है कि हमारे देवता किसी अन्य स्थान से आए थे, और जब वे यहां पहुंचे, तो  उसी स्थान पर यह मुख्य मंदिर स्थापित किया गया, और यहीं पर दीवाली का त्योहार मनाया जाता है। मुख्य मंदिर में मैंने देखा कि हमारे क्षेत्र के चार बड़े गाँव दो मित्र समूहों में बँटे हुए थे। मंदिर में दूसरे समूह के लोग हमारे गाँव के समूह का इंतजार कर रहे थे। मैंने देखा कि हमारे गाँव का समूह देवता की टोकरी के साथ मंदिर की ओर बढ़ रहा था, और दोनों समूह मशालें जलाकर गर्व से नाच रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे एक-दूसरे से मिलने के लिए बेताब हों।

लड़ाई के लिए आग में तैयार होते मशाले। फ़ोटो: भाषिक राणा

कुछ समय बाद, जब दोनों समूह पास आए, तो उन्होंने एक-दूसरे पर जलती हुई मशालों से हमला करना शुरू कर दिया। इस बीच, देवता को लेकर चलने वाला व्यक्ति भारी भीड़ में ऊँचाई पर दौड़ते हुए सीधे मंदिर में पहुँच गया। ऐसा माना जाता है कि देवता स्वयं उस व्यक्ति में प्रवेश करते हैं और अपनी दिव्य शक्ति से इस पवित्र त्योहार में भाग लेते हैं।

ढोल की आवाज़ तेज़ हो गई। लोग जोर-जोर से हल्ला करते हुए चिल्ला रहे थे, “हो हांडो हो “।

यह जलती मशालों की लड़ाई किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि बुरी शक्तियों को दूर भगाने के लिए होती है। जैसे ही दोनों समूह आमने-सामने आए, मशालों की टकराहट और तेज़ हो गई। इस आग के तेज़ प्रवाह में किसी को कोई हानि नहीं होती, क्योंकि माना जाता है कि देवता स्वयं इसमें भाग लेते हैं और सभी की रक्षा करते हैं।

अंधेरी रात में मुख्य मंदिर में मशालो की लड़ाई का दृश्य। फ़ोटो: भाषिक राणा

यह संघर्ष लगभग 45 मिनट तक चला, जिसके बाद यह अनोखी लड़ाई शांत हो गई। दादाजी ने बताया कि इस दिन सारी बुराइयाँ इसी अग्नि में जलकर खत्म हो जाती हैं। मैंने देखा कि मंदिर के सामने एक बड़ी आग जलाई गई थी, जिसमें लोग अपनी मशालें फेंक रहे थे। कुछ लोग अपनी मशालें घर भी ले जा रहे थे। धीरे-धीरे मशालों की लपटें धीमी पड़ने लगीं, और माहौल में एक गहरी शांति छा गई।

लड़ाई का यह रूप क्रोध या द्वेष नहीं, बल्कि शांति और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। लौटते वक्त मैंने देखा कि देवता की करडी के साथ लाई गई बकरी की बलि दी जा रही थी। कहा गया कि बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए यह बलि आवश्यक है। इसके बाद देवता ने सभी के कल्याण के लिए आशीर्वाद दिया। हालाँकि, बलि का यह दृश्य मुझे सोचने पर मजबूर कर गया।

क्या बलि देना वाकई ज़रूरी है?

क्या किसी जीव की हत्या करके सुख-शांति पाई जा सकती है?

उस जीव की सुख-शांति का क्या?

मेरे मन में कई सवाल उठे, जिन्हें मैं अपने साथ के बच्चों के साथ साझा करना चाहती हूँ। शायद अब समय आ गया है कि इस परंपरा की प्रासंगिकता पर फिर से विचार किया जाए।

गाँव के लोगों के साथ लौटते समय मैंने अपने चाचा की आधी जली मशाल उठाने की कोशिश की। वह अब भी भारी थी! अचानक एक तेज़ हवा चली, और जलती हुई मशाल की लपटों ने अंधेरी रात को अपनी रोशनी से भर दिया। उस पल ने मुझे गहराई से छू लिया। ऐसा लगा, जैसे हर जलती हुई मशाल न केवल बुराई को जला रही थी, बल्कि हमारे जीवन में नई उम्मीद और उजाला भी भर रही थी। इस त्योहार का असली अर्थ मुझे अब समझ आया— यह सिर्फ बुराई का अंत नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपी अच्छाई को फिर से जगाने का प्रतीक है। यह अहसास हमेशा मेरे साथ रहेगा, हर मशाल की लौ की तरह।

Meet the storyteller

Bhanu Priya
+ posts

Bhanupriya grew up close to nature amidst the snow-covered mountains of Satyawali village in the Siraj region of Himachal Pradesh. A third-year student of B.A. in History, Bhanu has a passion for writing, composing poetry, and Shayari. She enjoys reading fiction novels and painting. Her deep connection with the culture of the mountains, inspires her to preserve this heritage through her writing and creativity, so that future generations can experience the beauty of nature and its legacy.

भानुप्रिया हिमाचल प्रदेश के सिराज क्षेत्र के सत्यावली गांव की रहने वाली हैं, और बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच पली-बढ़ी हैं। इतिहास में B.A. तृतीय वर्ष की छात्रा भानु को प्रकृति के करीब रहते हुए लिखने, कविताएं और शायरी रचने का शौक है। वह फिक्शन उपन्यास पढ़ना और पेंटिंग करना पसंद करती हैं। पहाड़ों की संस्कृति से गहरा लगाव के चलते वह इस विरासत को अपने लेखन और रचनात्मकता के जरिए सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां प्रकृति और उसकी धरोहर की सुंदरता को महसूस कर सकें।

Voices of Rural India
Website | + posts

Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

3.5 2 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
हर्ष
हर्ष
1 month ago

बहुत सुंदर कहानी है जो हमारे उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में अभी भी मनाई जाती है।👍👍👍👍👍👍

1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x