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पइया- पाताल व धरती लोक को मिलाने वाला पेड़

उत्तराखंड के गोरी घाटी के बर्फीले पहाड़ों में पाया जाने वाला शानदार पइया या जंगली चेरी का पेड़ न सिर्फ अपनी अद्भुत सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह प्रकृति और संस्कृति के गहरे रिश्तों का प्रतीक भी है। सर्दियों में खिलने वाले इसकी फूलों की गुलाबी बौछार, चमचमाती हरी पत्तियां और गजब की लकड़ी का ग्रामीण जीवन में खास महत्व है।

पइया का पेड़ पहाड़ी संस्कृति के किस्सों और परंपराओं का आज भी एक जीवंत हिस्सा है। धरती और पाताल लोक को जोड़ने वाला यह पेड़ उत्तराखण्ड हिमालय के लोगों के जीवन में बसा है और साथ ही इंसानों और प्रकृति को एक धागे में पिरोता है।

कहानीकार- भावना ठाकुनी
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड

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खलिया पहाड़ के ढलान पर बसा मल्ला (ऊपरी) सरमोली गांव के बीचोबीच पेड़ों के जुट में एक देवदार का विशाल पेड़ है। यह हमारे गांव की आन, बान और शान है, जो कि दूर-दूर से भी दिखाई देता है। इन पेड़ के नीचे बैठने के लिए एक गोल चबूतरा है। गांव के लोग हों, या हमारे यहां घूमने आए पर्यटक, बच्चे हों या बड़े, मैंने देखा है कि इस जगह आकर कदम रुक से जाते हैं, और पहाड़ की तेज धूप से राहत पाने या अपनी थकान दूर करने, सब इन पेड़ो के पास बैठने आ जाते हैं। देवदार की विशालता से आकर्षित तो होते ही हैं, लेकिन कुछ और भी है जो इनको ठहराता है।

देवदार पेड़ के पास चबूतरे पर बैठे लोग। फोटो: भावना ठाकुनी
देवदार पेड़ के बगल में पइंया का पेड़ फोटो: भावना ठाकुनी

देवदार के बिलकुल बाजू में एक दूसरा पेड़ है जो कि गांव के लोगों के आने-जाने के मुख्य रास्ते के पास है, चाहे वो तीखी चढ़ाई काटते हुए तल्ला सरमोली से आने वाला बाट(सी.सी मार्ग) हों या फिर मुनस्यारी बाज़ार से धीमी चढ़ाई काटते हुए सड़क, जो गांव तक लोगों को लेकर आती है। इस पेड़ से मैं आपका परिचय करवाना चाहती हूं।

यह है पइया का पेड़। चबूतरे के नीचे ढलान पर बसे हमारे गांव के घर व खेत साफ नजर आते हैं। ठीक सामने बर्फ से ढके पंचाचूली पर्वत की चोटियां सूरज की चमचमाती धूप में खड़े दिखाई देती हैं। चबूतरे से जब थोड़ा सा दाईं ओर देखो तो सरमोली गांव की रहने वाली, अनुसूइया दादी अक्सर अपने खेतों में काम करती दिखेगी। आज वे खेतों में से आलू निकाल रही थीं और घास भी काट रही थीं। तेज धूप में पसीना छूट रहा था और फिर थोड़ा आराम कर चाय पी रही थीं। मेरे मन में ख्याल आया कि इतनी गर्मियों में कैसे गरम-गरम चाय पी रही हैं!

चबूतरे से नज़र आने वाले खेत और पंचाचूली। फोटो: भावना ठाकुनी

मैं अक्सर मन ही मन यह सोचती थी कि लोग इस पेड़ को क्यों देखते रहते हैं? यह तो होने के लिए एक पेड़ ही तो है। फिर कई दिन, मैं भी पइया के पेड़ के नीचे बैठी। पेड़ की शाखाओं पर बैठे पक्षियों की चहचहाहट और चीं-ची सुनाई दी और उनके आने से पत्ते भी हल्के से हिलने लगे, जिससे एक धीमी आवाज़ आई। हरे चमकदार पत्तों के बीच बैठे पक्षी एक सुंदर तस्वीर बना रहे थे। हवा के झोंके के साथ पेड़ के गुलाबी रंग के फूलों से एक मीठी और ताज़ा सुगंध आई। मैंने एक लंबी सांस ली और जब आँखें बंद कीं तो मुझे कीट-पतंगों की आवाजें सुनाई दीं, जिससे मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। पेड़ के नीचे बैठ मुझे गर्मी से राहत मिली, साथ में मन में सुकून का ऐहसास हुआ। एक ही पेड़ से हम कितने जीव आकर्षित हो रहे थे।

पइया पर बैठा हुआ ब्लैक थ्रोटेड टिट। फोटो: सुमुख भारद्वाज

बसन्त ऋतु के आते ही न्योली (ग्रेट बार्बेट) आकर पइया के फलों को खाते-खाते जोर-जोर से अपनी विशिष्ट आवाज करने लगी- “ट्यू, ट्यू, ट्यू…”

न्योली (ग्रेट बार्बेट)। फोटो: दीपक पछाई

मैंने सोचा- इस पेड़ की और क्या-क्या खासियत हो सकती हैं। हम जीवों के बीच क्या संबंध बने हुए हैं?

पइया का पेड़ हमारे गांव का एक शक्सीयत, हमारे रोजमर्रा जीवन का हिस्सा है। इसकी शाखाएं हमारे बचपन की यादों को समेटे हुए हैं, इसकी जड़ें हमारे पूर्वजों की कहानियों को संजोए हुए हैं। मैं आपको इस पइया के पेड़ के पास आने का निमंत्रण देती हूँ ताकि आप भी इसकी अद्वितीयता को मेरे साथ समझें।

दो लोकों को मिलाने वाले पेड़ की कहानी

कहते हैं कि सतयुग (सत्य और धर्म का युग) की बात है, पइया का पेड़ इस धरती लोक में नहीं था। वह केवल पाताल लोक में पाया जाता था। कंस, कंसतोली के राक्षस कुल के राजा व योद्धा (जो श्री कृष्ण के मामा थे) ने पूजा करने के लिए पइया को इस धरती लोक में लाने का आदेश वासुदेव जी (कृष्ण के पिता) को दिया। उसने धमकी दी कि यदि वासुदेव, जो उस समय कंस के बंदी थे, पइया नहीं लाए, तो उन्हें मृत्यु दंड दिया जाएगा।

वासुदेव पूरे धरती लोक में पइया के पेड़ की खोज करते रहे, लेकिन कहीं भी नहीं मिला। अंततः वे पइया के स्थान पर सफेद तुसारी (डेब्रजीसिया) की पत्तियाँ लेकर लौटने लगे।

तभी कृष्ण प्रकट हुए और बोले, “पिताजी, यह आप क्या ले जा रहे हैं? पइया इस लोक में नहीं, बल्कि पाताल लोक में है, जहाँ आप नहीं जा सकते। मैं आपकी सहायता करूंगा।”

कृष्ण पाताल लोक जाने का निश्चय करते हैं। इसके लिए उन्हें पृथ्वी के नाभि केंद्र से जाना होता है, लेकिन मार्ग में एक बड़ी धर्म शिला (पूज्य पत्थर) थी। कृष्ण अपनी एक अंगुली से शिला को हटाते हैं, तो धरती के गराभ (अंदर) से जहरीली गैस बाहर आती है। वह गैस कोहरे की तरह फैलती है, और कृष्ण धरती परत से मिट्टी, पत्थर, धातु (चांदी) और स्वर्ण परत पार कर पाताल लोक पहुंचते हैं।

पाताल लोक में वे नागलोक के पइया वृक्ष के पास पहुंचते हैं। कृष्ण ने शेषनाग की पाँच बेटियों को अपनी लीलाओं से अपने वश में करके काली शेषनाग (पइया के रक्षक) के आगमन के संकेत पूछते हैं। नागिनें बताती हैं कि उनकी मां के आते ही पाताल लोक में गूंज और कंपन होता है। तभी काली शेषनाग गरजते हुए आ जाती हैं और मानव गंध को पहचान कर क्रोधित हो जाती हैं। कृष्ण पइया के पेड़ पर छिप जाते हैं और सहायता के लिए अपने मँह बोले मामा गरुड़ (चील) को पुकारते हैं। गरुड़ अपने 1600 साथियों के साथ पाताल लोक पहुँचते हैं, जिससे काली शेषनाग डरकर घिराल (ग्रास स्किंक – स्किनसिडे परिवार में छिपकली की छोटी प्रजाति) का रूप धारण कर कृष्ण के गले में छिप जाती हैं।

इसी बीच, एक अंधा गरुड़ साथी कृष्ण को दुश्मन समझकर उन्हें कट देता है, जिससे वे मूर्छित हो जाते हैं।  जब तक उन्हें चेतना लौटती हैं, शेषनाग पेड़ की जड़ों में जा छिपती हैं। कृष्ण उन्हें ललकारते हैं, तो शेषनाग अपने दुश्मनों को हटाने की शर्त पर बाहर आने का वादा करती हैं। कृष्ण के कहने पर गरुड़ वापस लौट जाते हैं।

कृष्ण और काली नाग में युद्ध शर्त लगी कि काली नाग अपनी डंक से इस पेड़ के सारे पत्ते गिराएंगे, और कृष्ण उसे फिर से हरा-भरा कर देंगे। यदि काली नाग जीतते, तो कृष्ण पइया को धरती लोक नहीं ला सकते। पर काली नाग हार गई। इसी कारण, पइया पेड़ हर साल कार्तिक मास (अक्टूबर मध्य) में बेमौसम हरा-भरा हो जाता है।

कृष्ण, काली नाग पर सवार होकर पइया को धरती लोक लाए और कंसातोली में वासुदेव को सौंप दिया। कुछ पइया देव लोक में भी पहुंचा, जहां पंचनाम देवता और कृष्ण ने उसकी धूमधाम से पूजा की।

इसी दंतकथा के कारण, आज भी पहाड़ों में पइया को पवित्र मानकर ख्वदै पूजा (अलखनाथ पूजा) में विशेष सम्मान दिया जाता है, जहां पंचनाम, कालसिन, और गोलू देवता इसे पूजा में न्योतते (निमंत्रित) हैं।

ख्वदै पूजा। फोटो: सुरेश राम
पवित्रता का प्रतीक

उत्तराखण्ड में पइया का पेड़ अत्यंत पवित्र माना जाता है और इससे जुड़ी कई लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं। पइया के पत्तों का उपयोग पूजा-पाठ, विवाह, गृह प्रवेश, जनेऊ संस्कार और जागरण में किया जाता है।

चौना गांव के निवासी बच्ची सिंह चिराल, बताते हैं कि इस पूजा को पूरे चौना गांव में नहीं, बल्कि केवल चिराल पट्टी के लोग ही करते हैं। चिराल पट्टी में तीन राठ (जातियां) होती हैं—कला पट्टी, ग्वाना पट्टी और राता पट्टी। बच्ची सिंह बताते हैं कि ख्वदै पूजा कई पीढ़ियों से की जा रही है। यह पूजा पांच, सात, नौ या बारह वर्षों के अंतराल पर आयोजित की जाती है। खास बात यह है कि यह पूजा कृष्ण पक्ष में नहीं, बल्कि केवल शुक्ल पक्ष में की जाती है। पूजा की तिथि और शुभ लग्न का निर्धारण करके ही इसे शुरू किया जाता है।

इस पूजा में सबसे पहले गांव के लोग, पंडित (जो पूजा कराते हैं) और धामी (पंडित के सहायक) जुटते हैं। शुरुआत पइया के पेड़ की पूजा से होती है। इसके साथ बाँज की टहनियों का उपयोग किया जाता है, और नोर्त (जागरण) लगाया जाता है। नोर्त में पइया के पत्तों सहित अन्य सामग्री से एक अस्थायी मंदिर बनाते हैं। लोग रात के 12-1 बजे तक हुड़का (जानवरों की खाल से बना एक वाद्ययंत्र) बजाते हैं ताकि सिद्धू रामोला, और नरसिंह देवता किसी के शरीर में अवतरित होकर पूजा में उपस्थित हो सकें।

पइया के पत्तो से बना मंदिर। फोटो: पंकज कुमार

दूसरे दिन, शुभ लग्न के अनुसार पइया न्योतने की परंपरा निभाई जाती है। इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति के शरीर में गुड़ल (देवता) आता है। वह व्यक्ति पइया के पेड़ पर चढ़कर वहां से पइया की टहनी तोड़कर लाता है। इस टहनी को डोली में रखकर मंदिर में लाया जाता है। मंदिर में पइया की टहनी और बुराँश (रोडोडेंड्रन) के पत्तों से कुनौल (गोल चक्र) बनाया जाता है। इस चक्र में सीख (ढेर)— चावल, फल, फूल, पूरी और बड़ा (पकवान)—भरकर रखा जाता है। इसे “ख्वदै क आहार” कहा जाता है। पूजा समाप्त होने के बाद, ध्यों-ध्यानियों (बेटी-बहनों) और न्योति पातियों (मेहमान) को शगुन के रूप में सीख दिया जाता है।

सीख—चावल, फल, फूल, पूरी और बड़ा (पकवान)।फोटो: भावना ठाकुनी
धरती लोक में पइया का जीवन चक्र

बचपन में मैं और मेरे दोस्त, पइया के पत्तों को तोड़कर  जीभ से चाटते थे। क्यों चाटते थे? क्योंकि उसके पत्तों में मधुमक्खियाँ शहद छोड़ती हैं, इसीलिए पइया के पत्तों को छूकर देखें तो वह बहुत च्यतप्यत (चिपचिपा) होता है।सर्दियों में हरे चारे की कमी होने पर जिन जानवरों को इसकी आदत पड़ जाती है, वे उन्हें चारे के रूप में खाते हैं।

पइया के पेड़ के हरे चमकीले पत्ते। फोटो: भावना ठाकुनी

पइया का पेड़ उत्तराखण्ड हिमालय के कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक सभी जगहों में पाया जाता है और यह बहुत विशाल बन सकता है।, कमला चाची बागेश्वर जिले से ब्याह कर यहां सरमोली आई हैं, और उनके यहां वे पइया को ‘पोंयी’ कहते हैं। पइया के पेड़ को हिंदी में पदम कहते हैं और अंग्रेजी में इसे हिमालयन वाइल्ड चेरी कहा जाता है। यह पेड़ रोसेसी परिवार से संबंधित है, और  इसका वैज्ञानिक नाम Prunus cerasoides है। यह पेड़ मुख्यतः 1200 से 2400 मीटर (3900-7900 फीट) की ऊँचाई पर पाया जाता है और इसकी ऊँचाई 30 मीटर या 98 फीट तक हो सकती है। पइया की शाखाएँ चारों दिशाओं में फैलती हैं और घनी छाया ज़मीन को ठंडक देती है । इसके पुराने पेड़ों का तना बहुत मोटा होता है, जो उसकी आयु और मजबूती को दर्शाता है और  अनगिनत ऋतुओं का मौन साक्षी बनकर खड़ा रहता है।

अपने यौवन में एक पइया का पेड़। फोटो: भावना ठाकुनी

पइया का फूल अक्टूबर-नवंबर मेंमें खिलता है जब किसी और पेड़ का फूल नहीं खिलता । इसकी हल्की गुलाबी पंखुड़ियाँ बहुत नाज़ुक और कोमल होती हैं, इतनी कि थोड़ी सी भी छेड़खानी से मुरझा या टूट सकती हैं। पइया के फूलों की सबसे खास बात यह है कि वे बहुत सुगंधित होते हैं और उनकी महक दूर तक फैल जाती है। जब मैं पेड़ के पास जाती हूँ, तो उसकी सुगंध मुझे पहले ही महसूस होने लगती है। जब पइया के फूल खिलते हैं, तो पूरे पेड़ की शाखाओं पर एक सुंदर गुलाबी सतह छा जाती है। जब दूर से खेतों और ढलानों पर गुलाबी रंग दिखाई देता है, तो पता चल जाता है कि  पइया में फूलों की बहार छा गई हैं।

पइया के गुलाबी फूल। फोटो: सुमुख भारद्वाज

जब पहाड़ों में सर्दी बढ़ती है तोपइया के पत्ते पूरी तरह से झड़ जाते हैं। पत्तों के गिरने की प्रक्रिया अक्टूबर के अंत से शुरू हो जाती है। इसमें खास बात यह है कि झड़ते समय, पत्ते पहले धीरे-धीरे हलके से पीले और भूरे रंग में बदल जाते हैं और फिर गिरते हैं। नई पत्तियाँ दिसंबर-जनवरी के महीनों में आती हैं और फिर अपना गहरा हरा और चमकिला रूप आज़मा देती हैं।

पइया के फल अप्रैल-मई के महीनों में लाल हो जाते हैं। पहले तो ये फल हरे रंग के होते हैं, फिर धीरे-धीरे पीले और नारंगी होकर आखिर में टमाटर जैसे लाल हो जाते हैं। मई के महीने में पूरा पेड़ फलों से भर जाता है। मैं तो बचपन में अपने दोस्तों के साथ बहुत सारे फल तोड़कर खाती थी। इनका स्वाद एकदम खट्टा-मीठा-कसैला होता है, जिसे खाकर आँखें एकदम से बंद हो जाती हैं और जीभ भी मुँह की ऊपरी छत को छूकर एक “टा” की आवाज़ निकालती है। फल के अंदर का बीज थोड़ा बड़ा होता है और फल का आकार भी एक मटर जितना ही होता है, जिससे कि सिर्फ एक फल खाने से बहुत स्वाद नहीं आता।

हरे रंग के पइया के फल। फोटो: भावना ठाकुनी

पइया के बीज ऐसे ही बोने से नहीं जमते है। पेड़ को उगने के लिए बीज का प्रचार पक्षी के बीठ (मल) से ही हो सकता है। होता यूँ है कि जब पक्षी फल खाते हैं और उसका बीज बीठ में निकलता है, तो वह जहाँ गिराया जाता है, वहाँ उगता है। इसके साथ मिट्टी के प्रकार की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पेड़ों के बीजों को नर्सरी में रखकर भी जमाया जा सकता है, परन्तु इसमें उनकी सतत देखभाल करनी पड़ती है। नर्सरी में भी पइया के बीज बीठ से ही जमते हैं। जिन्हें पइया उगाना होता है, वे सबसे पहले इन बीठो को ढूँढ़ते हैं और फिर उनका उपयोग कर पेड़ उगाते हैं।

पइया के बीज। फोटो: भावना ठाकुनी

शायद पेड़ और पक्षियों के बीच का यही अनोखा संबंध इस पेड़ को और भी आकर्षक बना देता है। मुझे धीरे-धीरे समझ आ रहा है कि क्यों लोग पइया के पेड़ के पास ठहर जाते हैं। हरे पत्तों के बीच लाल फलों की सुंदरता, पक्षियों की लगातार चहचहाहट और पंख फड़फड़ाने की आवाज़, खूबसूरत गुलाबी फूल और गिरते पत्ते – यह पेड़ हर मौसम में आनंद का अनुभव कराता है। पेड़ के पास बैठने पर समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। यह पेड़, जो एक प्राकृतिक चमत्कार है, हमारे इतिहास और संस्कृति का भी हिस्सा है। तो, मैंने सोचा, क्यों न इसके साथ जुड़ी कहानियों को जानने की कोशिश करू?

हमारे जीवन में पइया

सितंबर में जब गाज्यो (एक प्रकार का चारा का घास) सूख जाती है, तब उसकी कटाई शुरू होती है और उसका ढेर बनाकर ऊपर पइया की पत्तों से भरी टहनी लगाई जाती है। पहले, जब लोग घर बनाते थे, तो छत घास की होती थी, जिसमें छत की धुरी (सबसे ऊपरी भाग) पर पइया की टहनी लगाई जाती थी। हमारे पूर्वजों ने सदैव उन प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान किया है जिसपर वे निरभर थे और हमें भी इस परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

गाँव में पइया के पेड़ को देव वृक्ष भी माना जाता है। विवाह के समय एक कलश में पइया की पत्तियों से भरी टहनी तैयार किया जाता है ताकि वर-वधू के नवजीवन में मजबूती और खुशहाली का प्रतीक है। शादी का स्वागत गेट भी पइया के पत्तियों से सजाने की पुरानी परंपरा रही है, लेकिन अब रंग-बिरंगे प्लास्टिक से सजे का चलन हो गया है।

पइया के पत्तों से बनाया गेट। फोटो: भावना ठाकुनी

पइया की पत्तियों का गेट प्राकृतिक और पर्यावरण-अनुकूल, सुगंधित और आकर्षक होता है। बाद में इसका उपयोग खाद बनाने में किया जाता है। प्लास्टिक का गेट सस्ता और आसानी से उपलब्ध होता है, अधिक समय तक चलता है और इसमें कम रखरखाव की आवश्यकता होती है। लेकिन प्लास्टिक से पैदा हुआ कूड़ा पहाड़ों और अन्य प्राकृतिक स्थलों में फेंका जाता है, जिससे इन क्षेत्रों का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट होता है।

पइया का पेड़ हमारे रोजमर्रा जीवन के अनेक पहलुओं का हिस्सा बन चुका है। लोहे से बने हुए चाकू, कुल्हाड़ी और इत्यादि औज़ार की धार को तेज़  करने में कोयले का इस्तेमाल किया जाता है। लोहार कोयला बनाने में पइया की लकड़ियों का उपयोग करते हैं। गाँव-घर में पइया की लकड़ी का उपयोग जलाने के लिए नहीं किया जाता है क्योंकि उसकी आग बहुत तेज़ होती है।

मेरी दादी कहती है, “लोग अगर खाना बनाने में पइया की लकड़ी का इस्तेमाल करेंगे तो बर्तन पिघल जाएँगे।”

पइया की लकड़ी से बनी हुई लोहे की दराती फोटो: भावना ठाकुनी

साथ में, पइया की लकड़ी से दराती (सिकल) का हैंडल बनाया जाता है और इसका उपयोग तंत्र-मंत्र या धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। गाँव में नवजात बच्चों को एक विशेष डलिया में सुलाया जाता है और उनकी सुरक्षा के लिए सिराने के किनारे पइया के हैंडल वाला दराती को रखा जाता है ताकि बच्चे को बुरी नजर से बचाया जा सके।

नवजात शिशु के लिए एक विशेष डलिया (टोकरी) जिसमें पइया की लकड़ी से बनी दराती रखी जाती है। फोटो: भावना ठाकुनी

पहाड़ों में कहते हैं कि जब किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है, तो रात में जागरण करना चाहिए और उस समय पइया की पत्तियों का टहनी सहित प्रयोग किया जाता है। धार्मिक कार्यक्रमों में बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों जैसे डम्हो और नंगारे (ढोल-नगाड़े) में पइया के पेड़ की टहनियों का उपयोग बजाने के लिए किया जाता है जो सबसे पवित्र माना जाता है। यही कारण है कि आज भी पहाड़ों में हमें पइया का पेड़ देखने को मिलता है।

वाद्ययंत्रों जैसे डम्हो और नंगारे (ढोल-नगाड़े) में पइया के पेड़ की टहनियों का उपयोग किया जाता है। फोटो: भावना ठाकुनी
एक आकर्षक आश्रय

मुझे इस पेड़ के नीचे बैठना बहुत पसंद है, क्योंकि यह मुझे विभिन्न पक्षी प्रजातियों को देखने और पहचानने के लिए एक आदर्श स्थान प्रदान करता है। पइया के पेड़ पर बहुत रंग-बिरंगे पक्षी उसके रसीले फलों से आकर्षित होकर आते हैं। लैम्पुंची यानि येलो-बिल्ड ब्लू मैगपाई यहाँ सबसे ज्यादा आते हैं। साथ मे बुलबुल, मायना और ओरिएंटल व्हाइट आई भी आते हैं। यह किसी भी पक्षी के विशेषज्ञ के लिए सबसे बढ़िया जगह है।

पइया केवल इंसानों और पक्षियों को ही मोहित नहीं करता, बल्कि कई जानवर भी इसकी ओर आकर्षित होते हैं। खासकर, लंगूरों को पइया बहुत पसंद आता है। जब पइया पर कलियाँ निकलना शुरू होती हैं, तो लंगूरों का झुंड कोमल पत्तियों को खाने आते है। इसके अलावा, इस पेड़ की छांव का आनंद गाँव के बहुत से कुत्ते और बिल्लियाँ भी उठाते हैं।

इस कहानी को लिखते-लिखते, मुझे समझ आया कि लोग इस पेड़ के पास क्यों रुकते हैं और इसे क्यों देखते रहते हैं। इस पेड़ से एक रिशता बनाने पर मेरे गाँव के लोगों के जीवन चक्र में इसकी भूमिका के बारे में एहसास हुआ। मुझे यह समझ आया कि आपस में कितनी कहानियाँ एक साथ जुड़ी हुई हैं– जन्म, फिर बचपन से लेकर बुढ़ापे तक का सफर इस पेड़ ने देखा है और देखता रहेगा। शायद इसके नीचे बैठकर लोगों को गाँव की विभिन्न कहानियों का परिचय मिलता होगा, एक लंबे सफर की भावना मिलती होगी, जिसके हमसफर गाँववाले और पर्यटक दोनों बनना चाहते हैं।

पेड़ के पास बैठीं भावना ठकुनी फोटो:  कमला पाण्डे।

पइया के पेड़ को निहारते हुए मैं सोच रही थी कि इसकी जड़ें कहां से कहां तक फैली होंगी। यह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी डटा रहता है और अपनी जड़ों को मजबूत बनाए रखता है। प्रतिकूल मौसम में पइया का पेड़ खुशहाल रहता है। जब शीतकाल ऋतु में सभी पेड़ों की पत्तियां गिर जाती हैं, तो तब पइया के फूल खिलते हैं। मैं भी इसी पेड़ की तरह मजबूत बनना चाहती हूँ और अपनी जिंदगी में चुनौतियों का सामना डटकर करना चाहती हूँ। शायद लोगों को पेड़ को देखकर यह सब महसूस होता होगा और वे इसलिए यहाँ लंबे समय बैठते होंगे।

Meet the storyteller

Bhawana Thakuni
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Bhawana Thakuni, known as Bhanu to her friends, is from a farming family of Sarmoli village. She has been part of Maati collective since childhood, where she would tag along with her grandmother. Today she lends her youthful energy in the collective on issues of struggles and celebrations of the region. Bhanu enjoys sharing proverbs and joking around with people. Since 2004, she has been lending a helping hand in running her grandmother's home stay, and is known for her tasteful food. Bhanu is an independent and sorted young woman who has decided to stay with her family and in her village.

 

भावना ठाकुनी, उर्फ भानू, सरमोली गांव के एक किसान परिवार से हैं। बचपन से वो अपनी दादी के साथ माटी संगठन में आया करती थी। आज वो संगठन में क्षेत्र के सुख-दुख के मुद्दों और संघर्षों में युवा ऊर्जा का प्रतीक है। भानू को कहावते कहने में और लोगों के साथ हंसी-मजाक करने में आनंद आता है। 2004 से वो अपनी दादी के होम स्टे चलाने में हाथ बटाने के साथ अपने हाथ के स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। भानू एक स्वछंद व सुलझी महिला है जिसने अपने परिवार व गांव में रहने का फैसला लिया है। 

 

 

Voices of Rural India
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Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

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