
अनाजों में जेष्ठ, जौं की कहानी
जौ की हमारे जीवन में एहमियत जानिये इस कहानी के जरिये
लेखिका: रेखा रौतेला
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आपने कभी हमारे गांव में जौं के हरे-भरे खेतों पर पड़ी हल्की बर्फ़ या ओस पर पंचाचूली के पीछे से उगते सबह के सुर्य की किरणें को चमकते देखा हो तो उस दृष्य की सुन्दरता मेरे जैसे आप के मन में भी बस जाती। हमारे पहाड़ के सीड़ी नुमा खेतों में जब जौं की बालिया मंद हवा में एक साथ लहराते देखें तो लगते है मानो वो सब मिल कर एक साथ डुस्का (पहाड़ी लोक गीत के साथ नृत्य) गा रहे हो।

बचपन में मुझे बसंत पंचमी के दिन जौं सिर में रखने के लिये उसकी थोड़ी सी चमचमाती हरी पत्तियां उखाड़ कर लाने के लिये बहुत उत्सुकता हुआ करती थी। इसी दिन से मेरे परिवार के लोग खेतों में हल चला कर की खेती भी शुरु करते थे और बैंलो को जौं के आटे का गोला बनाकर खिलाया करते थे। जब मैंनेे अपना घर बसाया तो हर वर्ष अपने छोटे बगीचों व खाली जगहों पर कुछ बीज बो दिया करती हूँ। मेरे मन मैं यह बात बसी है की जौं को उगाना ही है भले गमले में क्यों न हो।
मेरा माँ बताती है कि जब ब्याह कर सरमोली आईं तो घर में जौं की रोटियां खाया करते थे। मुझे याद है कि 1970 के दशक तक लोग मुनस्यारी के गांव घर में जौं की खेती किया करते थे। 1972 में मुनस्यारी तक रोड पहुँचने से बाजार बढ़ता गया। साथ में अन्य रोजगार आने लगे और लोगों को लेबरी मिलने लगी। अब लोग घर में उगाये गये जौं जैसे अनाज की जगह बाजार से गेहँ राशन की दिकानों से खरीद कर खाने लगे । सरमोली जोकि मुनस्यारी बाजार के नज़दीक स्थित है- में खेती कम होने लगी। जौं का आटा बनाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है। जौं को पहले हल्का पानी छिड़क कर ओखली में कूटा जाता है उसके बाहर के छिलकों को साफ करने के लिये और तब तक कूटा जाता है जब तक साफ नहीं होता। माना जाता है कि जौं के सात परतें होती हैं। ठीक से साफ न होने पर रोटी में चिल्ली की मात्रा रह जाये तो गले में चुभती है। इसलिये गेहूं की तरह सरल नहीं है।
आजकल ऐसा लगने लगा था कि अब जौं का जमाना गुजर गया है।
फिर कुछ सालों से मैंने देखा कि मुनस्यारी में अक्टूबर माह में आलू निकालने के बाद जब खेत खालीहो जातें हैं तब तुरंत जौं की बुवाई की जाती है। जब जौं के पौधे छोटे होते हैं और उन पर बर्फ गिरना शुरु होती है तब लगता है कि ये सारे बर्फ़ से दबकर मर जायेंगे। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है और बर्फ़ पिघलती है तो पौधे मजबूत होकर खड़े हो जाते हैं। जनवरी माह तक जौं के पौध उगकर लगभग एक-आधा फुट तक ऊँचे हो जाता हैं। उसे’सुताल’ बोलते है और उसके ऊपर से गोबर खाद फैलाया जाता है। जैसे जैसे गर्मी बढ़ती जाती है उसके साथ-साथ पौधे भी बढ़ते जाते है और मार्च तक बालियां आने लगने लग जाती हैं।
मई तक फसल तैयार हो कर जौं की टिपाई की जाती है। पहाड़ो में जौं की टिपाई रिंगाल के दो डंडों (जिसे हम ‘सर्क्याट’ बुलाते हैं) के बीच 10-12पौधों को फसा कर अपनी तरफ खींच कर की जाती है। कुछ महिलाएं बालियां टीपते हुए खेत में आगे बढ़ती रहती है और कुछ पीछे छूटे बालियों को ‘हाथियाते’ आते है- यानि हाथों से उठाते हुये आते हैं। इन बालियों को 4-5दिन रोज धूप में सुखाया जाता है तब लकड़ी के डंडों (जिसे हम ‘सुल्यॉट बुलाते हैं) की मदत से उसे पीटा जाता है जिससे उसके दाने अलग हो जाते है।

भूसा व दानों को अलग करने के लिये दो लोगों द्वारा चादर से हवा लगाते है और एक जन सूप्पू से आनाज को धीरे-धीरे जमीन पर गिराया जाता है। हवा से भूसा उड़ कर अलग हो जाता है । इस तरह तीन सदस्यों की सहायता से जौं के अनाज को साफ कर दिया जाता है। इसके बाद लगभग 4-5दिन तक रोज धूप में सुखाया जाता है ताकि बची हुई नमी भी सूख जाये और अनाज खराब न हो।
1970 व ‘80 के दशक में गोरी घाटी के हर किसान के घरो में बड़े-बड़े आंस भकार (अनाज के भण्डारन ते लकड़ी से बनाये गये बड़े बक्से) बना हुआ करते थे लेकिन अब वो लगभग लुप्त हो चुका है। हमारे गांव सरमोली में अब जौं और अन्य अनाज टिन से बक्सों या कट्टों में भर कर रखे जाते है।
अब हमारे यहां मुख्तः जौ को गायों का पौष्टिक हरा चारे के लिये उगाया जा रहा है। साथ में जौं के बीजों को भून कर, पीस कर खिलाने से माना जाता है कि गाय का दूध गाढा हो जाता है।

खेती का पैयमाना बदल गया पर जौं की हमारे संस्कारों व आज के जीवन शैली में महत्त्व बरकरार रहा है। आज भी पूजा पाठ में तिल और जौं मिलाकर हवन किया जाता है। बसंत पंचमी के दिन जौं के पौधों की पूजा कर कान के पीछे रखा जाता है। ऋषि पंचमी के दिन देली बाली लगाया जाता है जहां जौं की बालियों को दरवाजे के चौखट में गोबर थाप कर कलों, चंदन, पीठाग, अकक्षत व फूल लगा कर देली को पूजा जाता है।
जौं को हमारे यहां के भोटिया संस्कृति में जान बनाने में इस्तेमाल करते है। जौं की जान (बियर) स्वादिष्ट व पौष्टिक मानी जाती है। शुभ कार्य में जैसे पित्र पूजन में (पित्रों को भूतों को याद करना) चढाने के लिये भी जान बनाया जाता है।

इंसान जब गुजर जाते हैं तब उसके अंतिम संस्कार में जौं के आटे का पिन्ड बनाकर यमदुत के लिये मृत शरीर को चढ़ाया जाता है। और मृत्यु के 10दिन तक जौं के आटे का धूप बनाकर गुजरे व्यक्ति को पूजा जाता है। वैसे तो जौं तीन प्रकार के होते है- काला जौं, सफेद जौं और खत्तर जौं। खत्तर जौं तो अब हमारे इलाके से लुप्त हो चुका है। माना जाता है कि काला जौं को भीगोकर उसका पानी सिर में डालने से सिर का दर्द ठीक हो जाता है और आज भी हमारे यहाँ दवा में इस्तेमाल किया जाता है।
देखा जाये तो जौं हमारे जीवन में जन्म से लेकर मरण तक साथ चलता है। एेसा है हमारा अनाजों में सबसे बड़ा या जेष्ठ माने जाना वाला आनाज। इसकी उपयोगिता को देख कर लोग अब हमारे गांव में फिर से जौं की खेती को बढावा देने लगे हैं।

मैं रेखा रौतेला ग्राम सरमोली की निवासी हूँ। मैं किसान की बेटी हूँ पर मैंने जौं की रोटी कभी नहीं खायी। आज जब कहानी लिखने का मौका मिला तो साधारण सा दिखने वाला अनाज जौं के इतने उपयोग समने आये। मैंने सोच लिया है अब जौं की रोटी जरुर खाऊंगी और अपने मित्रों को भी खिलाउंगी।
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