चुल्ली से जुड़ी खट्टी मीठी यादें
कहानीकार: ईशादामेस,
मीरू, जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश
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रविवार की सुबह माँ मेरे कमरे में आई और मुझसे कहा-
“ईशु हासल सारश, चूल” (ईशु जल्दी उठ, चुल्ली उठाने खेत जाना है।)
माँ की बात सुनकर मैं जल्दी से उठ गई और खेत ले जाने के लिए शिल (दोपहर या शाम का खाना) बनाने लग पड़ी। पूरे परिवार ने मिल कर नाश्ता किया और खेत के लिए निकल गए। खेत घर से थोड़ा दूर होने के कारण हमें सुबह जल्द ही खेत के लिए निकलना पड़ा। रास्ते में मुझे मेरी एक दोस्त का फोन आया। कई दिनों बाद उसका फोन आया था तो हम दोनो ने खूब सारी बाते की। मैंने उसे बताया कि मैं चुल्ली उठाने खेत जा रही हूं। यह सुनकर उसने मुझसे पूछा कि चुल्ली क्या होता है। उसके वहाँ यह फल नहीं होता है जिसकी वजह से समझना थोड़ा मुश्किल था कि यह होता क्या है। मैंने उसे समझाते हुए कहा –
“चुल्ली हमारे किन्नौर का एक पारम्परिक फल है जो खुमानी की तरह होता है। खुमानी का स्वाद खाने में मीठा होता है और चुल्ली का स्वाद खाने में थोड़ा खट्टा मीठा होता है। चुल्ली और खुमानी के पेड़ भी एक जैसे होते हैं। इसे फल स्वरूप या सूखा के मेवे की तरह खाया जाता है। किन्नौरी भाषा में चुल्ली को चूल कहा जाता है। हम किन्नौर वासियों का मानना है कि एक चुल्ली 20 औषधियों के समान है।”
इतनी बात सुनकर उसने मुझसे कहा-
“क्या मुझे चुल्ली का पौधा मिल सकता है ताकि मैं भी इस फल को खा सकूँ?”
यह बात सुनकर मुझे काफी अच्छा लगा। चुल्ली एक जंगली पौधा है जो खुद तैयार होता है। इसे खाद की भी जरूरत नहीं होती जो हम अन्य फलदार पेड़ों के लिए करते हैं। देखा जाए तो यह कुदरत द्वारा दी गई देन है। यह सब कुछ बताने के बाद हमारी बात खत्म हो गई और मैं भी अपने खेत पहुँच गई।
वहाँ पहुँचने के बाद मैंने देखा कि कुछ चुल्लियाँ ज्यादा पक जाने के कारण नीचे गिर चुकीं थीं और कुछ पेड़ों में ही थीं।
पिताजी बोले-
“तुम लोग थोड़ा बैठ कर आराम कर लो, तब तक मैं पेड़ से चुल्ली को झाड़ (गिरा) लेता हूँ।”
फिर हम सब मिलकर चुल्ली उठाएंगे। जब तक पिताजी पेड़ से चुल्ली झाड़ते, तब तक मैं गिरी हुई साफ़ साफ़ चुल्लियाँ उठा कर खूब सारी खाती।
चुल्ली खाते खाते मुझे बचपन की एक बात याद आई कि हम किस तरह स्कूल जाते वक्त लोगों के खेतों से छुप-छुप कर चुल्ली खाया करते थे।
माँ मुझे बुलाने लगी-
“जीरा ईशु चूल थोमों।“(आजा ईशु, चुल्ली उठाने)
माँ के बुलाने पर मैं चुल्ली उठाने लग पड़ी। चुल्ली उठाना मेरे लिए एक उबाऊ काम है। चुल्ली उठाने में मेरा मन नहीं लग रहा था। मैंने सोचा क्यों ना आपी (दादी) से गाना सुनाने को कहूँ ।
आपी ने गाना सुनाया-
“कोरिमांग ई मा ग्यालिशो ली छ़ेच्चंग च़उ कोरीमांग।
(लड़कियों की तरह किस्मत किसी की नहीं होनी चाहिए।)
ज़ोरिमाइनिंग माऊ किलिमो ली शीमिग आईधु किमो।
(जन्म अपने घर में लेना और मरना किसी और के घर में।)
आमास्ता रिनांग्योषा आंग चिमे आंग ज़िवा।
(माँ ने बोला मेरी बेटी मेरे दिल का टुकड़ा है।)
प्रायो बीमिग हालीचो ली जू छ़ेच्चंग च़ू कोरिमांग।”
(पराए घर में जाना ही लड़कियों’ की क़िस्मत है।)
आपी ने मुझे गाना भी सुनाया और खूब सारी बात भी हो गई। बात और काम करते करते दिन भी चला गया और सारी चुल्लियाँ भी उठा ली। दिन में जितनी भी चुल्ली इकट्ठा की, उसे शाम को सभी थोड़ा-थोड़ा करके घर ले आए।
घर लाने के बाद माँ उन्हें सुखाने लग पड़ी। सभी थक गए थे और हाथ मुंह धोकर आराम कर रहे थे। जल्दी से मैं रात का खाना बनाने लग पड़ी ताकि समय पे खाना खिला कर आराम कर सकूँ।
दो तीन दिन बाद जब चुल्ली अच्छे से सुख गई थी, मैंने माँ से चूल फांटिंग बनाने को कहा क्योंकि उसे खाए मुझे काफी दिन हो गए थे और खाने का भी बहुत मन था। चूल फांटिंग चुल्ली से बनाया जाने वाला किन्नौर का एक पारम्परिक व्यंजन है। मुझे आज भी याद है बचपन में जब मैं चोरी छुपे कच्ची चुलियाँ खाती थी, उससे मेरे पेट में दर्द होना शुरू हो जाता था। तब माँ मुझे यही चूल फांटिंग बना कर खिलाया करती थी। हमारे बड़े बुजुर्गों का मानना है इसे खाने से कई बीमारियाँ दूर होती हैं।
मुझे मेरे तेते (दादा) और आपी (दादी) ने बताया चूल फांटिंग से पेट दर्द व जुखाम ठीक होता है, पेट की पाचन शक्ति और शरीर का तापमान ठीक रहता है। और काम करने की ताकत आती है व मन लगा रहता है।
चूल फांटिंग बनाते वक्त माँ के साथ मैंने थोड़ी उनकी मदद की और साथ में देखकर सीखा भी। सबसे पहले माँ ने सूखी चुलियों को भिगोने के लिए रख दिया। जब चुल्ली अच्छे से भीग गई तो चुल्ली को हाथ से मसल कर गुट्टियों को अलग कर दिया। चुल्ली अच्छे से मसल मसल कर उसका लफ़ी (चटनी) बनाया। लफ़ी बनाने के बाद मां ने उसमे कोदे (रागी) का आटा लगाया। आटा लगाने के बाद उसे उबालने रख दिया। अच्छे से उबल जाने के बाद यह व्यंजन तैयार हो गया। पूरे परिवार ने मिलकर यह व्यंजन बहुत चाव से खाया। वैसे तो यह व्यंजन अपने आप में ही बहुत स्वादिष्ट होता है लेकिन पूरे परिवार के साथ मिलकर खाने से यह और ज्यादा स्वादिष्ट बन चुका था।
चुल्ली से निकली गुट्टी भी गुणकारी होती। चुल्ली गुट्टियों का एक प्रसिद्ध स्थानीय व्यंजन है रेमो-कान। माँ और आपी को रेमो-कान काफी पसंद है। रेमो यानी गुट्टी और कान यानी सब्जी। चुल्ली की गुट्टी को फोड़ कर उसके मेवे का लफ़ी बनाया जाता है। मेरी दादी कहती है गुट्टी जितनी कड़वी हो रेमो-कान उतना ही स्वादिष्ट बनता है। लफ़ी बना कर उसे तब तक अच्छे से उबाला जाता है जब तक उसका कड़वापन खत्म ना हो जाए। फिर उसमे हरी सब्जी भी काट कर डाली जाती है।
मैंने अपनी माँ और आपी को एक बार रेमो-कान बना कर खिलाया और साथ में मैंने ने भी खूब खाया। खाते खाते आपी ने बताया यह शरीर को गरम करता है और अनेक गुणों से भरपूर होता है। इसे चावल या रोटी के साथ खाया जाता है।
चुल्ली के गुट्टियों का तेल भी निकाला जाता है। एक दिन मुझे सत्तू (भुने जौ का आटा) खाने का बहुत मन था। मैं रसोईघर में गई और अलमारी में सत्तू और चुल्ली का तेल ढूंढने लगी। सत्तू तो मिल गया लेकिन चुल्ली का तेल कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। आपी किचन में आई और मैंने आपी से पूछा-
“आपी चूल तेलंग हाम तो”? (दादी चुल्ली का तेल कहां है?)
“युग स्टोरों नीतो थारा ग करतोक“(नीचे स्टोर में होगा, रुक मैं लाती हूं) आपी जवाब देते हुए स्टोर में गई और तेल ले कर आई। आपी को सीढियाँ चढ़ने -उतरने में बिल्कुल परेशानी नहीं होती। वह खेतों में काम भी खूब करती है। उनकी आंखें एवं घुटने एकदम स्वस्थ है। आपी के तेल लाने तक मैंने भी मीठी चाय बनाई। माँ कुछ काम कर रही थी। मैंने उन्हें बुलाया और हम तीनों ने मिलकर सत्तू खाया। सत्तू में चुल्ली का तेल मिला कर हम किन्नौर के लोग इसे मीठी चाय या नमकीन चाय के साथ बहुत चाव से खाते हैं। बड़े बुजुर्गों द्वारा यह काफी पसंद किया जाता है।
किन्नौर के लोगों द्वारा चुल्ली के गुट्टी का तेल मालिश बहुत अच्छा माना जाता है क्योंकि कहा जाता है मालिश करने से शरीर मज़बूत होता है। चुल्ली के तेल को पीने से लोग मानते है आँखों की रोशनी तेज़ होती है। कब्ज, हृदय, जोड़ों के दर्द, त्वचा व बालों के लिए भी चुल्ली का तेल अच्छा माना जाता है। चुल्ली के तेल को भारत सरकार द्वारा जी.आई.टैग भी प्राप्त है।
जब कभी भी आपी काम करके थक जाती है तो मैं उन्हें रात को चुल्ली के तेल से मालिश करती हूँ जिसके बाद उनकी थकान भी दूर हो जाती है।
चुल्ली की गुट्टियाँ से मेवा निकालने में मैं अक्सर माँ की मदद करती हूँ। माँ पत्थर से गुट्टियाँ फोड़ती है और मैं मेवे को टूटे हुए छिलको से चुन लेती हूँ। माँ ने मुझे बताया कि पुराने ज़माने में कानिंग (पारम्परिक ओखली) में गुट्टियों के मेवा को पीस-पीस कर तेल निकाला जाता था और ऐसे तेल निकालने से उसके गुण बरकरार रहते थे। आजकल तो हमारे पास बहुत सुविधाएं हैं और हम मशीन में जा कर तेल निकाल सकतें हैं। कानिंग में तेल निकालना बहुत कठिन कार्य है। मेरी माँ के अनुसार मशीन के तेल की गुणवत्ता कानिंग में निकले तेल से कम है।
मैं बचपन से देखते आई कि हर साल जब जून-जुलाई में चुल्ली का मौसम आता, तो माँ इन दो महीनों में चूल-मूरी (देसी शराब) निकालती है। इसका प्रयोग खासी-जुखाम में दवाई के तरह भी किया जाता है।
देखा जाए तो चुल्ली का हर भाग काम आता है। इसका कोई भी भाग बेकार नहीं जाता। चुल्ली के गुट्टी से निकले छिलके का प्रयोग आग जलाने में किया जाता है।
चुल्ली की गुट्टियों की हम किन्नौर के लोग पारम्परिक माला भी बनाते है जिसका शादी विवाह तथा अन्य खुशी के अवसर पर इस्तेमाल करते हैं।
2 जून 2014 की बात है जब मेरे छोटे भाई का शु-कुद (बधाई समारोह) था। घर के बड़ों द्वारा देवता जी के सामने बेटा या बेटी होने की इच्छा रखी जाती है और वह इच्छा पूरी होने पर शु-कुद (बधाई समारोह) किया जाता है। यह प्रथा हमारे किन्नौर में पुराने जमाने से ही चली आ रही है और आज भी यहां के लोग इसे बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। मुझे आज भी याद है उस वक्त मैं 11 साल की थी। घर में पूरे गांव के लोग और सगे संबंधी रिश्तेदार आए थे। दिन में खाना और नाच गाना करने के बाद हम सब परिवार शाम के वक्त घर में आए सभी लोगों को चुल्ली गुट्टी की माला पहना रहे थे। उस वक्त मुझे पहली बार मालूम हुआ कि हमारे किन्नौर में इस तरह का रिवाज़ शामिल है। यह देख कर मुझे काफी खुशी हुई। किन्नौर का रिवाज और जगह से हटकर है, जो देखने और सुनने में बहुत सुंदर लगता है।
चुल्ली शायद एक ऐसा फल है जो किन्नौर के हर इंसान को पसंद हो क्योंकि यह फल हमारी परंपरा, हमारे खानपान और हमारे तौर तरीकों से जुड़ा हुआ है। बचपन में जिस तरह यह फल मुझे पसंद था उसी तरह आज भी यह फल मुझे बेहद पसंद है।