खोता भविष्य – हिमालय से विलुप्त हो रही बीजों की विरासत
मेरा बचपन फरसाली गाँव, उत्तराखंड में बीता जहाँ हम अपना साल भर का अनाज पारंपरिक खेती कर उगाया करते थे। पर आज हम हिमालय में उगने वाले इन विविध अनाज, दालें, तिलहन की खेती छोड़कर बाजार पर निर्भर होते जा रहे हैं। और इसके साथ हमारी जीवनशैली भी बदलती जा रही है। मैं इस कहानी में हिमालय की बीजों की यह खोती विरासत को साझा कर रही हूँ ताकि हमें याद रहे कि हमारी अन्न स्वराज, सुरक्षा और भविष्य इसी विरासत और ज्ञान में गुथा हुआ है।
कहानीकार- बीना नित्वाल, फ़ेलो हिमल प्रकृति
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड
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मेरा बचपन फरसाली गाँव में बीता है जो उत्तराखण्ड के बागेश्वर जिले में पड़ता है। वहाँ हमारी आजीविका का स्रोत खेती है। तब हम लोग खाने के लिये बाजार पर निर्भर नहीं थे, बल्कि साल भर का खाना अपने खेतों से उगा लेते थे। बाजार से ज्यादातर साबून, चीनी, चायपत्ती ही खरीदते थे और सब खाने का अनाज अपने खेत में उगाते थे। मुझे याद है, जब जुलाई में खेत में रोपाई लगाते थे और खेत में बहुत काम होता था, या फिर बरसात हो या गर्मी, तब भी साल भर खेत का काम हमें करना पड़ता था, तो मेरी मां कहा करती थी-
“खेती करने वालों का लोहे का सर और काठ की पांव होते हैं तब जाके खेती होती है।”
मैं अपनी मां के साथ खेत में जाती थी और उनके साथ खेती करती थी। काम करते समय कभी कभी दूर से बहुत सुरीले गाने की अवाज सुनाई देती थी क्योंकि जब महिलाएं खेत में काम करती थीं तब अपने मनोरंजन के लिये गीत गाया करती थीं। और जब सभी अपने अपने खेत में बुवाई करते थे तब ऐसा लगता था जैसे कि खेत में मेला लगा है। कोई हल चलाता था, कोई खाद फैलाते थे, कोई बीज डालते थे और खेत के कोनों में जहां हल नही पहुंचता था, वहां लोग फावड़े से खेत खोदते थे। बैल के गले में से घंटी की आवाज आती थी, साथ ही हल चलाने वाला खूब जोर से बैलों को डांटता था और कभी प्यार से बैलों के साथ बोलता था। बच्चे भी साथ खेत में खेलते हुये काम करते थे। हमारे फरसाली गांव में हम सभी बच्चे खेतों में काम और खेल खेलने में खुश रहते थे।
मैं इस कहानी में उनमें से कुछ यादें साझा कर रही हूँ और आश्चर्य करती हूँ कि ऐसा कैसे हुआ कि हम आज जहां हैं वहां तक पहुंचे चुके हैं।
जब हमारे गांव में मक्के की खेती हुआ करती थी तो हम सारे बच्चे शाम के समय मक्का चोरी करने जाते थे, खासकर उस समय जब बारिश हो रही होगी और घना कुहरा लगा हुआ होता था। मक्का चोरी करते समय हम लोग पहले ही प्लान बनाते थे कि आज हम किसके खेत में धावा बोलेंगे। फिर मिल कर मक्का चोरी करते थे। मक्का चोरी करते समय जब हम मक्का तोड़ते थे तब तोड़ने की आवाज आती थी-
“कचररर.. कचररर..”
आवाज आने पर फिर लोगों को पता चल जाता था कि खेत में कोई मक्का तोड़ रहे हैं। जब लोग खेत में देखने आते थे हम छुप जाते और खेत से मक्का लेकर भाग निकलते थे। गाय भैंसे के आँगन में धुआ करने के लिये आग जलाये रखा करते थे ताकि उनको काटने वाले कीट दूर रहें। हम वहीं जाकर मक्का को आग में भून कर खाते थे। मक्के की भुनी हुई खुशबू से घर वालों को पता चल जाता था कि इन लोगों ने मक्का चोरी किया है। पर हमको बहुत मजा आता था। अब हम ऐसे दिन को खूब याद करते हैं।
हिमालय में कई ऐसी मडुवा-बाजरा-ज्वार की फसले थीं जो पहाड़ी किसान उगाया करते थे। चीना को पहले गांव में सभी लोग उगाते थे। अब दूर दराज के गांवों में कुछ लोग ही इसे उगाते हैं, खासकर उन गांवों में जो बाजार से दूर स्थित हैं। इसकी बुवाई अप्रैल-मई में की जाती है और फसल की कटाई अक्टूबर-नवम्बर में किया जाता है। चीना का पहले भात बनाकर खाते थे। इसका खाजा बनाकर भी खाते थे। हमारे यहां चीना को मंदिरो में चढा़वा में नही चढा़ते है। मान्यता यह है कि हरियाली दिवस (जुलाई माह में) के बाद जब खेतों में जब फसल पकता है, उस दिन से फसलों में गाय का दूध और घी भरने लगता हैं। पर माना जाता है कि चीना में गाय का नहीं, कुत्ते का दूध भरा होता है और इस लिए उसे मंदिरो में नहीं चढ़ाया जाता।
वैसे ही पहले कौनी की खेती खूब करते थे। उस समय इसका भात बनाकर खाते थे। इसका मीठे मे खीर बनाकर भी खाते थे। तब यहां धान कम मात्रा में उगाता था। जब धीरे धीरे धान की खेती बढने लगी तो लोगों ने कौनी को बोना कम कर दिया। अब तो कौनी उगाना ना के बराबर हो गया। कौनी को जो किसान आज थोड़ा-बहुत उगा रहे है वो सिर्फ मान्यता के लिये उगाते हैं क्योंकि इसे अभी भी मन्दिरों में चढ़ाया जाता है।
मडुवा के फसल को हम अप्रैल-मार्च में लगाते हैं और इसके कटाई अक्टूबर-नवम्बर में करते हैं। इसकी रोटी का रंग गहरा और खाने में बहुत स्वादिष्ट होती है और गरम भी होती है।
हमारे यहाँ की कहावत है-
“मुन्ना बॉल चैय्टे-चैय्टे ओन, धान बॉल न्यूरि न्यूरि ओन।”
(जिनके पास सब कुछ है वो मुन्ना यानि मडुवे की बाली जैसे फैलते हैं और जो समझदार है वो धान की तरह हर किसी के साथ झुक के बात करते हैं)
मडुवे की उगने के स्वभाव से जुड़ी एक और कहावत है-
“मुन्ना ग्योरों उल्ट खुट‘”
(जब मडुवा गिरता है तो पीछे की तरफ लुढ़कता है। जब हम कुछ लोगों को बुलाते हैं तो जहां बुलाया जा रहा है उधर न आकर वे हमेशा इधर उधर चले जाते हैं)
मैं जब शादी करके सरमोली के गांव आई तो मुनस्यारी में सभी गेहूँ बोय करते थे। जब से कंट्रोल (सरकारी राशन की दुकान) से गेहूं मिलने लगा है तब सेयहां लोगों ने इसे बोना बहुत कम कर दिया है। गेहूँ की बुआई अक्टूबर-नवम्बर में करते हैं और कटाई अप्रैल- मई में। गेहूँ के आटे की रोटी मडुवे से कोमल होती है। पर आजकल हम बाजार से जो गेहूं का आटा खरीद कर रोटी बनाते है, वह चबाने में रबड़ जैसे और खाने में खिचने जैसा होता हैं।
इसके इलावा हम कई प्रकार के जौं भी उगाया करते थे- जैसे काला, नीला व हरा जौं। अब इस में से एक तरह का जौं जानवरों के चारे के लिए उगाया जाता है। एक समय था जब काला जौं को दवा माना जाता था। धूप में काम करके जब कभी किसी को बुखार चढ़ जाता था तो लोग कहते थे-
“दोख आया है।” (सिर में बुखार चढ़ गया है)
ऐसे में काला जौं को पीसकर उसका पानी सर पर डालने से बुखार उतारा जाता था।
चूवा की फसल के बुवाई अप्रैल-मई में की जाती है और इसकी कटाई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है। हलांकि यह एक अनाज नहीं है, इसके आटे को उपवास के समय कई लोग खाते हैं। चूवा के लिये गांव में कहावत कहते हैं कि जब हम चूवा को गरम कढ़ाई में डाल कर भुनते है तब अवाज आती है-
“चरर चरर चरर।”
इसलिए जब कोई गुस्से में बहुत बोलते तो उसके लिये कहते है-
“क्या चूवा जैसा उलर (तेज बोलना) रहे हो!”
चूवा को पूजा पाठ में फराल (प्रशाद) के रूप में चढ़ाते है।
हमारे पहाड़ी गांवों में कई तरह की दाले उगाई जाती थीं। जाड़ों के समय जब बारिश गिरती थी, तब हम बाहर खेल नहीं पाते थे। उस समय चूल्हे में आग जलाकर, आस पड़ोस के बच्चे और घर के लोग मिल कर भट्ट लाते थे और एक साथ बैठ कर चूल्हे में रोटी बनाने वाले तवे में थोड़ा राख डाल उसे भूनते थे। भट्ट भुन जाने पर गुड़ के साथ सभी बच्चे मिल-बांट कर उसे खाते थे। आज भी पहाड़ों में भट्ट से चु़रकानी व डुबका (एक प्रकार की पहाड़ी दाल) बनाकर खाया जाता है। पर अब सरमोली के खेतों में नेपाल भट्ट उगते हुये नहीं दिखता है। आज से 15-16 साल पहले मैं तीन अलग-अलग तरह के भट्ट बोया करती थी जिसमें सफेद, कला व नेपाल भट्ट शामिल थे। लेकिन मैंने भी इसे उगाना छोड़ दिया है क्योंकि पहले हमारे पास खेत ज्यादा थे। अब उन खेतों में घर बन गए हैं और दूर के खेतों में फसल बोने पर जंगली जानवरों से फसल बचाना मुश्किल हो जाता है।
दालों में एक और किसम की दाल है जिसे हम उगाया करते थे और वो गुरौस है। इस दाल का दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब किसी को छोटी माता (चिकेन पॉक्स), जिसे गाँव घर में दोदोर (दाने) भी कहते हैं, आती थी तो उसे गुरौश की दाल खिलाते थे क्योंकि माना जाता था कि इसको खाने से दोदोर (दाने) जल्दी निकल के ठीक हो जाते हैं।
सभी दालों में से मुनस्यारी का राजमा प्रसिद्ध हैं। गोरी घाटी में अनेकों गांव के साथ सरमोली गांव (समुद्र तल से 2330 मीटर) में सफेद राजमा उगाया जाता है। हाल 2021 में मुनस्यारी के सफेद राजमा को भौगोलिक संकेत (जी आई टैग) व उत्तराखण्ड के बौधिक सम्पदा की पहचान मिला है। मुनस्यारी के राजमा की खासियत यह है कि अत्यन्त स्वादिष्ट होने के साथ यह जल्दी पकता है।
सफेद राजमा के इलावा मुनस्यारी में लाल, चित्रा, भैस्कू और भी राजमा उगाया जाता है। लाल रजमा का साईज सफेद राजमा से छोटा होता हैं। जल्दी पकने के साथ यह खाने में स्वादिष्ट होता है। लोग इस राजमा के लिये कहते हैं कि लाल राजमा खाने से पेट भारी नहीं होता। चित्रा राजमा पहले मुनस्यारी में बहुत बोया करते थे। अब लोगों ने इस राजमा को बोना कम कर दिया है। यह राजमा सफेद राजमा जैसा खाने में स्वादिष्ट और जल्दी पक जाता है। पर लाल राजमा की बाजार में मांग व पहचान अधिक होने के चलते यहां के किसान इसे ज्यादा उगाने लगे थे।
भैसकू राजमा के दाने सबसे बड़ा और रंगीन होते हैं। इसकी एक और खासीयत यह है कि इसे एक बार बोया तो यह तीन साल तक सीजन में अपने आप उगता है। इस राजमा को सूखा ही बना कर नाशते में खाया जाता है।
भी राजमा को पंद्रह जुलाई के बाद बोते हैं। राजमा के पौधे की बेल को चढ़ने के लिए ठंगरा (सपोर्ट के लिए रिगांल का या पेड़ के ट़हनी) के सहारे की जरूरत पड़ती है। परन्तु भी राजमा का पौधा छोटा होने के कारण उसे ठंगरा का सहारा नहीं लगाना पढ़ता हैं और किसान को कम मेहनत करनी पड़ती है। बाजार में इन दोनों प्रकार के राजमा की मांग नहीं है सो इन्हे अब किसान बहुत कम उगाने लगे हैं।
गहद एक तरह की दाल हैं जिसे अप्रैल-मई में बोया करते है और इसकी कटाई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती हैं। हमारे गांव घर में गहद को पानी में भिगा के उसके पानी पीने से माना जाता है कि पथरी का दर्द भी ठीक किया जा सकता है। पहाडों में इसको गहद की ठटानी (एक प्रकार की दाल) के नाम से जाना जाता है। लोग जाड़ों में ठटानी बनाकर खाते है क्योंकि यह शरीर को गरम रखता है। देखते-देखते अब गहद भी बहुत कम उगाते हुए मिलता है।
रियास की दाल को पहले काफी उगाया जाता था। इसका स्वाद ऐसा कुछ है जैस कि उरद की दाल में खूब घी डाला हो, और जब इसे लोग खाते हैं तो कहते है-
“घ्युवैन (घी के स्वाद वाली) दाल हुआ हैं।”
कलौं दाल की बुआई अक्टूबर-नवम्बर में अक्सर गेहूँ के साथ किया करते हैं और कटाई अप्रैल-मई में करते हैं। इसको लोग सूखे चने जैसे उबाल करके नाश्ते में भून कर खाते हैं। मुझे तो इसकी दाल भी बहुत पसंद है। पर अब लोग न तो गेहँ और नाकलौं की दाल उगा रहे हैं।
काला मसुर की बुआई अक्टूबर-नवम्बर में और कटाई अप्रैल-मई में की जाती है। पहले के जमाने में हमारे यहां इस दाल से रोटी भी बनाकर खाते थे।अब हम इस दाल को बाजार से खरीद कर खा रहे हैं।
सरसों को तेल के लिये बोया जाता है और हमारे यहाँ इसके पत्तों की सब्जी भी बनाते हैं। सरसों का तेल निकालने के बाद उसकी खली हम आपने गाय भैंस को खिलाते हैं। इसके बीज का पूजा पाठ में भी प्रयोग करते हैं। मीठा तेल जब आजकल जैसे बाजार में नहीं मिला करता था तो हम सभी पकवान, यहां तक कि हल्वा भी सरसों के तेल में बनाया करते थे। उस समय तली हुई पकवान सिर्फ त्यौहारों में खाया जाता था।
सरमोली और मुनस्यारी बाजार के आसपास गांवों में लोगों ने आज खेती करना कम कर दिया है। हम लोग अपनी खाने-पीने के सभी उत्पादों के लिए बाजार पर ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं। जो थोड़ी-बहुत खेती करते भी हैं वो भी जंगली जानवरों के वजह से नुकसान के कारण कम कर दिया है। गांव केलोग ज्यादा मजदूरी करने लग गये हैं क्योंकि कम से कम कमाई तो निश्चित है। भोजन, पोषण और दवा का पारम्परिक जोड़ की समझ भी टूट सी गई है। आज के दिन गांव में रहकर हम ना गांव जैसा रहे और ना हम शहर जैसा बने। मुझे तो यह लगता हैं कि अब हमारे बच्चे खेती और उससे जुड़ी जीवनशैली से दूर होते जा रहे हैं। हम लोग गांव में रहकर अपना गांव की जिन्दगी से भी दूर होते जा रहे हैं।
अभी 2023 में मुनस्यारी के आसपास के पांच गांव को नगर पंचायत बनाने पर जोर दिया जा रहा है जिसमें सरमोली भी शामिल किया गया है। मुनस्यारी के बाजार के लोगों को लगता है कि नगर पंचायत बनेगी तो हमारे पास शहर जैसी सुविधा होगी। पर मुझे तो लगता है कि हमारे गांव को गांव जैसा रहने दें। सुविधा के लिए गाँव को नगर पंचायत बनाना जरूरी नहीं है। सुविधा तो गाँव वालों को भी चाहिए होता है। हमें बस अच्छा अस्पताल, स्कूल में स्टाफ़ की व्ययवस्था और अच्छी सड़क चाहिए। इसके साथ हमारे लोग और हमारी सरकार भी खेती पर जोर दें ताकि आज के दिन लुप्त हो रही फसलों की विविधता को हम फिर से स्थापित करने का कोशिश करें।
हिमालय की अन्न स्वराज, सुरक्षा और भविष्य इसी ज्ञान में गुथा हुआ है।