
क्या मेरा भगवान पत्थर है?
आस्था और अस्तित्व के बीच का सलाव
उत्तराखण्ड के गोरी घाटी में मुनस्यारी की भूकंपीय पृष्ठभूमि में स्थित, जहाँ पृथ्वी की बेचैन
हरकतों ने अनगिनत चट्टानों से भरे एक अद्वितीय परिदृश्य को गढ़ा है, यह कहानी
भूविज्ञान और आध्यात्मिकता को साधारण तरीके से जोड़ती है। यहाँ पत्थर केवल प्राचीन
भौगोलिक टकरावों के अवशेष नहीं हैं, बल्कि पवित्र प्रतीक माने जाते हैं, जो पूर्वजों की
आत्माओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और गहराई से जुड़ी परंपराओं का केंद्र बनाते हैं।
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह विज्ञान और आस्था के बीच के अद्भुत संबंधों को
उजागर करती है, पृथ्वी की भूकंपीय शक्ति और मानव आस्था के बीच एक अनूठा संतुलन
प्रस्तुत करती है। यह कथा दर्शकों को भौतिक और आध्यात्मिक के गहरे संबंधों पर विचार
करने के लिए प्रेरित करती है, उन्हें यह सोचने के लिए छोड़ती है: हम पृथ्वी की शक्ति को
उन कोमल विश्वासों के धागों से कैसे जोड़ते हैं, जो इसे अर्थ देते हैं?

कहानीकार- हर्ष मोहन भाकुनी
ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड
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अम्मा का डांसी ढूंग में आस्था
हम पत्थर की पूजा क्यों करते हैं और इनमें क्यों आस्था रखते हैं?
यह सवाल मेरे मन की गहराई में बैठ गया है।
शाम के समय जब बचपन में अम्मा श्रद्धा से एक डांसी ढूंग (सफेद पत्थर) की आरती करती थीं, तब मैं भी बिना किसी विचार के हाथ जोड़े पत्थर को निहारता। मुझे एहसास हुआ कि यह वही सफेद पत्थर है जिसे मैं हमेशा आस-पास के खेतों में, नदी-गधेरों में देखता रहता हूँ, लेकिन कभी इस पर गौर नहीं दिया। उस उम्र में मुझे लगता था कि यह कोई चमत्कारी पत्थर होगा, जिसमें कोई अदृश्य शक्ति होगी, इसलिए अम्मा इस पत्थर की पूजा कर रही है।
अब मेरे मन में सवाल उठने लगे हैं— यह पत्थर क्या है और क्यों इतना पवित्र माना जाता है?
क्या मेरा भगवान पत्थर है?

हर दिन अम्मा शाम को पत्थर के सामने चंदन-पिठाक और फल-फूल चढ़ाकर तथा एक दीया रोज़ जलाकर आरती करती।
मैंने अम्मा से इसका कारण पूछा, तो उन्होंने बताया-“यो ढुंग त हमार पितर छ जैता उनी ने जानान यो दूनि बे तब त इनमा बसनान तब हेम यहें पूज लगोनू।”
(ये पत्थर तो हमारे पूर्वज हैं। जब वो इस दुनिया से चले जाते हैं तब इस पत्थर के रुप में बसते हैं।)
गांव में हमारे खस जाति समुदाय का किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद परंपरा के मुताबिक उसके परिजन पत्यून (पत्थर) ढुंढने जाते हैं। यह पत्यून पत्थर मरे हुए व्यक्ति का हमारी श्रद्धा के लिऐ एक प्रतीक है जो कोई डासी ढुंग (क्वॉर्टज़)या गाढ़ ग्वारंगल (नदी का गोल पत्थर)हो सकता है। मुनस्यारी के अलग-अलग समुदाय व जातियों के बीच पत्यून स्थापित करने की परंपरा तरीके भिन्न हैं।
मेरे लिए पत्थर सिर्फ पत्थर नहीं है, बल्कि धरती और सभ्यता की रचना का प्रमाण है। जहाँ पत्थर, पानी मिले, वहाँ लोग बसे। पहाड़ में इन्ही चट्टानों को तोड़ कर पत्थर के पारम्परिक मकानों में हमारा जीवन बसर होता है। पत्थरों से बनी दिवालबंदी हर घर-परिवार के सीमा-सरहद का संकेत देती है और हमारे घर व खेतों का आवारा, जंगली जानवरों से बचाव करते हैं। पत्थरों से बने खड़ंचे (पगडंडियाँ) लोगों के घरों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं- उन रिश्तों और भावनाओं को जोड़ती है, जिनका हम अपने तार्किक मन से एहसास नहीं कर पाते। पत्थर की भाषा चुप-चाप है, मगर उनमें अनगिनत कहानियाँ बसी है। कई बार ये पत्थर भगवान बन जाते हैं।

पत्थर व चट्टानों का इतिहास मानव युग से भी प्राचीन है। इन पत्थरों ने हमारे जीवन को बनते-मिटते, बिगड़ते व सुलझते जीवन की साक्षात गवाह हैं; फिर भी हम अक्सर उन्हें मात्र धरती पर परे टुकड़ों के रूप में देखते हैं। उत्तराखंड के ग्रामीण विकास एवं पलायन निवारण आयोग की रिपोर्ट (2018-2022) के अनुसार, आज उत्तराखंड के 1,792 गाँवों के लोग शहरों में रोजगार और बेहतर शिक्षा की खोज में पलायन कर चुके हैं। इन गांवों में कई पुराने घर, जिनकी चार दीवारें पत्थरों से बनी हैं, अब खंडहर बन चुके हैं। कभी जीवन से भरपूर ये खंडहर अब खामोश हैं, उन यादों की रखवाली कर रही हैं जो कभी उनमें संजोई हुई थीं। लोग इन गाँवों को अब भूतिया गाँव कहते हैं। उन गलियों में छुपना, वह घर का पात्थरों का बना धुर (छत), खौल (आँगन) जिसमें घटेली और जागर (घर के पितरों की पूजा) लगाकर अपनी पौरानीक गाथाओं को याद किया जाता था- अब सन्नाटे से घिर चुके हैं। लोग बिछड़ गए हैं, खेत बंजर हो गए हैं। इन सबका एकमात्र साक्षी अभी भी उसी जगह, उन्ही रास्तों में बैठा है। जो आज भी गाँव छोड़कर नहीं गया। मैं बात कर रहा हूँ सदैव विद्यमान रहने वाले अखंड मूर्त रूप में पत्थरों की।
मुनस्यारी में पत्थरों व चट्टानों की अस्तित्व

उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में खलिया रेंज के पूर्वी ढाल पर बसा मुनस्यारी गोरी घाटी के दाहिने भाग में स्थित है। यहां सर्दियों की ठंडी हवा पूर्व की तरफ बर्फ से ढकी ऊंची पर्वत श्रृंखला- पंचचुली और उत्तर की दिशा में हासलिंग से आती है। मिलम और रालम ग्लेशियर से निकलते धाराओं के साथ अनेक छोटी सहायक गाढ़ या नदियां हैं जो गोरी नदी को यहां की जीवन रेखा बनाती है।

मैंने स्कूल में पढ़ा था कि ये पत्थर केवल पृथ्वी की सतह से उत्पन्न नहीं हुए हैं, बल्कि लाखों साल पहले हिमालय की गहराई में इनका जन्म हुआ था। जब पृथ्वी के दो विशाल भौगोलिक (टेक्टॉनिक) प्लेटें, भारतीय और यूरेशियन प्लेटें आपस में टकराई, तो उस टकराव ने हिमालय को जन्म दिया।
मुनस्यारी बाजार के दक्षिणी ओर स्थित डानाधार, हिमालय के मुख्य भूगर्भीय जोर (मेंन सेन्ट्रल थ्रस्ट या MCT) के ठीक ऊपर स्थित है। MCT, जो एक प्रमुख भूगर्भीय भ्रंश (फ़ॉल्ट) है, के माध्यम से भारतीय प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे धंस रही है, जिससे हिमालय का उत्थान और विकास हो रहा है। यह क्षेत्र भूगर्भीय दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है और भूकंप, भूस्खलन और अन्य भौगोलिक घटनाओं के लिए उत्तरदायी होता है। MCT हिमालय पर्वतमाला के साथ उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व दिशा में लगभग 2,200 किलोमीटर तक फैला हुआ है और यह लकीर महान हिमालय (ग्रेटर हिमालय) को लघु हिमालय (लेसर हिमालय) से अलग करता है। इसलिए गोरी घाटी भूकम्प या सिस्मिक ज़ोन 5 का क्षेत्र है जहां प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूकंप और भूस्खलन की घटनाओं का प्रमुख कारण है। यहां के चट्टान व पत्थरों हिमालय के प्रलयकारी निर्माण की घटनाओं के साक्षी हैं। हमारे गाँव सरमोली के निकट, बलाती और ध्योहलार के नीचे, हमारे वन पंचायत के भीतर और गांव के बीच में भी, पृथ्वी की सतह से ऊपर निकले बड़े चट्टानी अंश (शैल दृश्यांश) हैं, जो इन नाटकीय घटनाओं के प्रमाण हो सकते हैं।
पृथ्वी के गर्भ में अत्यधिक तापमान और दबाव के बीच चट्टानें जब टूटकर एक-दूसरे से टकराईं, तब उनकी दरारों से धधकता हुआ लावा पृथ्वी की ऊपरी परत से बाहर निकलकर ठंडा होने लगा। इस लावे के ठंडे होकर जमने से कठोर पत्थर बने, जिन्हें समय के साथ नदियों की धाराओं और हवाओं ने घिसकर-घिसकर अलग-अलग रूप और आकार दिए। वैसे ही, हिमालय के गर्भ में भी जब चट्टानें आपस में टकराईं और बड़ी दरारें उभरीं, तो उनमें से लावा निकलकर ठंडा हुआ जो तरह-तरह के पत्थरों में बदल गया। हमारे यहां मिलने वाले कुछ पत्थर डांसी ढुंग (क्वॉटज़) कहलाए तो कुछ भुट्टि ढुंग (ग्नाइस) और पाथर ढुंग (स्लेट) के नाम से जाने गए। थूस्स-थूसी या बुस्ला (लाइमस्टोन) ढुंग जैसे पत्थरों ने तो करोड़ों-अरबों साल पुरानी जीवाश्म कहानियाँ अपने भीतर सहेजे हुए हैं। हमारी धरती को समझने की कोशिश में हर बार नए रहस्य उजागर होते हैं।

हिमालय में डांसी ढुंग या क्वार्ट्ज पत्थर आमतौर पर नदी किनारों, पहाड़ों की तलहटी या खदानों में पाया जाता है। मुनस्यारी ब्लॉक, जो समुद्र तल से ऊचाँई 1000 मीटर से 3750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, आग्नेय और कायांतरित चट्टानों से बना है, इसलिए यहाँ क्वार्ट्ज पत्थर आसानी से उपलब्ध होता है।
इन पत्थरों की यात्रा हिमालय की ऊँचाइयों से शुरू होती है, जहाँ से ये गाड़ ग्वारंगल (गोल आकार के पत्थर) नदियों के साथ बहते हुए अपनी यात्रा शुरू कर भाबर (मैदानी क्षेत्र और हिमालय के बीच) तक कंकड़, पत्थर, बालू व मिट्टी बन पहुँचते हैं।
यही पत्थर फिर अपने एक अनोखे सफर पर निकल पड़ते है- कुछ पत्थर पर्वतारोहियों या घूमने के शौक़ीन लोगों के हाथों से देश-विदेश के कोनों में चले जाते हैं, और कई सुन्दर सजावटी पत्थर लोगों के घरों में पहुँच जाते हैं। मेरे आस-पास मौजूद करोड़ों सालों पहले से जन्में यह पत्थर स्थानीय घरों में दिख जाते हैं।
पत्थरों के प्रति आस्था की स्थानीय जीवन में महत्व

गोरी घाटी और मुनस्यारी जैसे क्षेत्रों में पत्थर न केवल हिमालय के रीढ़ हैं, बल्कि इनसे जुड़ी धार्मिक विश्वास, परंपराएँ व मान्यताएं हैं जो समाज को जोड़े रखने का काम करती हैं। वैसे तो यहां के सभी किसान अपनी भूमि, जल, जंगल और पहाड़ों की पूजन करते हैं, जिनमें भूम्याल या थत्यालदेवता व जल देवियां शामिल हैं जो क्षेत्र की रक्षा करते हैं। गोरी नदी के पूर्वी ढाल पर स्थित छिपला केदार पर्वत की चोटी (4200 मीटर की समुद्र तल से ऊँचाई) का गोरी घाटी के लोगों का विशेष आस्था का महत्व रखता है। यह स्थान यज्ञोपवित या जनेंव संस्कार के लिऐ गंगा किनारे बसे हरिद्वार के समान मानते हैं। वहां स्थित विशाल पत्थरों पर देव अपतार (देवताओं का प्रकट होना) को बाजे-गाजे से बुलाया जाता है।

गोरी घाटी में रहने वाले भोटिया समुदाय, जोकि स्थानीय आबादी के लगभग 20 प्रतिशत है, की एक प्राचीन कथा के अनुसार, जब वे गोरी घाटी के जोहार इलाके में लाता नामक स्थान से अपने पूर्वजों की भूमि छोड़कर आए, तो भोटिया लोग अपनी संस्कृति, आस्थाओं और देवी-देवताओं के चिह्न भी साथ लेकर आए। मुनस्यारी के एक भोटिया इतिहासकार के अनुसार उनके समुदाय के इस यात्रा में सबसे पहले पाछू गाँव पहुँचने वाले पछप्वाल और नित्वाल जाति के पूर्वज धरमू गढ़वाल थे। कहा जाता है कि धरमू गढ़वाल ने लाता से पत्थरों से बना नन्दा देवी का प्रतीक, उस अद्भुत प्रतीक से पत्थर का टुकड़ा अपने साथ लेकर आए। पाछू गाँव उस समय मिलम गाँव का ही हिस्सा था, और मिलम के लोग भी पाछू में आकर नन्दा देवी के प्रतीक की पूजा करते थे। लेकिन समय के साथ, पाछू और मिलम के लोगों के बीच दूरी और मतभेद पनपने लगे। एक रात, जब पांछू गाँव गहरी नींद में था, मिलम के धामी (पूजा करने वाले) चुपके से पाछू आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने नन्दा देवी के प्रतीक के रूप में ध्वजा और प्रतीक (पत्थर) का एक टुकड़ा तोड़ा और उसे चुपके से मिलम ले आए। इस प्रकार मिलम में नंदाष्टमी का पर्व मनाने की परंपरा की नींव पड़ी, जो आज भी जीवित है।

पत्थरों की पूजा केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि यह समाज को एकजुट रखने की एक शक्ति है। समय के साथ, भले ही परंपराएँ बदल रही हों, लेकिन पत्थरों के प्रति श्रद्धा और उनका सांस्कृतिक महत्व आज भी जीवित है।

मेरे गांव सरमोली और पड़ोसी गांव शंखधुरा में कई ऐसे अद्भुत और विशाल पत्थर हैं जिनसे जुड़ी कई किस्से कहानियां हैं। तलभग 7 से 8 हजार फुट के बीच बसे इन गांवों में जगह-जगह जम (धरती के भीतर से उभरा पत्थर) व ठुल ढूंग (बहुत बड़े पत्थर) मिलते हैं जिनके इर्द-गिर्द हमारे घर-बार व जीवन की कई गतिविधियां सदियों से चली आ रही हैं। इनकी कहानियों को जानने के लिए मैंने गांव के कई लोगों से मुलाकात की, जिनमें से एक 60 वर्षीय बहादुर राम थे, जो पास के गांव जैंती के निवासी हैं।
जब मैंने बहादुर राम जी से पूछा, “आपको सरमोली के ग्वाल ढूंग के बारे में क्या याद है?”
उनकी आँखों में बचपन की चमक झलकी और हंसकर वे बोले- “छीला दिग ऊ पोरपरार दिन किदी भल छी! जब ले मी सरमोल तरफ औछू त तब तब मेहे याद औं।”
(वो बीते जमाने के दिन कितने अच्छे थे! जब भी मैं सरमोली की तरफ आता हूँ, तब-तब मुझे बचपन की याद आती है)
सरमोली में तब बहुत कम घर थे। गांव के ऊपर 34 हेक्टेयर में फैला सरमोली-जैंती वन पंचायत का क्षेत्र है, जो उस समय घना जंगल हुआ करता था। बहादुर राम का कहना था कि इस वन पंचायत की स्थापना उनके पूर्वजों ने 1949 में की थी। यहाँ बुरांश, खरशु, तिमशु, और अखरोट के बड़े-बड़े पेड़ थे, घास से ढके हुए बड़े-बड़े सेरा (खेत) और बौंज गार (बंजर जमीन) के टुकड़े भी थे।
“अरे भुला, क्या बताऊँ अब। मैंने तो पूरा बचपन ग्वाल ढूंग पर खेलकर ही बिताया है। तब सरमोली में पन घट्ट (पानी का चक्की) भी हुआ करती थी, अब नहीं है। बहुत साल पहले हम जैंतीं गाँव से अपनी गाय, बछड़े, भैंस के ग्वाला बन आया करते और ग्वाल ढुंग में बैठकर उन्हें चराते।”

उनकी बात सुनकर मुझे भी अपना बचपन याद आ गया, जब मैं भी उसी पत्थर पर फिसला करता था। एक तरफ से उस पत्थर की ऊँचाई तीन मंजिले मकान के बराबर है, जहाँ पर खड़े होकर नीचे देखने में डर लगता है। दूसरी ओर उसका ढाल एक फिसलनपट्टी जैसे है जिसपर हम बच्चे खेला करते थे।

ग्वाल ढुंग के नाम से एक और विशाल पत्थर शंखधुरा गांव के वन पंचायत के जंगल में भी है। बुडगैर धार के ठीक नीचे घास के मैदाने में ग्वाले अपने भेड़ बकरी चराया करते थे और उस पर विश्राम किया करते थे। पुराने समय में जब शिकारी जंगलों में जंगली सूआर का शिकार कर घर के रास्ते लगते थे तो ग्वाल ढुंग पर रूक कर हर शिकारी का हिस्सा बांटा जाता था।
ग्वाल ढुंग के कुछ ही दूरी पर है ब्योर ढुंग, जोकि 4 मंजली मकान के बराबर है। उसके ऊपर खड़े होकर आप दूर हमारी घाटी के तलहटी पर बहने वाली घोरी नदी को देख सकते हो। ढुंग के नीचे एक बड़ा उडियार (गुफा) है जहां बर्फ पड़ने के समय भेड़पालक अपनी 200 भेड़-बकरियों के साथ शरन लिया करते थे। आज के दिन वहां भालू और श्योल (साही) जैसे जीव पनाह लेते हैं।

शंखधुरा गांव के भीरत गेरू उडियार में लोग अपने आलू और राजमा बोए हुए खेतों को जंगली जानवरों के कहर से बचाने के लिए आज भी रात भर बैठा करते हैं। उडियार के मुख में एक छोटी पुरानी दिवाल बनी हुई है ताकि रात में ठंडी हवा से बचा जा सके।

ग्वाल ढुंग के सीध में फाटियो ढूंग है जिसे कहते हैं कि वज्रपात होने से वह दो टुकड़ो में फट गया। यहां आज गांव के लोग और ट्रेकर कैम्पिंग करने जाते हैं। वैसी ही सरमोली के वन पंचायत के घांगल (विशाल पत्थरों का जमावड़ा) में एक तीख्खू ढूंग है जिसपर हमारे गांव के साथी रॉक क्लाइमिंग करते है।

और फिर हमारे गांव में ऐसे भी तीख्खू ढूंग हैं जिसके भीतर गहरा भूमिगत गुफ़ा हैं। सरमोली के प्राथमिक स्कूल के नीचे सड़क किनारे चमले घांगल (चमले के पेड़ों से घिरा पत्थरों का जमावड़ा) के पास यह ढूंग है जिसके नीचे एक 30 फुट लम्बी गुफा है। पुराना किस्सा है कि उस गुफा के अन्दर एक औरत रहती है जिसके पास पन्नचक्की है और बड़े ताम्बे के तौल (बर्तन) और खजाना दबा है। चंद गांव के लोग और उचण्ड बच्चौं ने ही इस गुफा में घुसने का साहस किया है। पुराने लोग सभी को डरा कर रखते थे कि इस गुफा में जाना खरतनाक है। मुझे याद है कि बचपन में सरमोली गांव के बीचो-बीच जल देवी के मंदिर के ऊपर एक छोटी गुफा है जिसके अंदर हम तब घुसकर खेला करते थे, पर आज के दिन हम उसके अंदर ही नहीं घुस पाएंगे।

हमारे गांव में ऐसे चट्टानों से बने गुफ़ा भी है जिनमें सालों-साल तक लोग रहे थे। भीमू जोगी उडियार एक ऐसी गुफ़ा है जो किसी जमाने में सरमोली गांव के ऊपर घने जंगल का हिस्सा हुआ होगा। अब मकान उसी उडियार तक पहुँच चुके हैं। लोग अब भीमू जोगी की कहानी तक भूल चुके हैं। कहते हैं कि भीमू जोगी कई दशक पहले गुजर गए थे। बस, उस पत्थर के नाम से उस जोगी का नाम अमर हो गया।
पत्थरों का जिक्र हमारे रोजमर्रा बोल-चाल में प्रयोग होते रहता है। जो यहां की आन-कात्थ या कहावतों का हिस्सा बन गया है।
मैंने कई बार अपनी सहकर्मी के मुंह से मजबूत इंसान के लिऐ यह सुना है कि “गाड़ ग्वारंगल जस अठं!” यानि कि नदी के गोल पत्थर जैसे जगह-जगह ठोकर खाकर मजबूत इन्सान।
कभी किसी को टोकना हो तो बस इतना कह दिया कि- “ढुंग ज मैस।” यानि पत्थर जैसा कठोर इंसान।
किसी अरियल इंसान के लिए कहते हैं- “ढुंग दगार बुले या मैस दगार बुले या लोकड़ दागर,” यानि कि पत्थर के साथ बोला या लकड़ी के साथ- जो इंसान कोई जवाब नहीं देता या प्रतिक्रिया नहीं करता।
भूली बिसरी यादें- क्या पंरपरा का पतन?

शंखधुरा में भी सड़क किनारे एक विशाल पत्थर है, जो मेसर कुंड से निकलकर बहने वाली मेसर गाड़ (मेसर नदी) के बगल में स्थित है। इस पत्थर को सेसे ढुंग के नाम से पुकारते है। उत्सुकता से मैं गाँव के सबसे बुजुर्ग बुबू (दादाजी) के पास गया, ये सोचते हुए कि शायद उन्हें इसके बारे में कुछ पता हो। लेकिन बुबू ने सिर हिलाया और दूर कहीं देखने लगे। उन्हे “सेसे” नाम का अर्थ या इसकी कहानी याद नहीं थी।
इस रहस्य को जानने के लिए मैं गाँव में अन्य बुजुर्गों से मिला। लेकिन वे सभी एक ही जवाब देते- “के पत्त ने” (कुछ पता नहीं।)
फिर गांव में ही गाय चराते हुए नित्वाल बुबू दिखे। बुबू से एक उम्मीद जगी और मैंने पूछ लिया उनसे सेसे ढुंग के बारे में। उन्होंने बताया कि मेसर पूजा, जो आज भी बर्निया, सरमोली, शंखधुरा, नानासेम, और घोरपट्टा जैसे गाँवों के लोग पूरे श्रद्धा से मनाते हैं, शायद इस पत्थर की कहानी उससे जुड़ी हो। गांव की महिलाओं से पूछने पर पता चला कि मान्यता यह है कि गांव के ऊपर घने बुरांस और तिम्सू के जंगल के बीच स्थित मेसर कुंड में वास करने वाले मेसर देवता का सफेद घोड़ा ज्यूनेल रात (पूर्णिमा के रात) सेसे ढुंग के पास से आवाज लगाते हुए भागते हुए दिखा करता था। सोंबार अमौस (सोमवार को पड़ने वाला अमावस) जब जादू-टोटका ज्यादा होता है- उन दिनों में बर्निया गांव से अपहरण कर लाई अपनी संगिनी को मेसर देवता सेसे ढुंग लाया करते थे और उसे ऊपर से ही अपने गांव के खेतों में उगते धान और फसल देखने दिया करते थे। कहते हैं कि आज भी सेसे ढुंग के पास चंद गांव के लोगों को कभी-कबार एक सफेदपोश में प्रेत नज़र आता हैं।
इन आधी-अधुरी किस्से कहानियों से ऐसा लगता है कि यह पत्थर अपने राज़ गहराई में छुपाए हुए है।
नित्वाल बुबू ने अपनी भूली-बिसरी यादों को एक शांत उदासी के साथ सुनाई। उन्होंने बताया कि आधुनिक शिक्षा और तकनीक के बढ़ते असर से नई पीढ़ी इन पुरानी मान्यताओं को पहले की तरह आदर से नहीं देखते।
उन्होंने कहा, “हमारे लिए ये हमारी धरोहर का हिस्सा हैं, लेकिन अब अगली पीढ़ी तो इन्हें धीरे-धीरे छोड़ती जा रही है।”

पहले, जहाँ ये पत्थर केवल स्थानीय लोगों के पूजा स्थल थे, अब पर्यटन के कारण उनका व्यावसायिक और आर्थिक महत्व बढ़ गया है। धार्मिक स्थलों का एक प्रमुख हिस्सा पर्यटन से जुड़ गया है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के चलते अब इन प्राचीन मान्यताओं को एक नई पहचान मिल रही है। कई लोग इन स्थलों की तस्वीरें और कहानियाँ ऑनलाइन साझा कर रहे हैं, जिससे इन्हें लेकर नई धारणाएँ बन रही हैं। जिसकी जितनी जानकारी उस कहानी या प्रथा के बारे में थी, वे उतना ही पर्यटकों को बताते हैं, जिस कारण पर्यटक भी इन कहानियों को अपनी तरह से आगे लोगों को सुनाते हैं, जिससे कई बार मूल कहानी का स्वरूप बदलता जा रहा है।
इन कहानियों की खोज में मैं शायद पत्थरों से जुड़ी संस्कृति का पूर्ण खोज न कर पाया। लेकिन मैंने इन कहानीयों को लिखकर आस्तिक के मन को कुछ गहराई से समझने का प्रयास किया और उन मान्यताओं की भी खोज की जो इंसान को प्रकृति का अहम हिस्सा मानती हैं।

मरी समझ अब यह है कि मेरी अम्मा इन पत्थरों की पूजा इसलिए नहीं करतीं क्योंकि यह कोई जादुई पत्थर है, बल्कि इसलिए कि यह हमारे उन पूर्वजों का प्रतीक है, जो अब भौतिक रूप में हमारे बीच नहीं हैं। हर वर्ष अश्विन मास (सित्मबर-अक्तूबर) के कृष्ण पक्ष (घटता चांद) की पितृ अमावस्या पर पितरों का श्राद्ध मनाया जाता है और इसी दिन गाँवों में डांसी ढुंग को ढुंढ कर घरो में रखा जाता है। मेरे परिवार का इस पत्थर के प्रति गहरा जुड़ाव है। हो सकता है, किसी और के लिए यह केवल एक पत्थर हो, लेकिन हमारे लिए यह हमारे पूर्वजों का प्रतिक और आशीर्वाद है।
क्या मेरा भगवान पत्थर है?
मेरा मानना यह है कि अगर इस धरा के पंच तत्व- हवा, पानी, पत्थर, मिट्टी और आग को भगवान मानना सही है तो हाँ, में भी आस्तिक हूँ।
Meet the storyteller


It’s great story about that white stones brother keep it up
Nice 🥰
Bhut bdiya bhai
बहुत सुंदर