“कुट्टू : विलुप्ति के कगार पर एक विरासत फसल?”
इस पारम्परिक फसल को खतरा और इसका
पश्चिमी हिमालयी समुदायों पर प्रभाव
इस कहानी की लेखिका के साथ पश्चिमी हिमालय की यात्रा पर चलें, जहां वह वहां की अनोखी संस्कृति और प्राकृतिक सुंदरता के साथ बकव्ही यानि कुट्टू की खेती के रिश्तों के बारे बताती हैं। हिमाचल प्रदेश में किन्नौर की काल्पा घाटी के गांव राक्छम में रहने वाली अपनी मौसी की पारंपरिक खेती की तुलना वह उत्तराखंड के जोहार घाटी में शौका समुदाय की खेती के तरीकों से करती है और इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक पहचान में कैसे यह साधारण पर मजबूत फसल अभिन्न हिस्सा बन चुका है। बदलते मौसम और आधुनिकता की चुनौतियों के बीच आज स्थानीय किसान अपने पारम्परिक रीति-रिवाजोंको नई तकनीकों के साथ मिलाकर जीवनयापन कर रहे हैं। यह लेख आपको पहाड़ी समुदाय का अपनी भूमि के साथ गहरे रिश्ते का परिचित देता है और उनकी अपनी अनमोल कृषि विरासत को बचाने की दृढ़ इच्छाशक्ति को भी उजागर करता है।
कहानीकर्ता : प्रमिति नेगी
हिमल प्रकृति फेलो
रिकांग पिओ, जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश
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अगस्त की सुबह की धुंध हमें घेरे हुए थी। मैं अपनी मासी, इंदर देवी के कुट्टू के खेत में सफेद और गुलाबी पंक्तियों के फूलों के बीच खड़ी उन्हें निराई करते देखरही थी। मासी एक लोकगीत गुनगुनाते हुए सावधानी से घास-फूस को अलग निकल फेंकती। उन्हें देख मेरे दिमाग में एक पुराने किन्नौरी लोक गीत गूंजने लगा जोकी कुट्टू समेत सात पारंपरिक फसलों का वर्णन करता है। आज के समय में सेब के बागानों ने इन फसलों को प्रतिस्थापित कर दिया है।
मासी मेरे अनुरोध पर मुझे गीत को गाकर सुनाती है, “…यो ञाले एका पोलो, टागा शें फाफरा, एका पोलो । यो ञाले रज़ा फोली, सातेयो सागङ, रज़ा फोली …” ( हे रे! एक पंक्ती में गेहूँ बोया, और एक में कुट्टू। हे रे! कया खिल उठे हैं, सातों फसल क्या बढ़िया उगे हैं”
मेरी मासी रकछम गाँव में तीस वर्षों से अधिक समय से कुट्टू या बकव्हीट की खेती कर रही हैं और उनकी सुरीली आवाज़ ने मानो गीत में एक नई जान फूंक दी।उतने में बसपा नदी के किनारे 3,048 मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसा रकछम गांव धुंध के बीच धीरे-धीरे खुद को प्रकट करता है। नदी के दाहिने किनारे पर गाँववालों के घर और सेब के बगीचे हैं। बाएं किनारे पर जहां हम खड़े थे, वहां हरे-भरे चरागाह, हमारे नीचे घास के मैदानों में पर्यटक आवास और पहाड़ी पर चढ़तेबकव्हीट के खेत हैं।
धीरे धीरे सुबह का सूरज कोहरे की चादर से छंटने लगा, गीत के सुर भी बसपा नदी के दूर तक उभरते ध्वनि के साथ मिश्रित हो गए। सांगगीथांग उत्सव के अवसरोंके दौरान ‘सांगबेला’ या भोर के समय गाया जाता है। मेरे सामने रंगों के उभरने और कोहरे के हटते परिदृश्य में यह गीत को गाने का बिलकुल उचित समय प्रतीतहो रहा था। ओस से सनी धरती और बकव्हीट के फूलो से सुगन्धित हवा मीठी और ताज़ा लग रही थी।
इस मनमोहक परिदृश्य में, दो विशिष्ट प्रकार के कुट्टू खेतों में उगते हुए दिखाई देते हैं, प्रत्येक अपनी अनोखी छटा बिखेरते हुए। जब आप स्थानीय भाषा में ‘ओल्गो’ (फ़ैगेपायरम एसक्युलेटम ) कहे जाने वाले साधारण कुट्टू के खेत को देकते हैं, तो दूर से ही आपको गुलाबी रंग का एक जीवंत चित्र नजर आता है। इसके विपरीत, टार्टरी बकव्हीट (फेगोपाइरम टैटारिकम) अथवा ब्रास के नरम और नाजुक सफेद रंग के फूल दूर से देखने पर अपने हरे पत्तों के रंग के साथ एक होते नज़र आतेहैं। ये दोनों प्रकार मिलकर खेतों में रंगों का खूबसूरत मेल बिखेरते हैं।
अपने नाम के बावजूद, कुट्टू या बकव्हीट कोई अनाज या गेहूँ नहीं है; यह पॉलीगोनेसी परिवार के एक पौधे का बीज है, जिसे पीसकर आटा बनाया जाता है औरअनाज की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है। उनके रंगों की तरह, उनका स्वाद भी भिन्न होता है। ओल्गो में हल्का, मेवे जैसा स्वाद और चिकनी बनावट होती है।ब्रास में थोड़ा कड़वा स्वाद होता है, और इसकी बनावट थोड़ी मोटी होती है।
जैसे-जैसे समय बीतता है, निराई करते-करते मासी के हाथों की गति धीमी हो जाती है। मैं अवसर का लाभ उठाते हुए अपने प्रश्न पूछती हूँ और उनसे अनाज उगानेकी प्रक्रिया के बारे में बताने के लिए कहती हूँ।
बकव्हीट की बुआई मई के अंत में की जाती है। मेरी मासी बताती हैं कि पहले के समय में ब्रास और ओल्गो एक सप्ताह के अंतराल पर बोए जाते थे। ब्रास एकसप्ताह पहले रोपा जाता, और ओल्गो एक सप्ताह बाद किया जाता है।
वह कहती हैं, “पहले ज़मीन को ड्ज़ो (याक व गाय का क्रॉस) द्वारा हल से जोता जाता था लेकिन अब हैंड टिलर का इस्तेमाल किया जाता हैं और सेब की खेतीसे हर किसान के अधिक व्यस्त रहने के कारण अब दोनों किस्मों को एक ही समय में बोया जाता है।”
बकव्हीट एक वार्षिक फसल है जो 70 से 90 दिनों में जल्दी पक जाती है। रोपण के कुछ ही हफ्तों के भीतर, खेत सफेद और गुलाबी फूलों से सजे होते हैं, औरदिल के आकार की हरी पत्तियों के बीच दिखते हैं। फूल छोटे, नाजुक गुच्छे में होते हैं, जिनमें से प्रत्येक फूल एक नाखून से बड़ा नहीं होता है। जुलाई के मध्य सेअगस्त के मध्य तक फूलों के खिलने के दौरान, खेत प्रकृति की हलचल और ध्वनियों से जीवंत हो उठते हैं। अपनी मासी के खेत में खड़ा हो मुझे पत्तों की हल्कीसरसराहट और काम में व्यस्त मधुमक्खियों की भिनभिनाहट सुनाई दे रही थी।
बकव्हीट के जल्द उगने और ज़मीन को ढकने की क्षमता मिट्टी के कटाव को कम करती है और सूक्ष्मजीवों के लिए अनुकूल वातावरण बनाती है जिससे मिट्टी कीउर्वरता बढ़ती है। इसकी तेज़ वृद्धि का चक्र इसे खरपतवारों को मात देने में भी सक्षम बनाता है। कुट्टू की खेती में हाथ से निराई-गुड़ाई आम तौर पर दो बार होती है।
प्रारंभिक निराई-गुड़ाई को मन अर्र के नाम से जाना जाता है और ये सामान्य खरपतवार हटाने के लिए किया जाता है। दूसरा चक्र के गुड़ाई को हास अर्र के नाम सेजाना जाता है और इसे आम कुट्टू के पौधों से टार्टरी कुट्टू को अलग करने के लिए किया जाता है ताकि उनके बीजों को मिश्रित होने से रोका जा सके।मेरी मासीनिराई-गुड़ाई का दूसरा चक्र कर रही थीं । इसके अतिरिक्त, यह उजागर करना महत्वपूर्ण है कि यह इस पारम्परिक फसल को किन्नौर भर में बिना किसी रसायन याउर्वरक खाद के उगाया जाता है।
बकवहीट में बीज लगने की प्रक्रिया सितंबर में शुरू होती है और महीने के मध्य तक फसल को काटा जाता है। मेरी मासी मुझे फसल कटाई के दौरान अपने पासआने के लिए आमंत्रित करती हैं। हालाँकि मैं उनके निमंत्रण पाकर खुश थी, लेकिन मेरे मन में अपने समय की उपलब्धि को लेकर अनिश्चितता बनी थी। मेरीदुविधा को समझते हुए, वह मुस्कुराती हैं और फसल कटाई की प्रक्रिया के बारे में बताना शुरू करती हैं।
अनाज की कटाई कर उन्हें 7 से 10 दिनों के लिए अच्छी तरह हवादार जगह में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है, जिससे बीजों में नमी वाष्पित हो जाती है औरभूसी से अलग होना आसान हो जाता है। एक बार सूख जाने पर पौधों को झाड़ कर बीजों को अलग किया जाता है। फिर साफ किए गए कुट्टू के बीजों को एकचक्की का उपयोग करके आटे में पीस लिया जाता है। पिसाई के बाद आटे को छानकर भण्डारित कर लिया जाता है।
रकछम पूरे किन्नौर में कुट्टू के प्रमुख उत्पादक के रूप में उभरा है, और इसके आटे की स्थानीय बाजार में अत्यधिक मांग है। स्थानीय आहार में आवश्यक प्रोटीन, विटामिन और खनिजों को शामिल करने वाला कुट्टू अत्यधिक पौष्टिक है और विभिन्न खाद्य पदार्थों के रूप में इसका सेवन किया जाता है। होदो या डोसा जैसाबनाये जाने वाला व्यंजन और तले हुए थिसपोले जो जलेबी के समान दिखते हैं कुछ सामान्य व्यंजन हैं। दूएक हलवे जैसा दिखने वाला नमकीन व्यंजन है जिसेमक्खन के साथ खाया जाता है और इसे आटे और पानी को उबालकर बनाया जाता है। आज के दिन कोई भी सामाजिक समारोह मेहमानों को होदो परोसे बिनाअधूरा है।इस स्वादिष्ट व्यंजन को अधिकतर शहद और मक्खन के साथ खाया जाता है।
सैराग घाटी जहाँ मैं रहती हूँ, मेरी मौसी के गाँव के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। यहां कुट्टू अब कंडों में ही सीमित हो गया है। किन्नौर में गाँव के क्षेत्र में अक्सर निचलाआबादी का क्षेत्र और ऊँचे खेत या चरागाह शामिल होते हैं। कंडे ग्रामीण बस्ती के ऊपर स्थित उच्च कृषि भूमि को संदर्भित करता है जिसका उपयोग चराई औरमजबूत फसलों और औषधीय जड़ी-बूटियों को उगाने के लिए किया जाता है।
पिछले जुलाई, मुझे मेरे दोस्त ने अपने गाँव तेलंगी कंडे के ऊपर ट्रेक करने के लिए आमंत्रित किया थ।तेलंगी लगभग 2400 मीटर की ऊंचाई पर है और कंडे 3200 मीटर पर।
तेलंगी कंडे हाल ही में सड़क मार्ग द्वारा दुसरे क्षेत्रों से जुड़ा है। लेकिन मेरे दोस्त ने मुझे बताया कि सड़कों के आने से पहले ही उनके परिवार सहित कई लोगों ने सेब के बगीचे कंडे में लगाना शुरू कर दिया था।
“पहले यहाँ उगने वाले सेब का आकार और रंग अच्छा नहीं होता था। सड़कें नहीं थीं और बर्फबारी के कारण यहाँ पहुँचना मुश्किल था। तापमान में वृद्धि ने सेब के उगने के मौसम को लम्बा कर दिया है और सेब के उगने की स्थिति में सुधार हुआ है।”
सेब के खेतों के विस्तार के संबंध में एक समान बिंदु मेरी मौसी इंदर देवी के पति और रकछम के एक कुशल सेब किसान श्री सुशील कुमार ने उजागर किया था।
“पहले, हमारे पड़ोसी गाँव बटसेरी और सांगला में बड़ी मात्रा में कुट्टू उगाया जाता था। समय के साथ, सेब की खेती ने धीरे-धीरे प्राथमिक कृषि गतिविधि के रूप में स्थान ले लिया है।
खेती के क्षेत्र पर टिप्पणी करते हुए वह कहते हैं, “हम उन्हीं खेतों में कुट्टू उगाते हैं जहां हमारे पूर्वज इसे उगाया करते थे। बसपा नदी का बायां किनारा, जहां हम कुट्टू उगाते हैं, बाढ़ और बर्फ़ के जमे रहने से ग्रस्त है। यह एक छायादार क्षेत्र है जहां कोई धूप नहीं है, जो सेब उगाने के लिए अनुपयुक्त है। इसके अतिरिक्त, रक्छम के कुट्टू की भारी स्थानीय मांग है, जो किन्नौर में 150 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकती है।”
किन्नौर के किसान कुट्टू के उल्लेखनीय क्षमता की मिसाल देते है, जो इसे अलग-अलग तापमान और ऊंचाई वाले इलाकों में पनपने की शक्ति देता है। लोगों ने पाया है कि कुट्टू को नहर से सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि उस की फसल वर्षा और हवा में नमी पर पनपती है। हालाँकि, कंडे में सेब के पेड़ों के बड़ेहोने के साथ, उसी खेत में कुट्टू उगाना कठिन है। सेब के पेड़ कुट्टू के विकास को रोकते हैं। इसके अलावा, सेब को कीटनाशकों, कवकनाशी और पोषक तत्वों केस्प्रे जैसी निरंतर देखभाल की आवश्यकता होती है। उसी खेत में कुट्टू उगाना सुविधाजनक नहीं है।
मेरे मित्र की माँ, श्रीमती संजोग कुमारी कहती हैं, “एक पीढ़ीगत किसान के रूप में, स्वयं के उपभोग के लिए भी कुट्टू न रखना अजीब होगा। हमारे पास जमीन काएक छोटा सा टुकड़ा है जहां सेब के बागान अभी तक परिपक्व नहीं हुए हैं। हम वहां ओल्गो और ब्रास की खेती बारी-बारी से करते हैं। लेकिन अगर परिवार मेंकोई समारोह होता है तो हम इसे अपने दोस्तों और परिवार से खरीदते हैं जो बहुतायत मात्रा में कुट्टू उगाते हैं।”
कुट्टू की दैनिक खपत आज के दिन कम हो गई है। दुकानों से खरीदा गया चावल और गेहूं अब लोगों के आहार का मुख्य हिस्सा बन गया है। कुट्टू जो पहलेरोजाना खाया जाता था, अब हफ़्ते या महीने में एक बार खाया जाता है।
ट्रेक के दौरान, मैंने यह भी देखा कि ऊंचे इलाकों में जहां सेब नहीं उगते, वहां कई लोग मटर उगा रहे थे। सेब की तरह मटर का भी बेहतर निर्यात नेटवर्क है।व्यावसायिक रूप से लाभदायक फसलों की तेज़ी से हो रही वृद्धि पर बात करते समय मेरे दोस्त ने अपनी पालस आपी यानि चरवाहा दादी द्वारा सुनाई गई एककहानी बताई। दादी पड़ोसी गांव पांगी की रहने वाली है और उसकी पारिवारिक परिचित थीं।
सत्तर वर्षीय दादी ने बचपन में यह कहानी वास्तविक जीवन की घटना के रूप में सुनी थी। एक सर्द रात में, एक आदमी पांगी के जंगलों में खो गया था। चलतेचलते अचानक वह इतनी गहरी खाई में गिर गया कि उसके पास बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि खाई में एक भालूशीतनिद्रा में सो रहा था। उस आदमी ने अपना चाकू निकाला और भालू को पेट को चीर डाला और जैसी उसे उम्मीद थी वैसा ही हुआ। भालू के पेट में उसे मिलाबहुत सारा कोयलांग । चार महीने तक वह इसी कोयलांग पर जीवित रहा।
ऐसा कहा जाता है कि भालू शीतनिद्रा में जाने से पहले अधिकतम पोषण प्राप्त करना चाहता है और कुट्टू वह भोजन है जिसे भालू खाना पसंद करता है। आटे कोपानी के साथ मिलाकर एक पतला घोल तैयार किया जाता है जिसे कोयलांग कहा जाता है और जिससे कुट्टू , रागी और गेहूं के होदो तैयार किए जाते हैं।क्योंकि भालू ने शीतनिद्रा में जाने से पहले ढेर सारा कुट्टू खा लिया था पालस -आपी का मानना था की भालू के पेट की आंशिक रूप से पची हुई सामग्री पोषणसे भरपूर थी और बचाव दल के आने तक उस आदमी को जीवित रखा। कहानी के विवरण की पुष्टि करने का कोई तरीका नहीं है लेकिन एक बात निश्चित है, कुट्टू पोषक तत्वों से भरपूर एक विशेष भोजन है।
न्यूनतम आवश्यकताओं, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और पर्यावरण पर कम प्रभाव सहित कुट्टू के कई लाभ, इसे कृषि स्थिरता बनाए रखने के लिए एक आदर्शफसल बनाते हैं। कुट्टू की खेती और संबंधित पहलुओं के बारे में गहरी जानकारी हासिल करने के लिए, मुझे उत्तराखंड के मुनस्यारी के शौका समुदाय के सदस्योंसे बात करने का अवसर मिला। पिथौरागढ जिले के शौका जोहार घाटी के भोटिया समुदाय का एक विशिष्ट समूह है और उन्होंने ऐतिहासिक रूप से पारगमन(अपने फशुओं के साथ सीज़नी पलायन) और भारत-तिब्बत सीमा पर व्यापार का अभ्यास किया है। चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा करने और 1962 में सीमा पारव्यापार ठप होने के साथ, उन्होंने हिमालय के निचले क्षेत्रों में बसना और मौसमी प्रवासन करना शुरू कर दिया। जोहार घाटी में शौका के 13 पैतृक गांवों पर अबकेवल गर्मियों के महीनों के दौरान जाया जाता है। इस समय के दौरान, शौका पारंपरिक खेती, थोया (काला जीरा), जिम्बू (उच्च हिमालयी प्याज) और फापर यानि कुट्टू जैसी फसलें उगाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
हिरमा सुमतियाल 60 वर्षीय शौका महिला है जिनका पैतृक गांव सुमतू में है लेकिन वह अब सरमोली में बस गई है। हिरमा जी बताती हैं कि वह कभी अपनेपैतृक गांव नहीं गईं। एक फुर्तीले व्यक्ति के लिए सरमोली से जौहार घाटी तक की यात्रा में दो दिन लगते हैं । हिरमा जी जैसे कई लोग अपने पैतृक गांव कोपारंपरिक भोजन और परिवार के सदस्यों की किस्सों और कहानियों के माध्यम से ही जानते हैं। वह शिल्डू जैसे पारंपरिक व्यंजनों के प्रति अपने प्यार को व्यक्तकरती हैं – जो की फापर (कुट्टू) के कच्चे आटे को पानी से गूंध के बनाया जाता था और तुररू चूक (सीबकथॉर्न की चटनी) के साथ खाया जाता था। वह कहती हैंकि इस व्यंजन का आज शायद ही कभी आनंद लिया जाता है लेकिन यह पाचन के लिए उत्कृष्ट है।
जब मैंने उनसे पूछा, “सरमोली में तो कुट्टू नहीं उगता है। यदि आप अपने पैतृक गांव नहीं जाते हैं, तो क्या ये पारंपरिक भोजन अभी भी महत्वपूर्ण हैं?”
हिरमा जी कहती हैं, “ शादी के दौरान फापर (कुट्टू) ज़रूरी है। पुजारी फापर के आटे को पानी में गूंथ के दो शंकु आकार तैयार करता है जिसे च्यौच कहते हैं और प्रत्येक पर दूब घास की एक लट डालता है। दूल्हा-दुल्हन आटे के टुकड़ों को हवा में उछालते हैं और यह रस्म शादी में ज़रूरी है जोकि देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है।”
“तो फिर आपको कुट्टू का आटा कहाँ से लाते हो?” मैंने उत्सुक्ता से पूछा।
“जोहार घाटी के ऊपरी इलाकों में मौसमी प्रवास करने वाले लोग इसे पठौन (उपहार) के रूप में देते हैं या हम इसे बाज़ार से खरीदते हैं।”,
फिर हिचकिचाती हुई वह आगे कहती है, “या हम आजकल इसके विकल्प के रूप में चावल का उपयोग करते हैं।”
पठौन प्रियजनों को खाद्य पदार्थों के रूप में दिया जाता है और यही प्रथा किन्नौर में तेनफाच़ के नाम से जानी जाती है। हिरमा जी से बात करने पर मुझे एहसासहुआ कि जब पैतृक भूमि से भौतिक संबंध खो जाते हैं या बदल जाते हैं तो क्या होता है। कुट्टू जैसे पारंपरिक भोजन सांस्कृतिक पहचान और पारिवारिक संबंधों कासार होते हैं। वे पिछली पीढ़ियों के स्वाद, प्रथाओं और कहानियों को अपने में समेटे हुए हैं और हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या कुट्टू की फसल की खेती करने वाले समुदाय अपनी जड़ों और मूल्यों को बनाए रखने में सफल रहेंगे? या क्या सांग गीथांग जैसेगीतों के छंद जो मूल रूप से विविध कृषि पद्धतियों पर प्रकाश डालते है अब खोये हुए फसलों की यादों के साथ बदलती खेती बाड़ी की प्रथाओं का प्रतीक भर बनकर रह जायेंगे ? जैसे जलवायु परिवर्तन हमारे पहले से ही नाजुक हिमालयी परिदृश्य के संतुलन को बाधित कर रहा है, ऐसे में कुट्टू जैसी फसलों का गायब होना भविष्य के लिए क्या संकेत देगा?