
एक शिल्पकार की जीवन यात्रा- हुनर, पहचान और नई राहें
कहानी अपने शिल्पकार पिता की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा के बारे बताता है जिन्होंने बचपन में शिक्षा छोड़कर काम का दामन थामा और कैसे अपने जीवनकाल में विभिन्न कलाओं में निपुणताहासिल की। उन्होंने राजमिस्त्री से लेकर लोहारतक के कामों में अपने कौशल का विस्तार किया। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने एक पुराना पारम्परिक कला पर उनके लिए नया हुनर भी विकसित किया। आज वे एक कुशल शिल्पकार है और दूसरों को अपना हुनर सिखाने की इच्छा रखते है। मेहनत, धैर्य और सीखने की जिज्ञासा का प्रतीक यह कहानी जातिवाद और सामाजिक पहचान से जुड़े गहरे सवाल भी उठाती है।

कहानीकार- पंकज कुमार
नयाबस्ती गाँव, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड
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दिसंबर की ठंडी शाम थी। घड़ी ने अभी छह ही बजाए थे, सर्द हवा में घुली कोयले की हल्की गंध थी और “घर्र-घर्र” की आवाज़ ने कमरे को जीवंत कर दिया था। मैं चाय की चुस्कियां ले रहा था, तभी पिताजी की आवाज़ कानों में गूंजी। पास जाकर देखा तो पिताजी आफर (लोहे का काम करने वाला कमरा) में बैठे थे।
आफर में लाइट नहीं थी, इसलिए बाहर की लाइट की हल्की रोशनी ही वहाँ पड़ रही थी। वे जलते कोयले पर सरिया (लोहे की छड़) डालकर पंख (हवा देने वाला उपकरण) चला रहे थे। उनकी हरकतों से साफ था कि वे किसी खास काम में जुटे थे। वे ज़मीन पर लकड़ी की चौकी पर बैठे थे, और उनके पास लोहे के कुछ औज़ार बिखरे थे। वे जाती (एक प्रकार का चूल्हा, जिसे लकड़ी जलाकर खाना बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है) बना रहे थे।
पिताजी ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा, “आओ, तुम्हें कुछ सिखाता हूँ।”
उन्होंने मुझे पंख घुमाने के लिए कहा, और मैं उत्सुकता से तैयार हो गया। पंख घुमाने से कोयले पर हवा जा रही थी, जिससे कोयला सुर्ख लाल हो जाता था, और उसके साथ लोहे का रंग भी लाल होने लगता था, जिसे देखना मुझे मज़ेदार लगता था। मैंने पंख पकड़ा और उसे दाएँ से बाएँ ओर घुमाना शुरू किया। इसे घुमाने में हल्का ज़ोर लग रहा था, लेकिन धीरे-धीरे मैं कोयले को हवा देने लगा। कुछ ही देर में लोहे का टुकड़ा आग की तपिश से सुर्ख लाल हो गया। पिताजी ने सन्यौस (गर्म लोहे को पकड़ने वाला औज़ार) से सरिया उठाया और गंभीर निगाहों से बोले,
“इसे संभालो।” जैसे ही मैंने उसे पकड़ा, पिताजी हथौड़े से उसे आकार देने लगे।
अचानक, गलती से गर्म लोहे का टुकड़ा मेरे पैर की उंगलियों पर गिर गया। मैं दर्द से तिलमिला उठा, लेकिन पिताजी शांत रहे।
उन्होंने गंभीरता से कहा,“काम करते वक्त ध्यान कितना जरूरी है, यह अब समझ आएगा। और अगर जिंदगी में कोई भी कला सीखनी है, तो इन छोटे-मोटे घावों के लिए तैयार रहो।”
उनके शब्द मेरे दिमाग में बस गए।

जब मेरी उम्र 16 साल थी, पिताजी तब से ही मुझे अक्सर अपने साथ काम में लगा लेते। कभी मैं उनके साथ रंदा (लकड़ी को छीलने वाला औज़ार) खींचता और लकड़ी के रेशों को झड़ते देखता, तो कभी लकड़ी के बिस्तार, कुर्सी बनाने में हाथ बंटाता। कभी-कभी पंख भी घुमाता। मुझे यह सब करना ठीक लगता, लेकिन जब मन नहीं होता, तो जलते कोयलों की धधकती आंच के बीच से उनकी आवाज़ गूंजती।
“सौ सीप हैबर मैस, एक सीपेल खाछ।“
(सौ कला सीखने पर एक से तो कमा-खा पाओगे)
उस समय इन शब्दों का पूरा मतलब समझ नहीं आता था, लेकिन उनके काम करने के तरीके में एक अनकहा सबक छिपा होता— हर कला को अपनाने और उसे गहराई से सीखने की कोशिश करना।
संघर्ष से सीखा हुनर
1980 में मुनस्यारी के तल्ला जोहार के देवरूखा गाँव में शिल्पकार समुदाय में मेरे पिताजी का जन्म हुआ। यह समाज भारत में एक पारंपरिक समुदाय है, जो मुख्य रूप से काष्ठकला (लकड़ी का काम), धातुकला (लोहे, तांबे आदि से उपकरण बनाना), मूर्तिकला, निर्माण व अन्य पारंपरिक शिल्पों से जुड़ा हुआ है। मेरे पिताजी के परदादा लोहार का काम करते थे। लेकिन एक दिन गाँव में रात को पूजा हो रही थी, तब ढोल बजाने वाले सही तरीके से ढोल नहीं बजा पा रहे थे, जिसके कारण देवता नहीं आ रहे थे। उसी समय किसी व्यक्ति के शरीर में देवता के अंश ने प्रवेश किया और ढोल बजा रहे व्यक्ति के गले से ढोल उतारकर पिताजी के परदादा के गले में डाल दिया। तब से परदादा जी ढोली का काम करने लगे। लेकिन परदादा जी के बाद आने वाली पीढ़ियों ने इस काम में रुचि नहीं दिखाई। हालांकि, मेरे पिताजी ने यह कला भी सीखी है। क्योंकि यह उनके पुश्तैनी विरासत का हिस्सा है, जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं है।

पिताजी भाइयों में सबसे बड़े हैं, इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही दादी के कामों में मदद करनी पड़ी। इसके साथ ही उन्होंने पूरे परिवार की देखभाल की जिम्मेदारी भी निभाई। आजीविका चलाने के लिए पिताजी ने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ काम करना शुरू कर दिया, ताकि परिवार का भरण-पोषण हो सके। हालात ने उन्हें पढ़ाई और काम के बीच चुनने पर मजबूर किया, और उन्होंने काम को प्राथमिकता दी क्योंकि पढ़ाई की तुलना में काम करने में उनकी दिलचस्पी अधिक थी। सिर्फ 15 साल की उम्र में उन्होंने कमाना शुरू कर दिया था। जब उन्होंने शुरुआत की तो वे मिस्त्रियों के साथ काम करते थे और इस हुनर को सीखने की कोशिश करते थे। वे इस कौशल में निपुण बनना चाहते थे ताकि जीवन में आने वाली किसी भी चुनौती के लिए तैयार रह सकें। असली शिक्षा उन्हें उनके अनुभवों ने दी।
वर्ष 1989 में 16 की उमर में, पिताजी मुनस्यारी के सबसे ऊपरी गाँव, नयाबस्ती, में आकर बस गए। उन्होंने छोटे भाई-बहनों को पास के सरकारी स्कूल में भर्ती कराया और अपने लिए काम की तलाश शुरू कर दी। उस समय, वे मज़दूरी करते थे और साथ ही मिस्त्री का काम भी सीख रहे थे।

साल 2000 में पिताजी धारचूला गए थे जो नेपाल और भारत की सीमा पर महाकाली नदी पर स्थित हैऔर मुनस्यारी से 94 किलोमीटर दूर है। यहां पत्थरों द्वारा दीवार बनाई जा रही थी। पिताजी के एक मित्र ने उन्हें इस काम के बारे में बताया।
पिताजी वहां मजदूरी करने गए थे। उस समय मिस्त्री को एक दिन के 130 रुपये मिलते थे, जबकि मजदूर को 70 रुपये। पिताजी 15 साल की उम्र से ही चिनाई के काम में अपने गाँव के मिस्त्रियों का हाथ बंटाया करते थे हालांकि उनमें अभी आत्मविश्वास नहीं था। लेकिन जो मिस्त्री पिताजी के साथ थे, उन्हें उनकी कला का आभास हुआ। इसलिए उन्होंने पिताजी से कहा कि वे दीवार की एक तरफ से चिनाई करें, जबकि दूसरी तरफ से वे खुद करेंगे।
दीवार आधी बन चुकी थी, जब ठेकेदार निरीक्षण करने आया। उसने देखा कि पिताजी, जो एक मजदूर थे, मिस्त्री की तरह दीवार की चिनाई कर रहे थे। जब ठेकेदार ने करीब जाकर दीवार को परखा तो उसे कोई कमी नजर नहीं आई।
यह देखकर उसने पिताजी से कहा, “अगर तुम्हारे हाथ में इतनी अच्छी कला है, तो तुम मिस्त्री का काम क्यों नहीं करते? मेरे पास तुम्हारे लिए बहुत काम हैं।”
ठेकेदार की यह बात सुनकर पिताजी का आत्मविश्वास बढ़ गया और इसके बाद उन्होंने मिस्त्री का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे लोग उन्हें पत्थर का मकान बनाने, पत्थरों को तराशने, छप्पड़ बनाने और अन्य कामों के लिए बुलाने लगे।
पिताजी ने कहा, “मिस्त्री बनने में मुझे कई लोगों ने हौसला और भरोसा दिया और उसी भरोसे ने मुझे मिस्त्री बनाया।”
श्रम स्वीकार, लेकिन सम्मान नहीं!
साल 2013 में पिताजी को एक संस्था द्वारा बोना गाँव भेजा गया, जो मुनस्यारी से 60 किलोमीटर दूर है। गाँव की ज़मीन भूस्खलन से धँस गई थी, जिससे मकानों में दरारें आ गई थीं और कई मकान तो पूरी तरह से टूट गए थे। लोगों के पास रहने के लिए घर नहीं बचे थे, इसलिए मेरे पिताजी को टिन के घर बनाने के लिए भेजा गया। इस काम में गाँव के लोग और अन्य सहयोगी शामिल थे, जो सभी सामान्य जाति के थे, जबकि पिताजी शिल्पकार जाति से हैं।
काम पूरा होने के बाद, सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करने लगे। गाँव वालों ने यह मान लिया कि पिताजी भी सामान्य जाति के हैं, इसलिए उन्हें साथ बैठाने में कोई झिझक नहीं हुई। तभी गाँव के एक व्यक्ति ने पिताजी से उनका नाम पूछा। पिताजी ने अपना नाम ‘राजेंद्र’ बताया। जब उस व्यक्ति ने उनका पूरा नाम जानना चाहा, तो पिताजी ने ‘राजेंद्र राम’ कहा। पूरा नाम सुनते ही लोगों को यह समझ आ गया कि पिताजी शिल्पकार जाति से हैं। यह जानकर उन्होंने पिताजी को दूसरे कमरे में अलग बैठकर खाने के लिए कहा।
इस घटना के बारे में पिताजी ने कहा, “लोग हमारी जाति के बनाए घरों में रहेंगे, हमारे बनाए बर्तनों का प्रयोग करेंगे, हमारे बनाए चूल्हों पर खाना पकाएंगे, लेकिन हमारे हाथ का खाना नहीं खाएंगे और ना ही हमारे साथ बैठ कर खाएंगे।”
शायद यही वजह है कि मैं शिल्पकला को पूरी तरह नहीं अपनाना चाहता। मैं इसे सीखना जरूर चाहता हूँ, लेकिन इसे अपनी आजीविका का स्रोत नहीं बनाना चाहता। जिस समाज के लिए पिताजी ने घर बनाए, वही समाज उन्हें अपने साथ बैठने तक नहीं देता। यह कैसा तंत्र है, जहां किसी के श्रम को स्वीकार किया जाता है, लेकिन उसे बराबर नहीं माना जाता? जहां मेहनत ज़रूरी है, पर मेहनतकश बराबर नहीं?
जब लोहा खुद सिखाने लगा
कुछ साल बाद, वर्ष 2015 में, पिताजी के पेट की गंभीर समस्या हो गई, जिसके कारण उन्हें ऑपरेशन कराना पड़ा। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ने उन्हें काम करने से मना कर दिया और कम से कम छह महीने तक आराम करने की सलाह दी। लेकिन घर में कमाने वाले केवल पिताजी ही थे, इसलिए परिवार का खर्चा चलाने के लिए उनका काम करना बेहद जरूरी था। पिताजी ने केवल दो महीने ही आराम किया। ऑपरेशन का खर्चा से भी घर की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी थी, इसलिए पिताजी ने राजमिस्त्री के काम के साथ लोहार का काम भी करने का निर्णय लिया। लोहार का काम शिल्पकार जाति के लोहारों द्वारा किया जाता हैं। पिताजी वैसे तो ढोली जाति के हैं, लेकिन उन्होंने राजमिस्त्री का काम बहुत सालो किया और अब लोहार का काम कर रहे थे। उन्होंने कभी भी काम को जाति के नज़रिये से नहीं बाल्की कला और दिलचस्पी के नज़रिये से देखा है।

उन्हें पूरा भरोसा था कि वे यह काम कर लेंगे, क्योंकि बचपन से ही वे इसे देखते आ रहे थे। लोहार दराती, कुदाल, कुल्हाड़ी जैसे औज़ार बनाते हैं और उनकी धार तेज करते हैं। इसके अलावा वे लोहे को मोड़कर चूल्हा, चिमटा आदि तैयार करते हैं। इस काम की प्रक्रिया में सबसे पहले लकड़ी जलाकर कोयला बनाया जाता है, फिर पंख से हवा देकर कोयले को और अधिक गर्म किया जाता है।लोहे को लाल गर्म कोयलों में डालकर तपाया जाता है। जब लोहा पूरी तरह गर्म होकर लाल हो जाता है, तो उसे सन्यौस (लोहे को पकड़ने वाला औज़ार) से पकड़कर छोटे घन से पीट-पीटकर आकार दिया जाता है। इस दौरान, घन से लोहे पर पड़ने वाले दबाव का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि अत्यधिक दबाव से उसकी धार खराब हो सकती है या वह टूट भी सकता है। जब लोहे को मनचाहा आकार मिल जाता है, तो उसे पानी में डालकर ठंडा किया जाता है।
उन्होंने सबसे पहले अपने लिए लकड़ी व घास काटने के लिए बर्यास बनाई। जब उन्होंने एक लकड़ी को काटने के लिए बर्यास का इस्तेमाल किया, तो लकड़ी की जगह बर्यास के टुकड़े-टुकड़े हो गए। यह देखकर पिताजी निराश हो गए, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने समझ लिया कि गलती सबसे होती है, लेकिन असली सीख यह है कि हम उन गलतियों से क्या सीखते हैं, ताकि वही गलती दोबारा न हो। उस समय उन्हें यह नहीं पता था कि लोहे को कितना गर्म करना चाहिए और कब उसे पानी में डालना चाहिए। उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा, और आज वे इस काम में पूरी तरह माहिर हो गए हैं।
अब वे कहते हैं, “हमें लोहा ही बताता है कि उसे कब पानी चाहिए और कितना पानी चाहिए।”

यह कला सीखने के बाद पिताजी सुबह 6 बजे उठ जाते और नाश्ता करके 7 बजे में मकान बनाने का काम करने चले जाते। वे दिनभर यह काम करते और शाम 5:30 बजे घर लौटते। फिर 6 बजे से लोहार का काम शुरू कर देते, जिसे वे कभी-कभी रात तक भी करते थे।
बारीकियों में छुपी एक नई दुनिया
वर्ष 2020-21 में कोरोना काल आया और संपूर्ण देश में लॉकडाउन लग गया। आमदनी के सभी स्रोत बंद हो गए, जिससे लोगों के सामने गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। इसी दौरान, हिमल प्रकृति, सरमोली स्थित एक ट्रस्ट, ने नक्काशी सिखाने के उद्देश्य से एक कार्यशाला आयोजित की। इसके लिए नक्काश में कुशल बिहार के एक मिस्त्री, जो लॉकडाउन में घर नहीं जा सके, को आमंत्रित किया गया।। लॉकडाउन के समय यह कार्यशाला हिमल प्रकृति के सदस्यों और पिताजी के लिए इस कला को सीखने का एक महत्वपूर्ण अवसर बनी।
आज से लगभग 50 साल पहले यहां के घरों की खिड़कियों और दरवाजों पर लिखावट और विभिन्न प्रकार के डिज़ाइन बनाए जाते थे। यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है और ये कलाकृतियां केवल कुछ ही घरों में देखने को मिल रही हैं। यह कला मुख्य रूप से शिल्पकार जाति के लोगों के पास थी, लेकिन अब इस समुदाय के भीतर भी इसे जानने वाले बहुत कम लोग बचे हैं।
लकड़ी में नक्काशी करने के लिए छेनी (बारीकी से छीलने वाला औज़ार), पटेशी (नफासत से तराशने वाला औज़ार), आरी (काटने वाला औज़ार) और बसुला (मोटाई से छीलने वाला औज़ार) आदि का उपयोग किया जाता है। कार्यशाला में अखरोट (जुग्लान्स रेजिया) की लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग किया गया क्योंकि इसकी घनी बनावट और बारीक दाने इसे नक्काशी के लिए बेहतरीन बनाते हैं। नक्काशी के बाद इस पर रंग इतनी खूबसूरती से समाहित होता है कि हर बारीक डिज़ाइन उभरकर जीवंत दिखने लगता है, जिससे कृति और भी मोहक बन जाती है।

डिज़ाइन उकेरने की प्रक्रिया में सबसे पहले लकड़ी को रंदा (लकड़ी को छिलने वाला औज़ार) समतल किया जाता है। जब लकड़ी चारों ओर से बराबर हो जाती है, तो उस पर पेंसिल से डिज़ाइन बनाया जाता है। इसके बाद, उसी डिज़ाइन को छेनी और हथौड़े की मदद से लकड़ी में डिजाइन बनाया जाता है।

पिताजी, जो राजमिस्त्री थे, पहले से ही लकड़ी की खिड़की और चौखट बना लेते थे, इसलिए वे लकड़ी पर नक्काशी की कला को जल्दी सीख गए। लेकिन उन्होंने बताया कि इस काम को सीखने में उन्हें काफी सोच-विचार करना पड़ता था क्योंकि यह बारीकी का काम था। एक छोटी सी गलती से पूरी लकड़ी खराब हो सकती थी।
हिमल प्रकृति के सदस्यों ने पिताजी का हौसला बढ़ाया, जिसके कारण आज पिताजी अच्छी नक्काशी कर लेते हैं। जब पिताजी घर पर नक्काशी करते, तो मैं उन्हें ध्यान से देखता। मैंने पिताजी से यह कला सिखाने के लिए कहा, तो उन्होंने मुझे एक लकड़ी पर डिज़ाइन बनाकर दिया और साथ में पतेशी (लकड़ी को छीलने वाला औज़ार), जिसे उन्होंने कील से बनाया था, और एक हथौड़ा दिया। मैंने पतेशी को लकड़ी पर रखा और जैसे ही उस पर हथौड़ा चलाया, वह पूरी तरह से छिल गई। इससे मुझे एहसास हुआ कि पतेशी पर कितना दबाव डालना चाहिए। इसके बाद, जब भी मुझे समय मिलता, मैं यह काम सीखता।

उन्होंने लकड़ी पर नक्काशी करके मोर पीठ (जो टीका लगाने के लिए उपयोग किया जाता है), दर्पण के फ्रेम, लकड़ी के बॉक्स और अन्य सुंदर वस्तुएँ बनाई। अब उन्हें अन्य लोगों को भी यह कला सिखानी थी। इस तरह वे एक सीखने वाले से सिखाने वाले— एक शिक्षक बन गए। यह बदलाव उनके लिए बेहद संतोषजनक है। अब दूसरों को सिखाने का अवसर पाकर उन्हें अपने ज्ञान और कौशल को साझा करने में गहरी खुशी मिलेगी।
“यह न केवल मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि है, बल्कि मैं इसे समाज के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान मानता हूँ।”

बदलते समय में हुनर की जरूरत
“सौ सीप हैबर मैस, एक सीपेल खाछ।“
यदि किसी व्यक्ति के पास कई तरह की कलाएँ हों, तो वह किसी एक के सहारे अपनी जीविका चला सकता है, क्योंकि यह कहना मुश्किल है कि कब कौन-सी कला काम आ जाए। आज के समय में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और काम पाना अत्यंत कठिन हो गया है। साथ में कोई भी पुश्तैनी कला समाप्त न हो, यह भी महत्वपूर्ण है। पिताजी ने अपने जीवन में यह सिद्ध किया कि विभिन्न कौशलों को सीखकर ही आज के प्रतिस्पर्धात्मक समय में टिके रहना संभव है।
मैने बचपन से पिताजी को काम करते देखा, उनकी मेहनत और लगन को महसूस किया, लेकिन मैंने कभी इस कला को सीखने में वक्त नहीं निकाला। पढ़ाई व आधुनिक जीवनशैली में फंस गया और उसके कारण मैं इस पुश्तैनी हुनर से दूर होता चला गया। पर आज जब मैं देखता हूँ कि किस तरह पिताजी ने अपने परिश्रम से अनेक प्रकार की कला सीखी तो मन में एक इच्छा जागती है कि मैं भी यह कला सीखू ताकि यह परंपरा जीवित रह सके।
लेकिन मेरा असली जुनून प्रकृति के बीच रहना है। इसलिए मैं एक नेचर गाइड के रूप में काम करना चाहता हूँ। शायद मैं शिल्पकला से आजीविका नहीं चलाना चाहता क्योंकि मैंने अपने पिताजी को जातिवाद से गुजरते देखा है, उन्हें दिन-रात मेहनत करते देखा है, बिना समाज से बराबरी का सम्मान मिले। शायद मैं खुद को उस अनुभव से बचाना चाहता हूँ। साथ ही, मेरा बचपन जंगलों के बीच बीता है, मैं प्रकृति के साथ बड़ा हुआ हूँ, और इसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता हूँ।
एक बात हमेशा मुझे परेशान करती है। क्या मैं कभी वे सब हुनर सीख पाऊँगा, जो पिताजी ने अपनी ज़िंदगी में सीखे? उन्हें तो हालात ने मजबूर किया, हर नया दौर एक नई कला सीखने की ज़रूरत लेकर आया। लेकिन मेरे लिए यह ज़रूरत नहीं, बल्कि एक इच्छा है। क्या सिर्फ इच्छा ही काफी है? क्या मेरे अंदर वो जज़्बा है, जो मुझे इस राह पर आगे बढ़ाएगा? या फिर यह बस एक ख्याल भर है— पुश्तैनी कला को बचाने की चाह? जब कोई मजबूरी न हो, तब सीखने की लगन कितनी गहरी हो सकती है?
Meet the storyteller
