जीवन में कोई भी राह कब सीधी होती है?
रिंगाल की कला जानने वाली आखिरी पीढ़ी?
नामिक गांव में रिंगाल की कला सदियों से चली आ रही है। इस परंपरा को 13 साल की उम्र में सीखने वाले श्री देव राम की सालों बाद रिंगाल और उसके साथ जुड़ी कला से परिचय करने मेरे साथ चलें। रिंगाल से बनने वाले सूपा, चटाई और अन्य उपयोगी वस्तुएं न केवल गांव की सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि इस कला में बसी है वर्षों की मेहनत और समर्पण की कहानी। हालांकि इस हस्तकला में आय कम है, लेकिन यह गांव की पारंपरिक पहचान को जीवित रखने के साथ ग्रामीण जीवन के आवश्यकता के वस्तुओं को गांव में ही सहजता से उपलब्ध कराता है।
कहानीकार- सुरेश कुमार
ग्राम नामिक, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड
Read this story in English
कुछ ही दिन पहले मेरे पिताजी रिंगाल काट रहे थे और उन्होंने कटे हुए रिंगालों (हिमालयन बम्बू) को संभालने का काम मुझे सौंप दिया। मेरी इस काम में रत्ती भर भी इच्छा नहीं थी, लेकिन बिना बहस किए काम में जुट गया।
मुझे इस तरह निरस ढंग से काम करता देख पिताजी बोले, “अरे बेटा, इतनी सी उम्र में इतना आलस! मैं तो तेरह साल का था जब ये काम करना शुरू किया था, और तब मुझे इसे करने में खुशी कितनी मिलती थी।”
मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “पिताजी, वो आपका समय था फिर।”
1972 की एक धूप भरी सुबह की बात है जब मेरे तेरह वर्षीय पिता, देव राम की रिंगाल, उच्च हिमालय के बांस से पहली बार मुलाक़ात हुई। वह अपनी गाय-भैंसों के साथ नामिक गांव से ऊपर 3000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित थाला बुग्याल की ओर निकले। उनका बड़ा सा काला भोटिया कुत्ता रास्ता साफ करने के लिए उनके आगे-आगे दौड़ रहा था, तीखी चढ़ाई से बिलकुल प्रभावित हुए बिना। ऊंचाई वाले पहाड़ी इलाकों में घूमना देव राम के लिए किसी रोमांच से कम नहीं था, हालांकि वह हर रोज इसी रास्ते से गुजरते थे। पतले-दुबले और फुर्तीले और सजीव मुस्कान लिए वह चढ़ाई काट लिएउतनी ही सजीव होगी, जितनी आज है।
देव राम नामिक गांव में रहने वाले एक अनवाल (चरवाहा) थे, जो पूर्वी रामगंगा घाटी के पार उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित है। नामिक,मुनस्यारी ब्लॉक का एक सुदूर क्षेत्र है, जो आज भी आधुनिकता से परे है; गांव में न तो फोन नेटवर्क है, न मोटरमार्ग, और न ही अस्पताल। फिर भी, गाँव की प्राकृतिक सुंदरता अद्वितीय है, जिसमें हरे-भरे खेतों के बीच बाखलियाँ (पारम्परिक मकान) और मखमली घास से ढके बुग्याल (ऊंचाई वाले घास के मैदान) शामिल हैं। उत्तर-पश्चिम की ओर बर्फ से ढकी नामिक, हीरामणी, प्यंथांग और कालागुडी ग्लेशियर स्थित हैं, जिन पर धूप तेजी से चमकती है। गांव के पूर्व में नामिक वन पंचायत 186 हेक्टेयर तक फैला हुआ है, जहां तक तो आंख भी नहीं पहुंचती। पश्चिम में नंदाकोट शिखर है, जो बादलों के भीतर विश्राम करता है और ऐसा लगता है मानो आकाश से बातें कर रहा हो।
जब देव राम बुग्याल में पहुँचते, तो वहाँ की ठंडी, ताज़ी हवा धीरे से उनके बालों को सहलाती, और हर सांस के साथ वह उस विशालता में खो जाते। लेकिन सबसे रोमांचक पल तब आता, जब गाँव के कुछ लोग जंगल में रिंगाल काटने आते। वह उन्हें बहुत ध्यान से देखते, उनके हर एक कदम को समझने की कोशिश करते— कैसे वे दराती (लोहे का हथियार जो लकड़ी, घास और रिंगाल को काटने में काम आता है) को पकड़ते हैं, कैसे उसे चलाते हैं। वह अपनी आंखों को सिकोड़ते हुए बिना पलक झपकाए उन लोगों के हाथों की हरकत को देखते रहते। वे घंटों उन लोगों के पास बैठकर उनकी हर गतिविधि को गहरी नज़र से देखते, जैसे इस साधारण-सी लगने वाली कला में छिपे हर रहस्य को समझना चाहते हों। यह उनके लिए सीखने का एक अनमोल अवसर था, जिसे वे पूरे लगन के साथ अपने भीतर समेटते जाते।
एक संयोगपूर्ण मुलाकात
रिंगाल उत्तराखंड के जंगलों में पाया जाने वाला बांस प्रजाति का एक झाड़ीनुमा घास है। इसे “हिमालयन मॉनटेन बम्बू” के नाम से भी जाना जाताहै, और इसका वैज्ञानिक नाम ड्रेपैनोस्टैचियम फाल्केटम है। रिंगाल आकार में बांस की तुलना में थोड़ा छोटा होता है। जहां बांस की ऊंचाई 25-30 मीटर तक होती है, वहीं रिंगाल 5-8 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। इसी कारण रिंगाल को “ड्वार्फ बम्बू” (बौना बांस) के नाम से भी जानाजाता है। रिंगाल की लगभग 5 उपप्रजातियां हैं जो मुख्य रूप से 300 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर, नमदार गधेरों और पहाड़ी ढलानों में मिलती हैं।दूसरी ओर, बांस कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। भूस्खलन के रोकथाम में, ये सबसे उपयोगी है क्योंकि इसकी जड़ें मजबूत होती है और पानी वाली भूमि को अपने जड़ों से स्थिर रखे रहती है। रिंगाल नामिक के वन पंचायत में पाया जाता है। यह वन पंचायत 1974 में स्थापित किया गया था और लगभग पूरी रामगंगा घाटी मैं फेला हुआ है।
रिंगाल का कारोबार नामिक में एक पुरानी परंपरा है जो लगभग 200-300 सालों से, यानी 6-7 पीढ़ियों से चला आ रहा है। रिंगाल से सामग्री बनाना गांव का एक मुख्य व्यवसाय है जिनका उपयोग झाड़ू, सामान और खाना रखने की डलिया (बड़ी टोकरी), मोश्टा (चटाई), सूपे (दाल-चावल छाँटने और अनाज साफ करने की वस्तु) और घास व गोबर ढोने के लिए डोक्का (पीठ पर लादने वाली कंडी) बनाने में किया जाता है। रिंगाल से बनी इन चीजों का गांव के निजी जीवन में हमेशा से खास महत्व रहा है। आज भी इसके पारंपरिक उपयोग वही हैं, लेकिन आधुनिकता के चलते इसकी मांग सजावट के हैसियत से बढ़ गई है। लोग अब रिंगाल की विभिन्न वास्तुओं से घरों को सजा रहे है और नए-नए डिजाइनों में बनवाकर खरीद रहे हैं।
आज देव राम, मेरे पिताजी, 65 साल के हो चुके हैं और रिंगाल हस्तकला को लगभग चार दशकों से अपने जीवन का हिस्सा बनाये हुए है। बचपन से मैं उन्हें काम करते हुए देखता आ रहा हूँ। उनके हाथ जब रिंगाल को बारीकी से बुनते हैं तो उनके चेहरे पर सुकून और होंठों से कोई न कोई मधुर धुन निकलती रहती है। मेरे पिता सिर्फ एक कलाकार नहीं हैं; वह अपने हुनर के उस्ताद हैं, जो हर रचना में बारीकी और खूबसूरती लाते हैं। यह पेशा हमारे पुश्तैनी काम का हिस्सा कभी नहीं था। उन्होंने इसे पारिवारिक परंपरा के रूप में नहीं सीखा, क्योंकि हमारी पारंपरिक आजीविका लोहारगीरी से जुड़ी थी। बल्कि, उन्होंने इसे अपने यौवन में ही अपनाया, जब वे दूसरों को बुनाई करते हुए देखकर मोहित हो गए थे। औरों को देखते और समझते, उन्होंने खुद को यह कला सिखाई और अपनी जिज्ञासा को उस महारत में बदल दिया, जो आज उनकी पहचान बन चुकी है—एक कुशल रिंगाल कलाकार की।
मेरे मन में अकसर ख़याल आता है कि मुझे तो दराती को पकड़ना भी नहीं आता है। कुछ काटने की कोशिश कर लू, उसको चलाना ही नही आता हैं औरना ही मैंने कभी रिंगाल के काम में दिलचस्पी दिखायी है। लेकिन पिताजी की आंखों में उस पुराने समय की चमक देखते ही मन में एक गहरी जिज्ञासा जाग उठी और मैं उनसे इसके बारे बातचीत करने लगा।
जीवन में कोई भी राह कब सीधी होती है?
उन्होंने कुछ पल के लिए ठहरकर एक गहरी सांस ली, मानो बीते दिनों को याद कर रहे हों। फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपने जीवन की किताब के पन्ने मेरे सामने खोलना शुरू किया।
“बेटा, ज़िंदगी ने बहुत जल्दी से मुझे जिम्मेदारियों की कसौटी पर परखना शुरू कर दिया। अभी मेरा जन्म भी नहीं हुआ था, जब मेरे पिताजी गुजर गए। उनका चेहरा तक मैंने कभी नहीं देखा। और जब मैं बारह साल का था, तब मेरी माँ भी मुझे छोड़ गईं। जब तक माँ थीं, मेरे जीवन में रंगीनियाँ थीं, स्कूल का मज़ा था, और एक निश्चिंत बचपन था,” पिताजी आवाज़ में भारीपन के साथ बोले, उनकी आँखें कहीं दूर अतीत में खोई हुई।
मेरे पिताजी के पाँच बड़े भाई थे और उनकी पत्नियों और बच्चों को मिलाकर वे 17 लोगों का परिवार थे। उनके पास 16 गायें और 7 भैंसें भी थीं। चूँकि मेरे पिताजी सबसे छोटे थे, इसलिए किसी भी घरेलू काम के लिए हमेशा उन्हीं को आवाज़ दी जाती थी। थी। माता-पिता के न होने पर, जैसे उनके कंधों पर अचानक से जिम्मेदारियाँ आ गईं थीं। हर चौमास के मौसम में उनके भाई उन्हें अपनी गाय-भैंसों के साथ लगभग छह महीने के लिए थाला बुग्याल भेज देते थे।
“बेटा, जब भी ज़िंदगी में राह भटकेगा, वह खुद ही तेरे लिए एक रास्ता बना देगी। इसी तरह तो मेरी पहली मुलाकात रिंगाल शिल्पकारों से हुई थी,” उन्होंने एक छोटी मुस्कान के साथ कहा।
उनके सभी भाई लोहार का काम करते थे, लेकिन मेरे पिता इस पुश्तैनी कला को नहीं सीख पाये। उनका अधिकांश समय गाय-भैंसों के साथ बुग्यालों में बीतता जो था। इस तरह, उनका बचपन पशुओं और रिंगाल की छड़ी के साथ ही कट गया। जब उनकी उम्र चौदह-पंद्रह की हुई, तो उनके भाइयों ने उनकी शादी करवा दी। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था और उन्होनें इतनी कम उम्र में ही घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी संभाल ली।
पिताजी कुछ देर के लिए फिर रुककर आकाश की ओर देखने लग गए, जैसे वहां अपने बीते वर्षों का हिसाब ढूंढ रहे हों।
धीरे-धीरे, उनके भाइयों ने अपने-अपने परिवार और संपत्ति को अलग से संभालना शुरू कर दिया, और उनका संयुक्त परिवार बिखर गया। अब अपनी ज़मीन, अपना परिवार उन्हें खुद ही संभालना था। रिंगाल का काम, जो एक समय उनके जीवन का एहम हिस्सा था, अब उन्हें उसे पीछे छोड़ना पड़ा। वे पैसे कमाने के अलग तरीकों के बारे में सोचने लगे ताकि वह घर चला सके क्योंकि रिंगाल की बनी चीजें ज्यादातर खुद के इस्तेमाल के लिए ही होती थीं और बिकती नहीं थी। उस समय तक उनकी टोकरी, सूपा, डोक्का आदि बनाने की कला नहीं निखरी थी।
कुछ सालो में उन्होनें धीरे-धीरे करके 10 बकरियां जुटाईं और भेड़-पालन का काम शुरू किया। गांव के पहाड़ों पर घूमते हुए, हर दिन बकरियों की देखभाल करना, उन्हें चराने ले जाना, यही उनकी दिनचर्या थी। कुछ ही वर्षों में भेड़-बकरियों की संख्या 10 से बढ़कर 80 तक पहुंच गई। यह काम उन्होनें पूरे समर्पण के साथ आठ-नौ साल तक किया।
यह काम तो कर लेते थे, परंतु रिंगाल की छड़ी के बारे में वे अक्सर सोचा करते थे।
“लेकिन जिंदगी की राहें सीधी कब होती हैं?” मेरे पिता ने मेरे से पूछा।
एक दिन, उनके जीवन में नई चुनौती ने दस्तक दी। टीबी उस दौर की सबसे भयानक बीमारी थी जिसने पूरे इलाके में आतंक मचा रखा था और उनके घर तक पहुंच गई।
“जैसे कुछ वर्षों पहले कोरोना फैला था, वैसे ही उस समय टीबी फैला था,” उन्होनें गंभीरता से बताया।
सन् 80 के दशक में मेरी मां भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं। हालत तेजी से बिगड़ रहे थे और इलाज करवाना बेहद जरूरी था। लेकिन मुश्किल यह थी कि मेरे पिताजी के पास पैसे नहीं थे। संपत्ति तो थी, पर पैसे बिल्कुल नहीं।
उस समय गांव में न तो उधार देने वाले थे, न ही पैसे की कोई और व्यवस्था। ऐसे में उन्होनें भारी मन से एक बड़ा फैसला लिया। उनकी जमी-जमाई संपत्ति- 80 भेड़-बकरियों को बेचने का- जिन्हे उन्होंने प्यार, समय और मेहनत से पाला था। बागेश्वर के दानपुर क्षेत्र से कुछ ग्राहक आए और उन्होंने बकरियां खरीद लीं। कीमत? सिर्फ 6000 रुपये! पैसे मिलते ही उन्होनें मां को पिथौरागढ़ जिला अस्पताल में भर्ती कराया। इलाज हुआ और वो ठीक हो गईं। लेकिन इस प्रक्रिया में उनकी सारी मेहनत, वह संपत्ति, जिससे वे घर-परिवार चला रहे थे, सब खत्म हो चुका था।
“यह मेरे जीवन का सबसे बुरा वक्त था,” उन्होंने कठोरता से कहा, मानो यादों के तूफान में लिपट गए हों।
उस समय, पिताजी को कमाने का कोई और जरिया नजर नहीं आ रहा था। फिर उन्होनें सोचा, शायद उनकी जिंदगी उन्हें रिंगाल की ओर खींच रही थी। वही कला, जो उन्होनें बचपन में खेलते-खेलते सीखी थी। रिंगाल ने फिर इस तरह उनके जीवन में प्रवेश किया, इस बार हमेशा के लिए।
“ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी पुराने दोस्त को गले लगाकर मिल रहा हूँ,” उन्होनें अचानक से मुस्कुराते हुए कहा।
रिंगाल से बुनाई की कला
पिताजी को रिंगाल की बात करते देख, मुझे यह आभास हुआ है कि उनकी हर रिंगाल की छड़ी में एक कहानी छुपी है। जब भी वो किसी टोकरी या चटाई को बुनने लगते हैं, तो मैं उनके अंगुलियों की हरकतों को देखते रह जाता हूं। उनकी हर हरकत में पीढ़ियों की मेहनत और कला की छाप दिखाई देती थी। वह सिर्फ सामान नहीं बना रहे होते हैं, बल्कि एक विरासत को संवार रहे है। जैसे-जैसे टोकरी आकार लेती हैं, जैसे ही एक सूपा बनकर तैयार होता हैं, वैसे ही एक अनमोल धरोहर हमारे परिवार एवं आने वाली पीढ़ी के लिए बनता हैं। लेकिन अपने पिता की कहानी सुनकर मैं और जानने के लिए उत्सुक था। मेरी जिज्ञासा देखकर मेरे पिता उत्तेजित हो कर मुझे इस कला की प्रक्रिया समझाने लगे।
सर्वप्रथम रिंगाल को वन पंचायत के जंगल से दराती का उपयोग कर काटकर लाना होता है। फिर तुरंत उनका पुतरा (रिंगाल को छीलकर बाहर का पतला भाग की पतरी) सावधानीपूर्वक और सटीकता से काटकर बनाते हैं। इसके बाद इन्हें धूप में सुखाकर किसी मोश्टा बिनाई या सूपा, डोक्का, टोकरियों जैसे विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए तैयार किया जाता है। पिताजी ने सबसे ज्यादा व्यापार सुपा का किया है। गांव-घरों में इसकी सर्वाधिक मांग रहती है क्योंकि किसान भूसी को अनाज से अलग करने के लिए इसका इस्तमाल करते हैं। सूपा को सजाने का काम अत्यधिक मेहनत और समय-खपत वाला होता है। इसके लिए सबसे पहले सौड़ा के पेड़ (उतीस प्रजाति का पेड़) के छिलके को जलाकर उसके धुएं से रिंगाल को काला करना पड़ता है, तथा दूसरे रिंगाल को दो हिस्सों में चीरकर चौड़े पट्टे बनाने होते है। उसके बाद रिंगाल की पतली छिलकी, जो सजावट में बेहद महत्वपूर्ण होती है, को एक लंबी पतली लकड़ी से गहनों की तरह सजाया जाता है।
रिंगाल कारोबार में जितनी मेहनत है उससे बहुत ही कम स्तर पर आमदनी है। एक मोश्टा (चटाई) को बनाने में 15 दिन से अधिक समय लगता है, लेकिन इसका मूल्य मात्र 600-700 रुपए ही हो पाता है। वैसे ही सुपा या अन्य उत्पाद अधिकतम 250-300 रुपए में बिकता है।
पिताजी कहते हैं, “क्या करें, इस काम को छोड़े तो रोजी रोटी कैसे चलाएं? जैसे चल रहा है वैसा ही चलाना हुआ, आमदनी कम मात्रा में ही सही, परंतु आती जरूर है।”
आगे का रास्ता- एक अवसर या एक बोझिल विरासत?
धीरे-धीरे बात मुझ पर आने लगी थी और तभी पिता जी बोल पड़े, “अब बेटा उम्मीद तुमसे ही है। ना जाने तुम कब कमाने लगोगे ताकि मैं भी आराम कर कर सकूँ। बूढ़ा हो गया हूं अब तो।”
आज भी पिताजी अपने तजुर्बे से कठिन से कठिन काम को बहुत आसानी से कर लेते है। पिताजी ने इस परिश्रम की बदौलत मुझे एम.ए. तक पढ़ा लिया है। मेरे माता-पिता को मुझसे यही उम्मीद है कि हमारा बेटा सरकारी नौकरी लगा लेगा। इसलिए मुझे पढ़ाई के लिए गांव से बाहर मुनस्यारी (जो हमारा नजदीकी शहर है) भेजा। अब मेरा मकसद है सरकारी नौकरी की तैयारी करना। मैं अभी उत्तराखंड सरकारी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ। मै 3 राज्य स्तरीय परीक्षा दे चुका हूँ। परंतु इस बढ़ती कंपटिशन और सरकार की भ्रष्टाचारी सिस्टम- जहां निरंतर परीक्षा पेपर लीक के मामले सामने आते हैं- के कारण मुझे सफलता कही से कही तक नजर नहीं आती।
पिताजी मुझे अपनी सीखी हुई हस्तकला सिखने के लिए हमेशा से कहते आये।
“बेटा! इस काम को भी सीख लो, कभी न कभी यह काम आएगा। कल को अगर तुम्हारे हाथ में कोई कला या कोई स्थिर रोजगार नहीं होगी तो क्या करोगे? लॉकडाउन में पूरे देश की हालत देखी है। नौकरी वालों की तनख्वाह तक रुक रही थी, नौकरी के भरोसे मत रहो। लगेगी तो बहुत अच्छा, परंतु जब नहीं लगेगी तो? तब ये सीखा हुआ काम तो करोगे!
बात तो पिताजी की सही थी, लेकिन मैं इन कामों में कभी दिलचस्पी नहीं रख पाया क्योंकि बचपन से ही इस कारोबार की मेहनत और परेशानियों को देखता आया हूँ। बर्फ का तूफान हो या बरसाती बाढ़ का कहर, काम करना ही पड़ता है। मैं सोचता था कि सरकारी नौकरी लगाना है और लग गई तो सही है, नही तो शहर में जाकर किसी अच्छी कंपनी में काम करूंगा। लगता था कि आज के जमाने में नौकरियों की कहां कमी! लेकिन जब मैं इस वर्ष मई के माह में देहरादून शहर नौकरी करने के लिए गया, तो दो दिन में ही आभास हो गया कि मेरे लिए शहर में जीवन यापन करना आसान नहीं है।
एक तरफ धधकती गर्मी की मार, दूसरी तरफ प्राइवेट कंपनियों का हमें निचोड़कर रखें रहना- 12 से 14 घंटे की ड्यूटी के साथ- तब समझ आया कि मैं वास्तव में अपनी विरासत को किस प्रकार छोड़ रहा हूँ। मैं देहरादून एक हफ्ता भी नहीं रह पाया और वापस घर आ गया और सोचा जो काम करना है अब अपने घर में रहकर ही करना है। वहां की तड़पन ने यह तो समझा दिया था कि पहाड़ में संसाधनों की कमी तो नहीं है बस इस पर काम करने की जरूरत है, जैसे मेरे पिताजी का रिंगाल का कारोबार।
दूसरा कारण यह है कि हम शिल्पकार समाज से हैं (अनुसूचित जाति) और जातिवाद अभी भी हमारे समाज के अंतर्गत बहुत बड़ी समस्या है। एक जाति का समाज अपने कुल को श्रेष्ठ समझते हुए दूसरी जाति के लोगों को हीन भावना से देखता है। शिल्पकार समाज की जो कला और व्यापार हैं, उन्हें समाज अक्सर छोटे स्तर पर देखता है। जबकि एक शिल्पकार द्वारा बनाएं गए हर एक वस्तु उनकी दैनिक जीवन में उपयोगी है। इसके बावजूद जब भी हम गांव से बाहर व्यापार के लिए जाते है, तो हमें गांव घरों में साथ में खाना नहीं दिया जाता, अलग रहना पड़ता है, यहां तक की पानी भी अलग से पीना होता है।
लोग पूरा नाम पूछते है तो जाति पता चल ही जाता है। उनकी आंतरिक ओंछी भावनाओं और छोटी सोच का सामना करना पड़ता है। मैंने इस कड़वे अनुभव को पिताजी के जुबान से सुना है। समाज की इन बुराइयों से हमारी ऐसी दुर्दशा को देखकर हम युवा पीढ़ी के लोग धीरे-धीरे परंपरागत कामों से दूर होते जा रहे हैं और समाज में अपने स्वाभिमान के लिए कुछ अलग करने के सपने देख रहे हैं। लेकिन मेरे पिताजी की कहानी सुनकर मैं सोचने लग गया कि कैसे उनके सपनों का आकाश उनके बचपन के बुग्यालों और जंगलों में सिमटा था। उस दिन मैंने न केवल पिताजी की कहानी सुनी, बल्कि ऐसा लगा कि रिंगाल की ताज़ी महक और बुग्यालों की ठंडी हवा मेरे अंदर बस गई हो। मुझे आख़िरकार इस काम में गरिमा नजर आने लगी।
मेरे पिताजी की कहानी से प्रेरणा लेकर मैं भी अपनी पुश्तैनी हस्तकला, लोहार का काम और रिंगाल के काम दोनों को सीखना चाहता हूँ ताकि कम से कम अपने उपयोग के लिए चीजें बना पाऊं, जिस आर्थिक जरिए की बदौलत पर हम पले बढ़े हैं।
हौसलों से मिलता है
सफलता की मुकाम।
आसान नहीं है
इस दुनियां में कमाना नाम।
अति सुन्दर कहानी है। हमे खो रही विरासत को जानकर उसे बचाना ही होगा।