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भिर्री- हरकोट के आखिरी मो (शहद) शिकारी

उत्तराखंड के हरकोट गाँव में भिर्री द्वारा मो या शहद निकालने की एक प्राचीन परंपरा रही है। ये भिर्री जंगलों के खतरनाक चट्टानों से पहाड़ी मधुमक्खियों (एपिस डोर्साटा) के छत्तों से शहद निकाला करते थे। मो को हासिल कर पाना एक ऐसा सामूहिक कार्य है जो साहस और परंपरिक विधि का प्रतीक था। यह कहानी बताती है कि कैसे गाँव वाले अपने भिर्री  के साथ मिलकर चट्टानों से मो को गाँव के हर घर तक पहुँचाया करते थे। लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते, मधुमक्खियों के भांति, यह परंपरा भी विलुप्ति के कगार पर है।

कहानीकार- विवेक,
हरकोट गाँव, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड

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चट्टानों पर रस्सियों से लटकते भिर्रीयों (मधुमक्खियों का शहद निकालने वाले) की आँखों में डर नहीं, बल्कि एक अलग ही जुनून था। मौन या मधुमक्खियों की निरंतर भिनभिनाहट से बिना विचलित हुए, वे केवल चट्टानों से चिपके छत्ते से शहद निकालने पर केंद्रित थे। वे जानते थे कि इस जोखिम भरे सफर के अंत में उन्हें मो मिलेगा जो इतना मीठा होगा कि एक बार चखने पर नशा सा हो जाता।

मंगल राम, मेरे दादा जी, लगभग 40 साल पहले तक प्रचलित इस साहसिक परंपरा के साक्षी रहे हैं। कुमाऊनी पोशाक पहनने और सिर पर पहाड़ी टोपी सजाए हुए, दादा जी ने एक रात, खाने के बाद, मुझे अपने पास आग सेंकने बुलाया। उस दिन चमचमाते तारों के नीचे उन्होंने मुझे एक अनोखी कहानी सुनाई। यह कहानी पहाड़ों की ऊँचाइयों से झूलते हुए लोगों के हौसले, मधुमक्खियों के संघर्ष, और सामूहिक श्रम का अनोखा तालमेल समेटे हुए थी। यह उन दिनों की कहानी थी, जब भिर्री होना सिर्फ़ एक काम नहीं, बल्कि हिम्मत और परंपरा का प्रतीक था।

मेरे 86 वर्षिय दादा जी मंगल राम। फ़ोटो: विवेक

चार दषक पहले, हरकोट गाँव के लोग भौंर मौन (एपिस डोर्साटा) मधुमक्खि के विशाल छत्तों से शहद निकालने के लिए खड़ी चट्टानों पर चढ़कर भिर्री का काम करते थे। हरकोट उत्तराखंड के जिला पिथोरागढ़ के मुनस्यारी से 5 किमी दूर स्थित 250 से 300 जनसंख्या वाला एक कृषि आधारित गाँव है, जहां से गोरी घाटी के ऊंचे पहाड़ और पंचाचूली की अद्भुत शृंखला दिखती है।

हरकोट गांव, जहां से गोरी घाटी के ऊंचे पहाड़ और पंचाचूली की अद्भुत शृंखला दिखती है। फ़ोटो: विवेक

“भिर्री” शब्द कुमाऊनी भाषा के भ्यार (मधुमक्खी का छत्ता) से निकला है, जिसका अर्थ है भ्यार गाड़नी वाल्ह — यानि वह व्यक्ति जो मधुमक्खी के छत्ते से शहद और मोम (छत्ते के षट्कोणीय हिस्से) निकालता है।

एपिस डोर्साटा, जिसे ‘जायंट’ (विशाल) मधुमक्खी भी कहा जाता है, मधुमक्खियों की सबसे बड़ी प्रजाति है।इसकी लंबाई लगभग 17-20 मिलीमीटर तक होती है। विभिन्न क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से पहचाना जाता है—जायंट रॉक बी, भारतीय पहाड़ी मधुमक्खी, जंगली मधुमक्खी और डोंगर मधुमक्खी। इसका शरीर मजबूत और घने बालों से ढका होता है। ये मधुमक्खियाँ अपनी आक्रामकता, बड़े आकार, और उच्च गुणवत्ता वाले शहद उत्पादन के लिए जानी जाती हैं। इसका शहद औषधीय गुणों के साथ अन्य शहद की तुलना में गाढ़ा और अधिक पौष्टिक होता है। ये मधुमक्खियाँ न केवल शहद का उत्पादन करती हैं, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जैसे परागण में सहायता करना।

एपिस डोरसाटा, जिसे जायंट हनी बी कहा जाता है। फोटो: जेरार्ड चार्टियर (फ़्लिकर)

ये बसंत में फूलों की तलाश में हिमालय के पहाड़ी इलाकों में आती हैं और अधिक सर्दी होने पर भाभर यानी मैदानी इलाकों में चली जाती हैं। यह मधुमक्खियाँ जंगलों में ऊँचे पेड़ों और चट्टानों पर अपना छत्ता बनाती हैं, जिससे उनका शहद निकालना एक बेहद कठिन और साहसिक कार्य बन जाता था।

बसंत का नाश्पति का फूल जिसपर मधुमाक्खी आती है। फ़ोटो: दीपक पछाई

दादा जी यादें ताजा करते हुए कहते थे, “भिर्रीयों द्वारा निकाला गया मो (शहद) मिठाई से भी ज्यादा मीठा होता था। कहते हैं, चीनी खाने से दांत खराब हो जाते हैं, लेकिन शहद से नहीं। मैं अब 86 वर्ष का हो गया हूँ, और आज भी मेरे दांत बिल्कुल सही-सलामत हैं।”

फिर एक ठहराव के बाद, गमभीर आवाज़ में बोले, “मगर इस शहद को निकालना कोई आसान काम नहीं था, यह बेहद जोखिम भरा था, जान जाने तक का खतरा रहता था। यह काम केवल एक कुशल भिर्री ही कर सकता था जिसे इस कला का पूरा ज्ञान था।”

मो की खोज की तैयारी

“हर साल कार्तिक माह (अक्टूबर और नवंबर) मे मो या शहद निकालने का सप्ताह उत्सव से कम नहीं होता था।”

इन दिनों कुमाउ हिमालय के इस गाँव में दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों और जंगलों में हलचल बढ़ जाती। गांव की महिलाएँ सर्दियों से पहले गायों के खाने के लिए जंगल में घास काटने के लिए निकलतीं। शहद निकालने के समय वे हरी घास के साथ-साथ एक खास तरह की घास भी लातीं, जिसे स्थानीय भाषा में बाबयो झाड़ या घास कहा जाता था। बबियो झाड़ का अंग्रेज़ी नाम चीनी अल्पाइन रश है, जो घास की एक प्रजाति है और हिमालय के कई क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड और नेपाल में पाई जाती है। आम दिनों में इस घास का उपयोग झाड़ू बनाकर मिट्टी से लिपे घरों में धूल झाड़ने के लिए किया जाता, लेकिन शहद निकालने के समय इसका महत्व कहीं अधिक बढ़ जाता था।

बाबयो झाड़ या घास, जिसका उपयोग शहद निकालते समय रस्सी बनाने में किया जाता है। फोटो: आरती आर्या

“शहद निकालने से पहले गाँव के सभी परिवारों से बाबयो घास इकट्ठा की जाती थी। अगर घास कम पड़ जाती, तो महिलाएँ जंगल में जाकर इसे दोबारा काटकर लातीं। यह शहद निकालने का सबसे प्राथमिक कदम था,” दादा जी ने बताया।

गाँव के बुजुर्ग और युवा पुरुष इस घास से 80-100 मीटर लंबी मजबूत रस्सी बनाने का काम संभालते थे। इसे इतना मजबूत और टिकाऊ बनाया जाता कि खड़ी चट्टानों से लटकते समय भिर्रीयों (शहद निकालने वाले) का पूरा भार सह सके। रस्सी के बीच-बीच में 1 से 1.5 फीट लंबी लकड़ियाँ इस तरह जोड़ी जातीं कि वे सीढ़ी जैसी बन जाएँ, जिससे भिर्री आवश्यकता अनुसार ऊपर-नीचे चढ़ सके और अपना संतुलन बनाए रखे।

गाँव के गौ खाल (घर के आगे का आंगन जहाँ अनाज सुखाया जाता था) में रस्सी बनाने का यह काम बड़े जतन और धैर्य से किया जाता। दिनभर मेहनत करने के बाद जब कोई थक जाता, तो दूसरा व्यक्ति उसकी सहायता करता। जब रस्सी और लकड़ियों का पूरा काम हो जाता, तो इसे समेटा जाता और बांधकार एक भारी (बोझा) बनाया जाता। घास को सही तरीके से गूंथकर मजबूत रस्सी में बदलने में एक से दो दिन का समय लग जाता था। यह रस्सी इतनी मजबूत होती थी कि इसको लाड़ कहते थे — जिसका अर्थ ही होता है रस्सी का मोटा, मजबूत रूप।

दादा जी कुछ क्षण चुप हो गए जैसे बीते दिनों को याद कर रहे हो, फिर अचानक से मुस्कुराए।

उनको उस समय की एक लाड़ से जुड़ी कहावत याद आ गयी थी, “पुठय एक मैश्क भैर्” यानी पुरा एक आदमी का बोझा।

“यह केवल एक रस्सी नहीं, बल्कि एक जीवनरेखा थी, जिसे पूरे गाँव की मेहनत से तैयार किया जाता था। बाबयो झाड़ की रस्सी बनाना एक कला के समान था — धैर्य, कौशल और सामूहिकता का संगम।” दादा जी ने छाती फुलाकर गर्व से बताया।

“जब रस्सी तैयार हो जाती, तब भी शहद निकालने की तैयारी पूरी नहीं होती थी — यह तो बस शुरुआत थी,” दादाजी ने उत्साह से बोला। उस समय मेरे दादाजी लगभग 40 वर्ष के थे और इस पूरी प्रक्रिया को हमेशा बड़े गौर से देखते थे और तैयारियों में मदद करते थे

रिंगाल (बाँस की प्रजाति) से बनी एक टोकरी, जाली वाली टोपी, धुएँ के लिए हरी घास का गुच्छा जो मधुमक्खियों को शांत करने के लिए जलाया जाता था, शहद रखने के लिए टिन के हल्के बर्तन और दो लंबी लकड़ियाँ— ये सभी चीज़ें एक-एक कर तैयार की जातीं।लकड़ियों की लंबाई करीब 8 से 10 फीट होती और उनकी बनावट भी अलग-अलग होती। पहली लकड़ी के आगे का हिस्सा पन्युल (कर्ची की तरह नुकीला) होता, जिसे छत्ते को काटने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। दूसरी लकड़ी का आगे का भाग दाथुल (दराती की तरह हल्का झुका और धारदार) होता, जिससे शहद टपकाने के लिए छत्ते को सावधानी से काटा जाता। दोनों लकड़ियों के पिछले हिस्से समान होते थे।

फिर भिर्रीयों और उनके साथ जाने वाले सभी लोगों के लिए भोजन और अन्य ज़रूरी सामान बाँधा जाता था, क्योंकि इस काम में कई घंटे लगते। यह पूरी प्रक्रिया गाँव के हर परिवार का सामूहिक प्रयास थी, क्योंकि उन दिनों बाज़ार पर निर्भरता नहीं थी— हर चीज़ गाँव में ही बनाई और जुटाई जाती थी। शहद निकालने से पहले वन पंचायत से अनुमति लेना अनिवार्य था। बिना अनुमति के शहद निकालना अपराध माना जाता था।

चौथे दिन, जब सभी तैयारियाँ पूरी हो जातीं, तब गाँव के पुरुष भिर्रीयों के साथ निकलते और ऐसे चट्टान को ढूंढते जहाँ धूप, छाव और पानी सही मात्रा में मिलता हो, क्योंकि एपिस् डोरसाटा (मधुमक्खी) ऐसे जगह अपना छत्ता लगाना पसंद करती। कुछ लोग भिर्री को लेकर चट्टान के ऊपर पहुँचते थे और कुछ लोग खड़ी चट्टान के नीचे बैठते। यह वह क्षण होता, जब पीढ़ियों से चली आ रही यह परंपरा जीवंत हो उठती।

हरकोट वन पंचायत की खड़ी चट्टान, जिस पर एपिस डोरसाटा मधुमक्खी का शहद निकाला जाता। फोटो: विवेक

“इस काम में भिर्री का सबसे बड़ा महत्व होता था। हमारे गांव में उस समय चार भिर्री थे जिसमें से किसी एक को ही चुना जाता था। भिर्री उस व्यक्ति को चुना जाता था जिसका कद सबसे छोटा होता था। छोटे कद का सबसे बड़ा फायदा यह था कि छोटे कद और हल्के वजन के कारण रस्सी के टूटने की संभावना कम होती थी, और शरीर की स्थिति भी बेहतर रहती थी।”

हरकोट गाँव में केशर सिंह हरकोटिया नाम का एक व्यक्ति था, जो इस कला में माहिर था। उनका कद करीब 5 फीट था, शरीर गठीला और फुर्तीला। यह सब कुछ उन्हें भिर्री बनने के लिए एकदम उपयुक्त बनाता था। उनके पूर्वज भी यही काम करते आए थे और उन्होंने अपनी कला और साहस की विरासत इन्हीं से पाई थी। दादा जी उन्हें प्यार से किहरु दा बुलाते थे।

किहरु दा एक अखट बिखट मेश छी,” (बड़े भाई केशर निडर और साहसी व्यक्ति थे),” दादाजी ने प्रशंसा के साथ कहा।

“हर भिर्री एक जैसा नहीं होता,” दादा जी ने समझाया। भिर्री अलग-अलग क्षेत्र की विशेषताओं के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं क्योंकि इस काम में केवल ताकत ही नहीं, बल्कि संतुलन और मधुमक्खियों के स्वभाव की गहरी समझ भी ज़रूरी थी। एपिस डोरसाटा प्रजाति की मधुमक्खियाँ झुंड में हमला करती हैं। ये मधुमक्खियाँ बेहद आक्रामक होती हैं, और अगर कई बार काट लें, तो इंसान की जान भी जा सकती है। हर चट्टान पर 8 से 10 भ्यार (शहद के विशाल छत्ते) लटके होते थे, और एक भिर्री तीन से चार चट्टानों की चढ़ाई कर यह कीमती मो (शहद) निकालता था।

भिर्री इन तमाम खतरों का सामना कर गाँव की खुशहाली के लिए चट्टानों की चढ़ाई करता था,” दादा जी ने गर्व से कहा।

एपिस डोरसाटा। फोटो: फोटो: विवेक
भिर्री और मो-शिकार

शहद निकालने के लिए सबसे पहले लोग चट्टान के ऊपर पहुँच जाते थे और तैयारी शुरू कर देते थे। एक मजबूत लकड़ी की कील को जमीन में गाड़कर उसमें तैयार मोटी घास की रस्सी बाँध दी जाती थी। फिर रस्सी का दूसरा सिरा चट्टान से नीचे लटका दिया जाता, ताकि नीचे खड़े लोग उसे पकड़कर स्थिर रख सकें। ऊपर खड़े लोग भिर्री तक जरूरी सामान पहुँचाते थे, जबकि नीचे के लोग रस्सी को हिलने से रोकते और भिर्री से निकाले गए शहद को इकट्ठा करते थे।

भिर्री उस लकड़ी में गड़े कील को दोनों हाथों से प्रणाम करता था, जिस पर मोटी रस्सी बंधी होती थी। शायद इसलिये कि उसकी सुरक्षा उस कील पर काफी निर्भर थी। इसके बाद, वह जाली वाली टोपी पहनकर धीरे-धीरे चट्टान के सहारे नीचे उतरता था। सुरक्षा के लिए उसके शरीर पर भी एक रस्सी बाँधी जाती थी।

खादी चट्टान पर मधुमक्खी के छत्ते। फोटो: हर्ष मोहन भाकुनी

जब भिर्री छत्ते के पास पहुँचता, तो ऊपर बैठे लोग हरी घास के गुच्छे को जलाकर एक रस्सी पर बाँधकर भिर्री तक भेजते, जिससे निकलने वाला धुआँ मधुमक्खियों को शांत करता था। जब मधुमक्खियां खतरे में होती हैं, तो वे एक फेरोमोन (रासायनिक संकेत) छोड़ती हैं, जिससे अन्य मधुमक्खियां भी आक्रामक हो जाती हैं। धुआं इस फेरोमोन को फैलने से रोकता है। दो लंबी लकड़ियाँ और टोकरी अलग-अलग रस्सियों पर बाँधकर भिर्री तक भेजी जाती थीं। पहली लकड़ी का उपयोग शहद के छत्ते को काटने के लिए किया जाता था और दूसरी लकड़ी का उपयोग शहद से भरी टोकरी को नीचे से सहारा देने के लिए किया जाता था। जब टोकरी शहद से भर जाती, तो ऊपर वाले लोग उसे धीरे-धीरे नीचे बैठे लोगों तक खींचकर भेजते थे। नीचे बैठे लोग शहद को अन्य बर्तनों में डालते, और ऊपर बैठे लोग टोकरी को वापस भिर्री तक पहुँचाते थे। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती थी। गर्म शहद निकलने के बाद, कुछ जवान शहद छत्ते के टुकड़ों को बिस्किट के टुकड़ों की तरह खाने की कोशिश करते, लेकिन वे उसे पचा नहीं पाते, जिससे उन्हें नशा सा महसूस होने लगता था। ज्यादातर लोग जो इसे चखते, उन्हें यही नशा महसूस होता था।

भिर्री का मधुमक्खियों के छत्ते से शहद निकालते हुए एक चित्र। चित्रकार: विवेक

उस समय गाँव की महिलाएं भी जंगलों में ईंधन के लिए सुखी लकड़ी इक्ट्ठा करते समय इस खेल को छुपकर देखा करती थीं।

हफ्ते भर से अधिक समय तक सभी चट्टानों से शहद निकाला जाता। कहते हें उसके बाद, रानी मौन या मधुमक्खी अपने परिवार के साथ पहाड़ छोड़ भाबर की ओर चली जाती। मधुमक्खी परिवार के तीन सदस्य होते हैं। पहला रानी मौन, जो परिवार में एक होती है; दूसरा, नर मौन, जिनकी संख्या बहुत कम होती है; और तीसरा, श्रमिक मौन, जो लाखों में होते हैं। यदि वह भाबर नहीं जाती, तो मधुमक्खी का परिवार ठंड से मर जाता, क्योंकि कुछ दिनों बाद ठंड शुरू हो जाती थी। जो श्रमिक मौन रानी से भटक जाते, वे कुछ दिनों बाद मर जाते थे।

गांव में एक पौराणिक कहावत है बिगड़ रो मनि मौन, जिसका मतलब है- किसी भी परिवार में कोई सम्भालने वाला का होना बहुत जरूरी है।

दादा जी ने कुछ सोचते हुए कहा, “पता नहीं किहरू दा (केशर सिंह) जैसे कितने भिर्रीयों ने हमारे गाँव को कार्तिक माह में मो खिलाया होगा।”

हमारे जीवन में मो

निकाले गए शहद को गांव के नंदा देवी मंदिर में लाया जाता, और मो (शहद) और मेन (मोम) को अलग किया जाता। सभी परिवारों को समान मात्रा में मो और मेन दिया जाता था, जिसमें भिर्री का भी एक अलग हिस्सा होता था। गांव के लोग शहद को हरपी (लकड़ी का बना एक पात्र) में रखते थे। शहद का उपयोग पूजा-पाठ में, रोटी के साथ खाने में, और इसके अलावा अपने ईष्ट-मित्रों को भेंट के तौर पर देने में किया जाता था। कुछ लोग शहद को अन्य गांवों में भी बेचते थे, जिससे उन्हें पैसे मिलते थे। गांव के बुजुर्ग इस शहद को तंबाकू के साथ मिलाकर चिलम पीते थे, जिसकी गंध बहुत दूर तक फैलती थी।

एक खाली हरपी, जिस पर अनाज और शहद रखा जाता था, जो 2 से 3 लीटर का होता था। फोटो: विवेक

“शहद निकालने के बाद गाँव में डिगर दा सभी लोगों के लिए रोली के किनारे हलवा तैयार करते थे।”, दादा जी ने कहा।

स्कूल की छुट्टी के बाद कुछ बच्चे वहाँ पहुँच जाते, जिन्हें पत्ते में हलवा दिया जाता था। मुझे मेरे पिता जी ने बताया कि जब वे 12 वर्ष के थे, वे भी वहां पहुँच कर हलवा मजे से खाते थे।

मेरा मानना है कि यह परंपरा खत्म का एक प्रमुख कारण बढ़ते जलवायु परिवर्तन है। असामान्य मौसम, जैसे अत्यधिक गर्मी, ठंड, या बेमौसम बारिश, एपिस डोरसाटा के जीवन चक्र को गंभीर रूप से बाधित करता है। जलवायु परिवर्तन के कारण फूलों के खिलने के समय में बदलाव हो जाता है, जिससे मधुमक्खियों को पराग और शहद जैसे आवश्यक खाद्य स्रोतों की कमी का सामना करना पड़ता है। इस स्थिति में मधुमक्खियां कमजोर हो जाती हैं और उनकी प्रजनन क्षमता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे उनकी संख्या में गिरावट देखी जा रही है। परंपरागत खेती के स्थान पर एकल फसल खेती (monoculture) का बढ़ता उपयोग एपिस डोरसाटा के भोजन के स्रोतों को कम कर रहा है। इसके अलावा कुछ क्षेत्रों में लोग शहद निकालने के लिए एपिस डोरसाटा के पूरे छत्ते को नष्ट कर देते हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। यह प्रक्रिया न केवल उनकी आबादी को घटाती है बल्कि उनके प्राकृतिक जीवन चक्र को भी बाधित करती है। आज के दिन हमारे गाँव हरकोट में एपिस डोरसाटा के एक या दो छत्ते भी मुश्किल से दिखाई देते हैं।

मधुमक्खी या मौन पालन अब ढोर और दीवारों में होता है। ढोर, जो पारंपरिक तरीके से बनाया गया एक प्रकार का बी बॉक्स होता है, उसमें मधुमक्खी की एक अलग प्रजाति का प्रयोग किया जाता है, जिसका नाम एपिस सिरना इंडिका है, जिसे आमतौर पर भारतीय मौन कहा जाता है। इस विधि से शहद एक वर्ष में केवल दो बार निकाला जाता है- पहला बसंत में और दूसरा कार्तिक में। इस शहद की पहचान हम एक आसान तरीके से कर सकते हैं। कहते हैं कि यदि शहद का रंग हल्का लाल होगा, तो वह बसंत का शहद होगा और हल्का सफेद रंग का शहद कार्तिक का होगा। मौन पालन की इस विधि में शहद निकालते समय मधुमक्खियों के साथ उनके बच्चे, लार्वा, प्यूपा और अंडे भी मर जाते हैं, जो शहद में मिलकर उसकी गुणवत्ता को घटा देते हैं। इससे शहद जल्दी ही खराब हो जाता है।

एपिस डोरसाटा और एपिस सेराना के बीच अंतर। फोटो: नगमा परवीन

मधुमक्खी के छत्ते में दो भाग होते हैं। एक भाग ब्रूड होता है, जिसमें मधुमक्खी के अंडे, लार्वा और प्यूपा होते हैं। दूसरा भाग शहद वाला होता है।

पुरानी भिर्री वाली शहद निकालने की परंपरा में ब्रूड वाले हिस्से को बिना किसी नुकसान पहुँचाए छोड़ दिया जाता था, ताकि मधुमक्खियों की प्रजनन क्षमता बनी रहे। वे केवल दूसरा भाग, जो मो वाला होता था, उसे काटते थे। यह पारंपरिक शहद निकालने का तरीका संतुलन बनाए रखने में मदद करता था और कुदरती संसाधनों का सम्मान करते हुए, मधुमक्खी पालन को पीढ़ियों तक स्वस्थ बनाए रखने में सहायक था।

गाँव के बुजुर्ग आज भी भिर्री के साहसिक कारनामों को याद करते हैं।

दादा जी ने फिर से दोहराया, “भिर्री होना सिर्फ काम नहीं, बल्कि गाँव की इज्जत और जिम्मेदारी थी।”

यह कहानी केवल मो की नहीं, बल्कि गाँव की सामूहिकता, परिश्रम और उस साहस की भी है जिसने कठिन परिस्थितियों में भी परंपरा को जीवित रखा। भिर्री और मो की यह विरासत आज भी हमारे पर्वतीय जीवन की स्मृतियों में जीवित है।

Meet the storyteller

Vivek
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Vivek was born in Harkot village, located at an altitude of 2,200 meters above sea level in Munsiari, Uttarakhand. He is an alumnus of the Kumaon University  and has  completed his BA. Inspired by the honey-hunters of his village, he did a course on apiculture from the National Bee Board and loves bee keeping. Apart from time spent wandering in the Harkot Van Panchayat, Vivek likes to reads non-fiction books, keep himself fit and enjoys meeting new people. Vivek aspires to become a full-time farmer in the future.

 

विवेक का जन्म उत्तराखंड के मुनस्यारी स्थित हरकोट गांव में हुआ जो हिमालय में 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वह कुमाऊं विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं और उन्होंने अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की है। अपने गांव के शहद-शिकारीयों से प्रेरित होकर, उन्होंने नेशनल बी बोर्ड से अपीकल्चर (मधुमक्खी पालन) का कोर्स किया और उन्हें मधुमक्खी पालन का गहरा शौक है। हरकोट वन पंचायत में घूमने के अलावा, विवेक गैर-काल्पनिक किताबें पढ़ना, फिट रहना और नए लोगों से मिलना पसंद करते हैं। विवेक का सपना है कि वह भविष्य में एक पूर्णकालिक किसान बनें।

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Voices of Rural India is a not-for-profit digital initiative that took birth during the pandemic lockdown of 2020 to host curated stories by rural storytellers, in their own voices. With nearly 80 stories from 11 states of India, this platform facilitates storytellers to leverage digital technology and relate their stories through the written word, photo and video stories.

ग्रामीण भारत की आवाज़ें एक नॉट-फ़ॉर-प्रॉफ़िट डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म है जो 2020 के महामारी लॉकडाउन के दौरान शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण कहानीकारों द्वारा उनकी अपनी आवाज़ में कहानियों को प्रस्तुत करना है। भारत के 11 राज्यों की लगभग 80  कहानियों के साथ, यह मंच कहानीकारों को डिजिटल तकनीक का प्रयोग कर और लिखित शब्द, फ़ोटो और वीडियो कहानियों के माध्यम से अपनी कहानियाँ बताने में सक्रीय रूप से सहयोग देता है।

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Vicky thakur
Vicky thakur
1 month ago

Bahut badhiya likha hai aapne vivek bhai.

हर्ष
हर्ष
1 month ago

पहाड़ का मो मेरे लिए हमेशा खाश है क्योंकि मैं शहद हमेशा रोटी के साथ खा लेता हूं। और मेरे लिए हमेशा असमंजस होता था यह मो 2 प्रकार से क्यों है।
मुझे आपके कहानी से यह जानने को मिला
। और यह कहानी बहुत सुन्दर जीवन को व्यक्त करता है। जिसमें समुदाय के परम्परा को एक सम्मान के रूप में देखा गया।

स्वामी मायाधीशान्द
स्वामी मायाधीशान्द
1 month ago

सराहनीय!

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