
नदी, सड़क और यात्राएं: 2023 में लगातार भूस्खलन से किन्नौर में किस तरह जनजीवन हुआ अस्त-व्यस्त
पिछले कुछ वर्षों में किन्नौर में कई बदलाव देखने को मिले हैं।सड़क संपर्क, सेब अर्थव्यवस्था और क्षेत्र में बड़ी और छोटी जलविद्युत परियोजनाओं का आगमन उनमें शामिल है। इस अंश में लेखिका यह चिंतन कर रही है कि उसके दादा-दादी की पीढ़ी में यात्रा से जुड़ी कहानियाँ कैसी दिखती थीं और अब चीजें कैसी नज़र आती है। पैदल यात्रा सुदूर अतीत की बातें प्रतीत होती हैं और आज की यात्राएं “खतरे” के साइनबोर्ड और “आपदाओं” की समाचार सुर्खियों से ग्रस्त हैं।

कहानीकर्ता : प्रमिति नेगी
हिमल प्रकृति फेलो
रिकांग पिओ, जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश
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किन्नौर के हिमालय एक ऐसा परिदृश्य रहा है जहां भेड़ पालन और पारगमन ऐतिहासिक रूप से इस क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण रहा है – एक ऐसी आजीविका जो लगातार कठिन यात्राओं की मांग करता है। किन्नौरा के एक बुजुर्ग के साथ अतीत को याद करते हुए बातचीत पूरी नहीं होगी यदि उन्होंने आपको अपनी पैदल यात्रा की कहानियाँ नहीं बताईं।

मेरी तिरासी वर्षीय नानी अक्सर जिक्र करती है-
“मैं अपनी शादी के बाद शायद ही कभी अपनी मां के घर जा पाती थी क्योंकि दूरी अधिक थी और उस समय सड़क या बसें नहीं थी”
परिवहन के साधनों के बारे में बात करते हुए उनके आश्चर्य को देख मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि समय के साथ किन्नौर में जीवन और जीवनशैली कैसेऔर कितनी बदल गई है।
पुराना हिंदुस्तान तिब्बत मार्ग भारत और तिब्बत के बीच एक प्राचीन व्यापार मार्ग था जो किन्नौर से होकर गुजरता था। हिंदुस्तान तिब्बत रोड ऊन और संबंधितउत्पादों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। व्यापार को औपचारिक मान्यता 17 वीं शताब्दी में तिब्बत और बुशहर के राजा ने दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापारिक संधिहस्ताक्षरित कर की थी। इसके अंतर्गत दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापार पे लगने वाले शुल्क को प्रतिबंधित किया गया था। यह व्यापारिक संबंध दोनों ओर लगने वालेबाज़ारों और मेलों में देखने को मिलते थे- जिसमें प्रसिद्ध लवी मेला भी शामिल था । लवी का आयोजन आज तक नवंबर के महीने में रामपुर बुशहर में किया जाताहै हालांकि अब तिब्बत से आए व्यापारी यहां देखने को नहीं मिलते। माना जाता है कि “लवी” शब्द की उत्पत्ति पहाड़ी बोली “लोई” से हुई है जिसका अर्थ हैकच्चा ऊन।
ब्रिटिश काल के दौरान, अंग्रेजों ने पुरानी एचटी रोड को चौड़ा करने का प्रयास किया और किन्नौर को उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से जोड़ने के लिए सतलुज के किनारे निर्माण शुरू किया। 1960 के दशक में चीन से आक्रामकता के खतरे को देख इस ट्रैक को बाद में NH22 में बदल दिया गया। इससे पहले किन्नौर का भारत के मैदानी क्षेत्रों से संपर्क सीमित था जबकि तिब्बत के साथ संबंध मजबूत रहे। व्यवसायी एवं तीर्थयात्री अक्सर पड़ोसी मुल्क तिब्बत में जाते थे। मेरे नानाजीउन कई बच्चों में से एक थे, जो ल्हासा, तिब्बत में बौद्ध शिक्षा ग्रहण कर ‘लामा’ बनने के लिए निकले थे। लेकिन उनकी किस्मत थोड़ी खराब थी । जब वहल्हासा में रह रहे थे तो चीन द्वारा तिब्बत पर कुख्यात कब्जे के कारण उनकी बौद्ध शिक्षा शीघ्र ही बाधित हो गई। और मेरे नानाजी राजनीतिक उथल-पुथल से भरीएक अनजान भूमि में बंदी बन गये। उन्होंने मुझे घर वापसी की अपनी मुश्किल यात्रा के बारे में बताया। लेकिन क्यूंकि मैं बहुत छोटी थी, मुझे उनकी यात्रा काविवरण गहराई में याद नहीं है- लेकिन वह रोमांच और गर्व जो मैंने उनकी असाधारण यात्रा की कहानी सुन कर उस समय महसूस किया था वह मुझे आज भी यादहै।
मेरे माता-पिता की पीढ़ी की यात्रा की कहानियाँ थोड़ी अलग हैं। मेरी मां हमेशा गर्व से फूल उठती हैं जब वह मुझसे कहती हैं,
“मैं अपने गांव से स्नातक (ग्रेजुएशन) की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली महिला थी और यह आसान नहीं था।”
उनकी पीढ़ी पहली पीढ़ी थी जिसने सार्वजनिक स्तर पर औपचारिक स्कूली शिक्षा प्राप्त की। साथ ही साथ वे उस पहली पीढ़ी से थीं जो रोजगार और शिक्षा के लिए किन्नौर से बाहर भी गए। उनकी कहानियाँ आम तौर पर उन संघर्षों और कठिनाइयों को दर्शाती हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ा “हमारे गाँव में कोई स्कूल नहीं था। हम स्कूल जाने के लिए हर दिन पैदल चलकर पड़ोसी गांव जाते थे।”
“हमारे पास बीमार पड़ने की सुविधा नहीं थी, हम बीमार पढ़ जाते तो इलाज कैसे और कहाँ कराते?”
इस दौरान किन्नौर में एक और बड़ा बदलाव सेब की अर्थव्यवस्था का स्थापित होना था।1915 में सैमुअल इवांस स्टोक उर्फ सत्यानंद स्टोक्स नें अपने मूल स्थान अमेरिका से सेब के कुछ पौधे लाए और उन्हें थानेदार, हिमाचल प्रदेश में, जो उनका चुने हुए घर बन गया था, में लगाया। अगले कुछ दशकों में सेब की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बढ़ती रही और किन्नौर तक अपना रास्ता बना लिया, जो कि अब तक उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से प्रभावी रूप से जुड़ चुका था।

सड़क संपर्क से किन्नौर के सेबों की पहुंच पूरे भारत के बाजारों तक बढ़ गई और सेब की खेती इस क्षेत्र की प्राथमिक आर्थिक गतिविधि के रूप में उभरी। पिछले कुछ वर्षों में पर्यटन में भी लगातार वृद्धि हुई है; किन्नौर की सुंदर घाटियाँ और समृद्ध संस्कृति सभी प्रकार के यात्रियों को आकर्षित करती है जो भीड़ भाड़ से परे घूमने के इच्छुक है। हालांकि चिकित्सा सुविधाएं मेरी माँ के समय से बहुत बेहतर नहीं हैं और कई गांवों में आज भी सड़क नहीं है लेकिन किन्नौर हिमाचल प्रदेश के बारह जिलों में से आज दूसरी सबसे बड़ी प्रति व्यक्ति आय वाला जिला की पहचान रखता है।
किन्नौर को एक तरफ शिमला और दूसरी तरफ स्पीति से जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग सतलुज नदी के किनारे चलता है। बाइकर्स और यात्रा प्रेमी भी स्पीति तक पहुंचने और इस सड़क पर ड्राइविंग के रोमांच का अनुभव करने के लिए किन्नौर से होकर गुजरते हैं। लेकिन सतलुज और उसकी सभी सहायक नदियों पे अनगिनत बांध और सुरंग बना दी जा रही हैं। जलविद्युत बिजली के उत्पादन के लिए सतलुज का भारी दोहन किया जा रहा है और किन्नौर में प्रवेश होते ही आपको सतलुज को आजाद बेहते हुए न देख, इस नदी को बांधों और सुरंगों के भीतर कैद ही देख पाएंगे।

छवि निचार के कांगोश गांव से ली गई है।
आधुनिकता के इस जटिल दौर में जहाँ सड़क की सुविधाओं से जीवन आसान हुआ तो दूसरी ओर क्षेत्र में यात्रा की कहानियाँ कोई कम नहीं हुई हैं, केवल रूपांतरित हो गई हैं। किन्नौर के यात्रा विवरण आज भूस्खलन, गिरते पत्थरों और कार्य प्रगति पर के साइनबोर्डों से चिह्नित हैं। 2021 में बटसेरी और निगुलसारी में दो भूस्खलनों ने 9 और 28 लोगों की जान ले ली। इस वर्ष भी क्षेत्र में कई आपदाएँ सामने आई हैं।
इस वर्ष, 9 जुलाई की सुबह हर कोई हिमाचल प्रदेश में बारिश से हुए नुकसान की खबर सुनकर उठा और अगले दिनों में बाढ़ की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित होते रहे। मंडी, शिमला, मनाली और किन्नौर में बाढ़ से जान माल की हानि हुई।
इस वर्ष मानसून और ‘वेस्टरली डिस्टर्बेंस’ यानि पश्चिमी विक्षोभ के संपर्क के कारण हिमाचल प्रदेश में भारी वर्षा हुई है। चक्रवाती तूफान जिन्हें ‘वेस्टरली डिस्टर्बेंस’ के नाम से जाना जाता है, मेडीटेर्रीनियन रीजन (भूमध्यसागरीय क्षेत्र) में उत्पन्न होते हैं और आमतौर पर भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों और हिमालय में शीतकालीन वर्षा और बर्फबारी लाते हैं। लेकिन बढ़ते तापमान के कारण, गर्मी और मानसून के मौसम में पश्चिमी विक्षोभ भारत में अधिक प्रवेश कर रहे हैं, जिसके प्रभाव से विनाशकारी आपदाएँ आ रही हैं।
फिर सितंबर में हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश और तबाही का दूसरा दौर आया। किन्नौर में बारिश के कारण NH5 पर निगुलसारी के पास भूस्खलन हुआ, जिससे दस दिनों तक किन्नौर का संपर्क बाहरी दुनिया से कट गया। भूस्खलन ऐसे समय में हुआ जब लोग अपनी मटर की फसल और अर्ली वैरायटी (जल्दी पकने वाले) सेब के बिक्री के लिए तैयारी कर रहे थे। राजनेताओं, अधिकारियों और स्थानीय लोगों सभी ने सड़क को दुरुस्त करने के लिए कड़ी मेहनत की। निगुलसारी के समीप ये वही इलाका है जहां 2021 को हुए भूस्खलन से 28 लोगों की जान गई थी।


NH5 को बाधित करने वाला एक और विशाल भूस्खलन 28 अक्टूबर 2023 को हुआ। इस बार जिम्मेदार ठहराने के लिए भारी वर्षा भी नहीं हुई थी। नाथपा में पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा ढह गया, जो पहली आपदा की जगह से मुश्किल से दस किलोमीटर दूर है। भूस्खलन 1500 मेगावाट नाथपा-झाकड़ी जलविद्युत परियोजना के जलाशय के ठीक ऊपर हुआ। अक्टूबर और नवंबर के महीनों में बांध के पास कई भूस्खलन आये और सड़कें अवरुद्ध हुईं। यह किन्नौर से सेब निर्यात के लिए सबसे व्यस्त अवधि के दौरान हुआ था। किन्नौर में अधिकांश शादियाँ भी अक्टूबर और नवंबर में होती हैं। लोग अपनी सेब की बिक्री पूरी कर लेते हैं और नकद हाथ आने पर शादी की तैयारी भी ठीक से हो जाती है।

28 अक्टूबर को हुआ भूस्खलन

किन्नौर में एक पुरानी कहावत है कि यदि आप खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किए गए बर्तन में खाना खाते हैं तो आपकी शादी के दौरान बारिश होगी। मुझे इस कहावत की तीव्रता का एहसास इस वर्ष हुआ। मेरे चचेरे भाई की शादी 2 नवंबर को तय थी और शादी में पहुंचने के लिए हमें रोडब्लॉक से पार होकर जाना पड़ा था। जिस बस से हम यात्रा कर रहे थे, वह ब्लॉक पॉइंट से कुछ किलोमीटर पहले रुकी, हम नीचे उतरे और लगभग एक किलोमीटर तक चले और दूसरी तरफ एक और बस यात्रियों का इंतजार कर रही थी। मैंने किसी को यह कहते सुना कि दूल्हा-दुल्हन को दिए जाने वाले उपहारों और पैसो के लिए जल्द ही ऑनलाइन ट्रांसफर की सुविधा शुरू करनी चाहिए। अपनी यात्रा के दौरान, मैं सोचती रही कि,
“हम अपनी युवा पीढ़ियों को किस प्रकार की कहानियाँ सुनाएँगे?”
बेशक, हर किसी के पास साझा करने के लिए अपने अनूठे अनुभव होंगे लेकिन मुझे यकीन है कि प्रत्येक कहानी को आधुनिकता की दोधारी तलवार से एक चेतावनी संदेश के साथ टैग किया जाएगा। “एक बार की बात है, एक युवक था जो हमेशा खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तन में ही खाना खाता था। उसे अपनी दुल्हन के घर तक पहुंचने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। रास्ते में बड़ी चुनौतियों- जैसे ग्लोबल वार्मिंग, अनियमित और असुरक्षित संरचनाओं और न जाने किस किस प्रकार की समस्याओ से निपटना पड़ा….।”


हिमाचल प्रदेश के (संचयी रिपोर्ट) विवरण के अनुसार मानसून के मौसम के दौरान 24 जून 2023 से 13 सितंबर 2023 के बीच मौसम संबंधी आपदाओं के कारण राज्य भर में 428 लोगों की मृत्यु हो गई, जिनमें से 112 भूस्खलन के कारण थे। कुल क्षति लगभग 60 अरब रुपये होने का अनुमान लगाया गया था। इसमें किन्नौर में किसानों, पर्यटन व्यवसायों और छोटे व्यापारियों को होने वाले नुकसान और बार-बार रोड ब्लॉक के कारण होने वाला मानसिक आघात शामिल नहीं है। भारी बारिश उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकती है लेकिन भूस्खलन अचानक नहीं होता है। प्रदेश में बदलता भूमि उपयोग एक मुख्य कारण है जो उन्हें बढ़ाती है।

जब भी मैं अपनी नानी से मिलने उनके गांव खदूरा जाती हूं, तो सड़क के किनारे नारों और #NO MEANS NO से रंगी हुई विशाल चट्टानों की ओर ध्यान ज़रूर चले जाता है। उनमें से एक में लिखा है-
“आज हिमालय जागेगा लूटने वाला भागेगा।”
मेरी नानी का गांव उस क्षेत्र में है जहां 804 मेगावाट की जंगी ठोपन जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। प्रस्तावित परियोजना के खिलाफ युवाओं के नेतृत्व में ‘नो मीन्स नो’ नामक एक अभियान विकसित होकर सामने आया है। 2021 में ‘नो मीन्स नो’ को ठोस आकार मिला लेकिन किन्नौर भर में विरोध प्रदर्शनों और संघर्षों का एक लंबा इतिहास रहा है जिसने इसकी परिणति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
राष्ट्रीय राजमार्ग पर बार-बार होने वाले भूस्खलन के लिए जवाबदेही और स्वतंत्र जांच की मांग कई स्थानीय लोगों द्वारा की जा रही है, जिनमें ‘नो मीन्स नो’ के प्रचारक भी शामिल हैं। रोड ब्लॉक खुल जाने या नए सड़क एवं पुल के उद्घाटन का जश्न मनाने के लिए हमारे नेता तत्पर रहते हैं, लेकिन वे बार बार भूस्खलन के मूल कारण को पता लगाने की मांग का जवाब क्यों नहीं देते?

एक बार मेरी नानी ने मुझे बड़े अफ़सोस के साथ उनके दूर के रिश्तेदारों के साथ हुए हादसे के बारे में बताया।
“तेज़ बहती धारा को पार करने के लिए दोनो भाई बहन ने ‘थकपा’ (भेड़ के ऊन से बनी एक मजबूत रस्सी) को अपनी कमर के चारों ओर लपेट कर बाँध दिया। वह भेड़ों को एक-एक करके अपनी बाहों में उठाकर नदी को पार कराने का प्रयास करने लगे। लेकिन क्योंकि पानी का बहाव बहुत तेज़ था वह दोनों पानी के साथ बह गए और उनका किसी को कुछ पता न चला।”
उनकी बात सुन एक बार फिर मैं उन कहानियों के बारे में सोचने लग गई जो हम अपनी युवा पीढ़ी को सुनाएंगे, कहानियाँ नदियों और यात्राओं की।
Meet the storyteller

