Khatarwa Festival - Uttarakhand
Culture,  Hindi,  Uttarakhand

खतरुवा त्यार

कहनीकार- बसन्ती रावत

ग्राम सरमोली, मुनस्यारी, जिला पिथौरागढ़
उत्तराखंड

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कुमाऊँ के पिथौरागढ़ जिले के सरमोली गांव में मेरा जन्म एक किसान परिवार में 46 साल पहले हुआ था। हमारा एक सयुक्त परिवार था जिसमें 16 लोग रहते थे। हमारा पूरा परिवार पशु पालन व खेती पर निर्भर था। आज मैं भी मेरे माता पिता की  तरह गाय पालन का काम करती हूँ।

सबसे पहले मैंने अपने ससुराल, शंखधुरा के घर में एक गाय पाली। फिर घर में दूध की कमी होने लगी तो धीरे-धीरे और एक-एक करके मैंने चार गाय एकट्ठा कर ली। मुझे मेरे गायों के साथ अपने बच्चों जैसा लगाव है। मुझे आज भी उन पहली चार गायों के नाम याद है- धौली, काली, रतूली और फुरकुली। इन चारों गायों से मैंने दूध बेचने का काम शुरू किया और समय के साथ मेरी आजीविका बढ़ने लगी। अब मेरा स्वास्थय मेरा साथ नहीं देता, इसलिए मेरे पास सिर्फ दो ही गाय हैं। बड़ी गाय का नाम पिंकी है और छोटी गाय का नाम रानी है। सच कहूँ तो पिंकी और रानी मेरी बेटियों की तरह है। जब आप अपने दिन का एक बड़ा भाग इन जानवरों के साथ बिताते हैं तो उनसे एक अलग सा लगाव हो जाता है । 

हमारे गाँव में गाय-बैलों से जुड़ा का एक ख़ास त्यौहार है जिसे खतरुवा या खुंद्रू भी कहते है। यह त्यौहार पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाता है। सुना है कि इसे गढ़वाल में नहीं मनाया जाता। लोक कथा के अनुसार एक जमाने में कुमाऊँ और गढ़वाल के बीच युद्ध हुआ था जिसमें हमारे यहाँ के सेनापति ने गढ़वाल के खतरुवा नाम के सेनापति को हरा दिया था और इसी जीत की खुशी में हमारे क्षेत्र में त्यौहार मानाया जाता है। इस त्यौहार को जिम्दार (खेती करने वाले लोग) और भोटिया (जनजाति लोग), सभी गाँव में मिलकर मनाते है। 

जब हम छोटे थे तो साल भर मैं और मेरे छोटे भाई बहन खतरुवा त्यौहार का इंतजार करते थे। हर वर्ष असोज के एक गते (सितम्बर माह) को यह त्यौहार मनाया जाता है। रोचक बात यह है कि हमारे  कुमाऊँ  के इलाको में इसे भिन्न-भिन्न तरीके से इसे मनाया जाता है। यह पशुओं का सबसे बड़ा त्यौहार है जिसमें उनकी सुरक्षा की कामना की जाती है। इस त्यौहार के बाद से चौमास (वर्षा ऋतु) का अन्त व जाड़ों (शीत ऋतु) का प्रारम्भ हो जाता हैं। हमारे यहाँ कहते हैं कि खतरुवा के दिन से जंगल में घास की एक जड़ सूख जाती है। इसलिए हम एक दिन पहले अपनी गायों के लिए बहुत सारी घास काटके लाते हैं, पर खतरुवा के दिन घास काटने को गाय के लिये अशुभ माना जाता है। इसके बाद से ज़मीन में उग रही घास सूखना शुरू हो और पीली पड़ने लग जाती है। 

खतरुवा के दिन हम बच्चे सुबह-सुबह उठकर जंगलों में अखरोट बीनने जाते थे। जब हम घर लौटते थे तो सभी लोग मिल कर गाय को नहला और तैयार कर उसकी पूजा की तैयारी कर लेते थे। आज भी मुझे याद है कि तब पूरे गांव में घंटियों की आवाज गूंजने लगती थी। उस समय गांव में लोगों के पास बड़े-बड़े बैल हुआ करते थे। हम सब बच्चे बहुत उत्साहित होते थे कि जंगल जायेंगे और खूब मस्ती करेंगे! 

जंगल पहुंचकर सब गांव के बच्चे बैलों को इकट्ठा कर उन्हें लड़ाते थे। इस लड़ाई में कई बार बैल के सींग तक टूट जाते थे। उस दिन हम सब बच्चे मिलकर छुपन छुपारी खेलते थे। एक बार एक बच्चा पेड़ में अटक गया था और वो बहुत डर गया। फिर सब बच्चों ने दुपट्टे  को बांध कर रस्सी बनाई और उसे पेड़ से नीचे उतारा। आज से 40 साल पहले गाँव के सभी घरों में मैंने गाय भैसों को पालते हुये देखा है। उन दिनों गाय को जंगल चुगाने के लिये एक ग्वाला रखते थे। हमारे गांव के ग्वाला का नाम कुन्दन था। उनको पूरे गांव के लोग प्यार से लोट दा  बुलाते थे। जब लोट दा  बूढ़े  हो गये, तब गांव वाले बारी-बारी से गाय चुगाने के लिए जाते थे। आज गाँव के कम ही लोग अपने पशुओं को जंगल में चराने ले जाते हैं और कोई ग्वाले का काम नहीं करता। पशुपालन भी कम कर दिया है, दूध बाजार की डेरी से खरीदते है और खेती भी कम कर दी है। 

त्यौहार के दिन पशुओं की पूजा करके तेल और टीका लगाया जाता है। जिस प्रकार हम अपने तीज त्यौहार में नये वस्त्र पहनते हैं उसी प्रकार खतरुवा के दिन सभी पशुओं के गले में भांग के रेशे से बनी गई रस्सी को पहनाया जाता है। इस रस्सी को यहां की भाषा में द्वाल  बुलाया जाता है और उसमें घंटी बांधी जाती है। आजकल लोग प्यास्टिक से बने द्वाल बाजार से खरीदकर पहनाने लगे हैं।

महिलाएं ताजा कटे लम्बे-लम्बे घास से बुड़ी  नाम के भगवान का पुतला बनाते हैं और साथ में बुड़ी  के बच्चों के भी पुतले बनाये जाते है। जहां पर गोबर का ढेर लगाते हैं, उस जगह को पूरा घास से ढक दिया जाता है। मान्यता यह है कि खाद जब पूरा ढका जाता है तो जाड़ों में पालतू पशुओं को ठण्ड नहीं लगती है। फिर बुड़ी  को खाद के ढेर के ऊपर स्थापित कर दिया जाता है। बुड़ी को अनेक प्रकार के फूलों और फलों से सजाया जाता है जैसे कि आरु, अखरोट, ककड़ी और मक्का। 

जिस रास्ते से पशुओं को जंगल चुगाने के लिए ले जाया जाता है उस पूरे रास्ते में घास बिछाई जाती हैं। सब गांव के बच्चे व ग्वाले जंगल जाते है और वहां की सफाई करते है। फिर पत्थर से मन्दिर बनाया जाता है। इस स्थल को फूलों से सजाया जाता है। खाजा का प्रसाद बनाया जाता है और फल चढ़ाये जाते हैं। 

बच्चे छोटे छोटे पत्थरों को इकठ्ठा करते हैं। पत्थरों से बकरियां, गाय, बैल और भैसों को बनाया जाता है। उनके लिए घास काट कर खिलाने के लिए उनके सामने डाल दिया जाता है। कद्दू, ककड़ी या नीम्बू के छोटे छोटे बकरियाँ बनाकर चढ़ायी जाती है। चढ़ाने के बाद इन्हें पकड़ कर बाग-बकरी का खेल खेला जाता है। फिर उस बकरी को काट कर चारों दिशाओं में भगवान को चढ़ाया जाता है। 

शंखधुरा के मेरे पड़ोसी त्रिलोक राणा ने याद करते हुए बताया कि वे बचपन में कैसे मनाया करते थे- 

“हमारे बुजुरगों का ग्वाल ढूंग के पास बनाया हुआ खुंद्रू पौर में हम सभी गाय बैल ले जाते थे। मंदिर के परिसर के गोल धुमाने के बाद हम एक बड़े कद्दू को रस्सी से बांधकर उसे परिसर के गोल घसीटते हुए दौड़ते थे। हम में से एक लाठी ले कर उसका पीछ करते थे और लाठी से पीट-पीट कर उसे फोड़ दिया करते थे। खेल करने के बाद पूजा किया जाता था। अब तो हमारे गांव से अन्नो ही ग्वाल बनकर अपनी गाय जंगल में चराता है- औरों ने तो घर में बस एक-दो गाय ही रखी है।”

बीना नित्वाल जो बगल के बागेश्वर जिले से 20 साल पहले शादी करके हमारे गांव आई थी, याद करते हुए बताती है कि- 

“हम लोग भी गाय की पूजा करके, खाद बुरि (बुड़ी) बनाकर ककड़ी और फल-फूल चढ़ाते थे। शाम के समय जब गाय-बछिया जब घर आ जाते, तब हम एक मशाल जलाकर उसका धूंआ सभी के गोठ में लेजाकर चिलाते थे-

खुंद्रू- खूंद्रू बाहर निकल!”

दो झोले लेकर सब बच्चे खाजा और ककड़ी इक्ठ्ठा करने के लिए पूरे गांव के घर-घर जाते थे। रास्ते भर नारे लगाते थे- 

खुंद्रू हैर गे- गुर जीत गे! (खुंद्रू की हार हुई- गाय की जीत हुई!)”“शाम होते-होते हम धार में जाकर, जहां हमने दिन में जहां खुंद्रू पौर (पिरुल और लकड़ी का बनाया हुआ छप्पड़) बनाया था, वहां पत्थरों की बकरी व गाय को गोल घेरे में सजा देते थे। कद्दू का जित्ती (भैंस का कटरा) बनाकर उसकी बलि चढ़ाते थे और तभी खुंद्रू पौर को जला दिया जाता था। उसी आग के किनारे में मक्का को भुन कर खाते थे और सभी को ककड़ी और खाजा बांटते थे। खेल भी दौड़-भाग व धकम-धक्का वाला था, एक दूसरे से मक्का छीन कर खाते थे और चिल्ला-चिल्ला कर खुंद्रू हैर गे- गुर जीत गे! गाते थे। पता नहीं ऐसा क्यों करते थे पर मज़ा तो बहुत आया करता था। अब तो ऐसा कोई करता नहीं।”

शंखधुरा गांव में खुंद्रू पौर बनाकर नहीं जलाया जाता, शायद इस लिए क्योंकि यह मेसर देवता की भूमि है। यहां पर पूजा के बाद खाजा, फल व ककड़ी का प्रसाद सब लोगों को बांटा जाता है। सब लोग घर वालों के लिए भी प्रशाद ले जाते है। 

गाय का हम पहाड़ियों के जीवन में खास योगदान है। खेतों में हम जो खाद डालते है, हमारे बच्चों को जो दूध-दही देते हैं- वो सब हमें हमारे जानवरों से मिलता है। मेरा मानना है कि हम अपनी गायों को इसलिए पूजते है क्योंकि यह हमारे लिए सिर्फ आजीविका का जरिया ही नहीं बल्कि यह हमारा उनके लिए प्यार है और उनके प्रति आभार प्रकट करने का तरीका है। 

धीरे-धीरे हमारे समाज और जीवनशैली में बदलाव आने से बहुत सी सांस्कृतिक धरोहर खत्म होती जा रहा है। अब तो लोगों ने जानवरों को पालना भी कम कर दिया है। अगर हमने जानवर पालना बन्द कर दिया तो हमारे खेतों में डालने के लिए खाद कहाँ से मिलेगी, हम कृषि का काम कैसे करके रह पाएंगे? 

Meet the storyteller

Storyteller
Basanti Rawat
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Basanti Rawat has a green thumb and when she married into the neighbouring village of Shankhdhura, she took her family’s farming tradition and love for agriculture and cattle-rearing with her. She calls herself a farmer with pride and her cows are as dear to her as her other family members. She is one of the founder members of Maati, a mountain women’s collective and has been advocating for women’s land rights. She is presently the Sarpanch of her village Forest Commons, the Shankhdhura Van Panchayat.

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